दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपउत्तस्स।। १७०।।
दूरतरं निर्वाणं संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य।। १७०।।
सूत्रोंके प्रति जिसे रुचि [प्रीति] वर्तती है, उस जीवको [निर्वाणं] निर्वाण [दूरतरम्] दूरतर
[विशेष दूर] है।
तो मात्र देवलोकादिके क्लेशकी परम्पराका ही हेतु है और साथ ही साथ ज्ञानीको जो [मंदशुद्धिरूप] शुद्ध
अंश परिणमित होता है वह संवरनिर्जराका तथा [उतने अंशमें] मोक्षका हेतु है। वास्तवमें ऐसा होने पर भी,
शुद्ध अंशमें स्थित संवर–निर्जरा–मोक्षहेतुत्वका आरोप उसके साथके भक्ति–आदिरूप शुभ अंशमें करके उन
शुभ भावोंको देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिकी परम्परा सहित मोक्षप्राप्तिके हेतुभूत कहा गया है। यह कथन
आरोपसे [उपचारसे] किया गया है ऐसा समझना। [ऐसा कथंचित् मोक्षहेतुत्वका आरोप भी ज्ञानीको ही
वर्तनेवाले भक्ति–आदिरूप शुभ भावोंमें किया जा सकता है। अज्ञानीके तो शुद्धिका अंशमात्र भी परिणमनमें नहीं
होनेसे यथार्थ मोक्षहेतु बिलकुल प्रगट ही नहीं हुआ है–विद्यमान ही नहींं है तो फिर वहाँ उसके भक्ति–
आदिरूप शुभ भावोंमें आरोप किसका किया जाय?]
सूत्रो, पदार्थो, जिनवरो प्रति चित्तमां रुचि जो रहे। १७०।