Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 169.

< Previous Page   Next Page >


Page 246 of 264
PDF/HTML Page 275 of 293

 

] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द

२४६

बुद्धिप्रसरे च सति शुभस्याशुभस्य वा कर्मणो न निरोधोऽस्ति। ततो रागकलिविलासमूल एवायमनर्थसन्तान इति।। १६८।।

तम्हा णिव्वुदिकामो णिस्संगो णिम्ममो य हविय पुणो।
सिद्धेसु कुणदि भत्तिं णिव्वाणं तेण पप्पोदि।। १६९।।
तस्मान्निवृत्तिकामो निस्सङ्गो निर्ममश्च भूत्वा पुनः।
सिद्धेषु करोति भक्तिं निर्वाणं तेन प्राप्नोति।। १६९।।

रागकलिनिःशेषीकरणस्य करणीयत्वाख्यानमेतत्। ----------------------------------------------------------------------------- और बुद्धिप्रसार होने पर [–चित्तका भ्रमण होने पर], शुभ तथा अशुभ कर्मका निरोध नहीं होता। इसलिए, इस अनर्थसंततिका मूल रागरूप क्लेशका विलास ही है।

भावार्थः– अर्हंतादिकी भक्ति भी राग बिना नहीं होती। रागसे चित्तका भ्रमण होता है; चित्तके भ्रमणसे कर्मबंध होता है। इसलिए इन अनर्थोंकी परम्पराका मूल कारण राग ही है।। १६८।।

गाथा १६९

अन्वयार्थः– [तस्मात्] इसलिए [निवृत्तिकामः] मोक्षार्थी जीव [निस्सङ्गः] निःसंग [च] और [निर्ममः] निर्मम [भूत्वा पुनः] होकर [सिद्धेषु भक्ति] सिद्धोंकी भक्ति [–शुद्धात्मद्रव्यमें स्थिरतारूप पारमार्थिक सिद्धभक्ति] [करोति] करता है, [तेन] इसलिए वह [निर्वाणं प्राप्नोति] निर्वाणको प्राप्त करता है।

टीकाः– यह, रागरूप क्लेशका निःशेष नाश करनेयोग्य होनेका निरूपण है। ------------------------------------------------------------------------- १। बुद्धिप्रसार = विकल्पोंका विस्तार; चित्तका भ्रमण; मनका भटकना; मनकी चंचलता। २। इस गाथाकी श्री जयसेनाचार्यदेवविरचित टीकामें निम्नानुसार विवरण दिया गया हैः–मात्र नित्यानंद जिसका

स्वभाव है ऐसे निज आत्माको जो जीव नहीं भाता, उस जीवको माया–मिथ्या–निदानशल्यत्रयादिक
समस्तविभावरूप बुद्धिप्रसार रोका नहीं जा सकता और यह नहीं रुकनेसे [अर्थात् बुद्धिप्रसारका निरोध नहीं
होनेसे] शुभाशुभ कर्मका संवर नहीं होता; इसलिए ऐसा सिद्ध हुआ कि समस्त अनर्थपरम्पराओंका
रागादिविकल्प ही मूल है।

३। निःशेष = सम्पूर्ण; किंचित् शेष न रहे ऐसा।


ते कारणे मोक्षेच्छु जीव असंग ने निर्मम बनी
सिद्धो तणी भक्ति करे, उपलब्धि जेथी मोक्षनी। १६९।