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बुद्धिप्रसरे च सति शुभस्याशुभस्य वा कर्मणो न निरोधोऽस्ति। ततो रागकलिविलासमूल एवायमनर्थसन्तान इति।। १६८।।
सिद्धेसु कुणदि भत्तिं णिव्वाणं तेण पप्पोदि।। १६९।।
सिद्धेषु करोति भक्तिं निर्वाणं तेन प्राप्नोति।। १६९।।
रागकलिनिःशेषीकरणस्य करणीयत्वाख्यानमेतत्। ----------------------------------------------------------------------------- और बुद्धिप्रसार होने पर [–चित्तका भ्रमण होने पर], शुभ तथा अशुभ कर्मका निरोध नहीं होता। इसलिए, इस अनर्थसंततिका मूल रागरूप क्लेशका विलास ही है।
भावार्थः– अर्हंतादिकी भक्ति भी राग बिना नहीं होती। रागसे चित्तका भ्रमण होता है; चित्तके भ्रमणसे कर्मबंध होता है। इसलिए इन अनर्थोंकी परम्पराका मूल कारण राग ही है।। १६८।। २
अन्वयार्थः– [तस्मात्] इसलिए [निवृत्तिकामः] मोक्षार्थी जीव [निस्सङ्गः] निःसंग [च] और [निर्ममः] निर्मम [भूत्वा पुनः] होकर [सिद्धेषु भक्ति] सिद्धोंकी भक्ति [–शुद्धात्मद्रव्यमें स्थिरतारूप पारमार्थिक सिद्धभक्ति] [करोति] करता है, [तेन] इसलिए वह [निर्वाणं प्राप्नोति] निर्वाणको प्राप्त करता है।
टीकाः– यह, रागरूप क्लेशका निःशेष नाश करनेयोग्य होनेका निरूपण है। ३ ------------------------------------------------------------------------- १। बुद्धिप्रसार = विकल्पोंका विस्तार; चित्तका भ्रमण; मनका भटकना; मनकी चंचलता। २। इस गाथाकी श्री जयसेनाचार्यदेवविरचित टीकामें निम्नानुसार विवरण दिया गया हैः–मात्र नित्यानंद जिसका
समस्तविभावरूप बुद्धिप्रसार रोका नहीं जा सकता और यह नहीं रुकनेसे [अर्थात् बुद्धिप्रसारका निरोध नहीं
होनेसे] शुभाशुभ कर्मका संवर नहीं होता; इसलिए ऐसा सिद्ध हुआ कि समस्त अनर्थपरम्पराओंका
रागादिविकल्प ही मूल है।
३। निःशेष = सम्पूर्ण; किंचित् शेष न रहे ऐसा।
ते कारणे मोक्षेच्छु जीव असंग ने निर्मम बनी
सिद्धो तणी भक्ति करे, उपलब्धि जेथी मोक्षनी। १६९।