Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 167.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
पुण्यं बध्नाति, न खलु सकलकर्मक्षयमारभते। ततः सर्वत्र रागकणिकाऽपि परिहरणीया
परसमयप्रवृत्तिनिबन्धनत्वादिति।। १६६।।
जस्स हिदएणुमेत्तं वा परदव्वम्हि विज्जदे रागो।
स न विजानाति समयं स्वकस्य सर्वागमधरोऽपि।। १६७।।
सो ण विजाणदि समयं सगस्स सव्वागमधरो वि।। १६७।।
यस्य हृदयेऽणुमात्रो वा परद्रव्ये विद्यते रागः।
स्वसमयोपलम्भाभावस्य रागैकहेतुत्वद्योतनमेतत्। यस्य खलु रागरेणुकणिकाऽपि जीवति हृदये
न नाम स समस्तसिद्धान्तसिन्धुपारगोऽपि निरुपरागशुद्धस्वरूपं स्वसमयं चेतयते।
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पुण्य बांधता है, परन्तु वास्तवमें सकल कर्मका क्षय नहीं करता। इसलिये सर्वत्र रागकी कणिका भी
परिहरनेयोग्य है, क्योंकि वह परसमयप्रवृत्तिका कारण है।। १६६।।
गाथा १६७
अन्वयार्थः– [यस्य] जिसे [परद्रव्ये] परद्रव्यके प्रति [अणुमात्रः वा] अणुमात्र भी [लेशमात्र
भी [रागः] राग [हृदये विद्यते] हृदयमें वर्तता है [सः] वह, [सर्वागमधरः अपि] भले सर्वआगमधर
हो तथापि, [स्वकस्य समयं न विजानाति] स्वकीय समयको नहीं जानता [–अनुभव नहीं
करता]।
टीकाः– यहाँ, स्वसमयकी उपलब्धिके अभावका, राग एक हेतु है ऐसा प्रकाशित किया है
[अर्थात् स्वसमयकी प्राप्तिके अभावका राग ही एक कारण है ऐसा यहाँ दर्शाया है]। जिसे रागरेणुकी
कणिका भी हृदयमें जीवित है वह, भले समस्त सिद्धांतसागरका पारंगत हो तथापि, निरुपराग–
शुद्धस्वरूप स्वसमयको वास्तवमें नहीं चेतता [–अनुभव नहीं करता]।
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१। निरुपराग–शुद्धस्वरूप = उपरागरहित [–निर्विकार] शुद्ध जिसका स्वरूप है ऐसा।
अणुमात्र जेने हृदयमां परद्रव्य प्रत्ये राग छे,
हो सर्वआगमधर भले जाणे नहीं स्वक–समयने। १६७।