Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 166.

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
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अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो।
बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि।। १६६।।
अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः।
बध्नाति पुण्यं बहुशो न खलु स कर्मक्षयं करोति।। १६६।।
उक्तशुद्धसंप्रयोगस्य कथञ्चिद्बन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिरासोऽयम्। अर्हदादिभक्तिसंपन्नः
कथञ्चिच्छुद्धसंप्रयोगोऽपि सन् जीवो जीवद्रागलवत्वाच्छुभोपयोग–तामजहत् बहुशः
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गाथा १६६
अन्वयार्थः– [अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः] अर्हंत, सिद्ध, चैत्य
[–अर्हंतादिकी प्रतिमा], प्रवचन [–शास्त्र], मुनिगण और ज्ञानके प्रति भक्तिसम्पन्न जीव [बहुशः
पुण्यं बध्नाति] बहुत पुण्य बांधता है, [न खलु सः कर्मक्षयं करोति] परन्तु वास्तवमें वह कर्मोंका क्षय
नहीं करता।
टीकाः– यहाँ, पूर्वोक्त शुद्धसम्प्रयोगको कथंचित् बंधहेतुपना होनेसे उसका मोक्षमार्गपना निरस्त
किया है [अर्थात् ज्ञानीको वर्तता हुआ शुद्धसम्प्रयोग निश्चयसे बंधहेतुभूत होनेके कारण वह मोक्षमार्ग
नहीं है ऐसा यहाँ दर्शाया है]। अर्हंतादिके प्रति भक्तिसम्पन्न जीव, कथंचित् ‘शुद्धसम्प्रयोगवाला’
होने पर भी, रागलव जीवित [विद्यमान] होनेसे ‘शुभोपयोगीपने’ को नहीं छोड़ता हुआ, बहुत
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१। कथंचित् = किसी प्रकार; किसी अपेक्षासे [अर्थात् निश्चयनयकी अपेक्षासे]। [ज्ञानीको वर्तते हुए
शुद्धसम्प्रयोगकोे कदाचित् व्यवहारसे भले मोक्षका परम्पराहेतु कहा जाय, किन्तु निश्चयसे तो वह बंधहेतु ही है
क्योंकि अशुद्धिरूप अंश है।]
२। निरस्त करना = खंडित करना; निकाल देना; निषिद्ध करना।
३। सिद्धिके निमित्तभूत ऐसे जो अर्हंन्तादि उनके प्रति भक्तिभावको पहले शुद्धसम्प्रयोग कहा गया है। उसमें ‘शुद्ध’
शब्द होने पर भी ‘शुभ’ उपयोगरूप रागभाव है। [‘शुभ’ ऐसे अर्थमें जिस प्रकार ‘विशुद्ध’ शब्द कदाचित्
प्रयोग होता है उसी प्रकार यहाँ ‘शुद्ध’ शब्दका प्रयोग हुआ है।]
४। रागलव = किंचित् राग; अल्प राग।

जिन–सिद्ध–प्रवचन–चैत्य–मुनिगण–ज्ञाननी भक्ति करे,
ते पुण्यबंध लहे घणो, पण कर्मनो क्षय नव करे। १६६।