Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 170.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स।
दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपउत्तस्स।। १७०।।
सपदार्थं तीर्थकरमभिगतबुद्धेः सूत्ररोचिनः।
दूरतरं निर्वाणं संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य।। १७०।।
अर्हदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तेः साक्षान्मोक्षहेतुत्वाभावेऽपि परम्परया मोक्षहेतुत्वसद्भाव–
द्योतनमेतत्।
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गाथा १७०
अन्वयार्थः– [संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य] संयमतपसंयुक्त होने पर भी, [सपदार्थ तीर्थकरम्] नव
पदार्थों तथा तीर्थंकरके प्रति [अभिगतबुद्धेः] जिसकी बुद्धिका झुकाव वर्तता है और [सूत्ररोचिनः]
सूत्रोंके प्रति जिसे रुचि [प्रीति] वर्तती है, उस जीवको [निर्वाणं] निर्वाण [दूरतरम्] दूरतर
[विशेष दूर] है।
टीकाः– यहाँ, अर्हंतादिकी भक्तिरूप परसमयप्रवृत्तिमें साक्षात् मोक्षहेतुपनेका अभाव होने पर भी
परम्परासे मोक्षहेतुपनेका सद्भाव दर्शाया है।
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१। वास्तवमें तो ऐसा है कि –ज्ञानीको शुद्धाशुद्धरूप मिश्र पर्यायमें जो भक्ति–आदिरूप शुभ अंश वर्तता है वह
तो मात्र देवलोकादिके क्लेशकी परम्पराका ही हेतु है और साथ ही साथ ज्ञानीको जो [मंदशुद्धिरूप] शुद्ध
अंश परिणमित होता है वह संवरनिर्जराका तथा [उतने अंशमें] मोक्षका हेतु है। वास्तवमें ऐसा होने पर भी,
शुद्ध अंशमें स्थित संवर–निर्जरा–मोक्षहेतुत्वका आरोप उसके साथके भक्ति–आदिरूप शुभ अंशमें करके उन
शुभ भावोंको देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिकी परम्परा सहित मोक्षप्राप्तिके हेतुभूत कहा गया है। यह कथन
आरोपसे [उपचारसे] किया गया है ऐसा समझना। [ऐसा कथंचित् मोक्षहेतुत्वका आरोप भी ज्ञानीको ही
वर्तनेवाले भक्ति–आदिरूप शुभ भावोंमें किया जा सकता है। अज्ञानीके तो शुद्धिका अंशमात्र भी परिणमनमें नहीं
होनेसे यथार्थ मोक्षहेतु बिलकुल प्रगट ही नहीं हुआ है–विद्यमान ही नहींं है तो फिर वहाँ उसके भक्ति–
आदिरूप शुभ भावोंमें आरोप किसका किया जाय?]
संयम तथा तपयुक्तने पण दूरतर निर्वाण छे,
सूत्रो, पदार्थो, जिनवरो प्रति चित्तमां रुचि जो रहे। १७०।