समयप्रवृत्तिं परित्यक्तुं नोत्सहते, स खलु न नाम साक्षान् मोक्षं लभते किन्तु सुरलोकादि–
कॢेशप्राप्तिरूपया परम्परया तमवाप्नोति।। १७०।।
जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगं समादियदि।। १७१।।
होनेसे, ‘धुनकी को चिपकी हुई रूई’के न्यायसे, नव पदार्थों तथा अर्हंतादिकी रुचिरूप [प्रीतिरूप]
परसमयप्रवृत्तिका परित्याग नहीं कर सकता, वह जीव वास्तवमें साक्षात् मोक्षको प्राप्त नहीं करता
किन्तु देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिरूप परम्परा द्वारा उसे प्राप्त करता है।। १७०।।
प्रतिपादन करनेवाले आगमोंके प्रति रुचि [प्रीति] करता है, कदाचित् [जिस प्रकार कोई रामचन्द्रादि पुरुष
देशान्तरस्थित सीतादि स्त्री के पाससे आए हुए मनुष्योंको प्रेमसे सुनता है, उनका सन्मानादि करता है और
उन्हें दान देता है उसी प्रकार] निर्दोष–परमात्मा तीर्थंकरपरमदेवोंके और गणधरदेव–भरत–सगर–राम–
पांडवादि महापुरुषोंके चरित्रपुराण शुभ धर्मानुरागसे सुनता है तथा कदाचित् गृहस्थ–अवस्थामें
भेदाभेदरत्नत्रयपरिणत आचार्य–उपाध्याय–साधुनके पूजनादि करता है और उन्हें दान देता है –इत्यादि शुभ
भाव करता है। इस प्रकार जो ज्ञानी जीव शुभ रागको सर्वथा नहीं छोड़ सकता, वह साक्षात् मोक्षको प्राप्त
नहीं करता परन्तु देवलोकादिके क्लेशकी परम्पराको पाकर फिर चरम देहसे निर्विकल्पसमाधिविधान द्वारा
विशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाववाले निजशुद्धात्मामें स्थिर होकर उसे [मोक्षको] प्राप्त करता है।]