कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
यतो रागाद्यनुवृत्तौ चित्तोद्भ्रान्तिः, चित्तोद्भ्रान्तौ कर्मबन्ध इत्युक्तम्, ततः खलु मोक्षार्थिना कर्मबन्धमूलचित्तोद्भ्रान्तिमूलभूता रागाद्यनुवृत्तिरेकान्तेन निःशेषीकरणीया। निः–शेषितायां तस्यां प्रसिद्धनैःसङ्गयनैर्मम्यः शुद्धात्मद्रव्यविश्रान्तिरूपां पारमार्थिकीं सिद्धभक्तिमनुबिभ्राणः प्रसिद्धस्वसमयप्रवृत्तिर्भवति। तेन कारणेन स एव निः–शेषितकर्मबन्धः सिद्धिमवाप्नोतीति।। १६९।।
----------------------------------------------------------------------------- रागादिपरिणति होने पर चित्तका भ्रमण होता है और चित्तका भ्रमण होने पर कर्मबन्ध होता है ऐसा [पहले] कहा गया, इसलिए मोक्षार्थीको कर्मबन्धका मूल ऐसा जो चित्तका भ्रमण उसके मूलभूत रागादिपरिणतिका एकान्त निःशेष नाश करनेयोग्य है। उसका निःशेष नाश किया जानेसे, जिसे १२ निःसंगता और निर्ममता प्रसिद्ध हुई है ऐसा वह जीव शुद्धात्मद्रव्यमें विश्रांतिरूप पारमार्थिक
सिद्धभक्ति धारण करता हुआ स्वसमयप्रवृत्तिकी प्रसिद्धिवाला होता है। उस कारणसे वही जीव कर्मबन्धका निःशेष नाश करके सिद्धिको प्राप्त करता है।। १६९।। ------------------------------------------------------------------------- १ निःसंग = आत्मतत्त्वसे विपरीत ऐसा जो बाह्य–अभ्यंतर परिग्रहण उससे रहित परिणति सो निःसंगता है। २। रागादि–उपाधिरहित चैतन्यप्रकाश जिसका लक्षण है ऐसे आत्मतत्त्वसे विपरीत मोहोदय जिसकी उत्पत्तिमें
३। स्वसमयप्रवृत्तिकी प्रसिद्धिवाला = जिसे स्वसमयमें प्रवृत्ति प्रसिद्ध हुई है ऐसा। [जो जीव रागादिपरिणतिका
है इसलिए स्वसमयप्रवृत्तिके कारण वही जीव कर्मबन्धका क्षय करके मोक्षको प्राप्त करता है, अन्य नहीं।]