कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
स तेन वीतरागो भव्यो भवसागरं तरति।। १७२।।
साक्षान्मोक्षमार्गसारसूचनद्वारेण शास्त्रतात्पर्योपसंहारोऽयम्।
साक्षान्मोक्षमार्गपुरस्सरो हि वीतरागत्वम्। ततः खल्वर्हदादिगतमपि रागं चन्दननग– सङ्गतमग्निमिव सुरलोकादिक्लेशप्राप्त्याऽत्यन्तमन्तर्दाहाय कल्पमानमाकलय्य साक्षान्मोक्षकामो महाजनः समस्तविषयमपि रागमुत्सृज्यात्यन्तवीतरागो भूत्वा समुच्छलज्ज्वलद्दुःखसौख्यकल्लोलं कर्माग्नितप्तकलकलोदभारप्राग्भारभयङ्करं भवसागरमुत्तीर्य, शुद्धस्वरूपपरमामृतसमुद्रमध्यास्य सद्यो निर्वाति।।
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अन्वयार्थः– [तस्मात्] इसलिए [निर्वृत्तिकामः] मोक्षाभिलाषी जीव [सर्वत्र] सर्वत्र [किञ्चित् रागं] किंचित् भी राग [मा करोतु] न करो; [तेन] ऐसा करनेसे [सः भव्यः] वह भव्य जीव [वीतरागः] वीतराग होकर [भवसागरं तरति] भवसागरको तरता है।
टीकाः– यह, साक्षात्मोक्षमार्गके सार–सूचन द्वारा शास्त्रतात्पर्यरूप उपसंहार है [अर्थात् यहाँ साक्षात्मोक्षमार्गका सार क्या है उसके कथन द्वारा शास्त्रका तात्पर्य कहनेरूप उपसंहार किया है]।
साक्षात्मोक्षमार्गमें अग्रसर सचमुच वीतरागता है। इसलिए वास्तवमें १अर्हंतादिगत रागको भी, चंदनवृक्षसंगत अग्निकी भाँति, देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्ति द्वारा अत्यन्त अन्तर्दाहका कारण समझकर, साक्षात् मोक्षका अभिलाषी महाजन सभी की ओरसे रागको छोड़कर, अत्यन्त वीतराग होकर, जिसमें उबलती हुई दुःखसुखकी कल्लोलें ऊछलती है और जो कर्माग्नि द्वारा तप्त, खलबलाते जलसमूहकी अतिशयतासे भयंकर है ऐसे भवसागरको पार उतरकर, शुद्धस्वरूप परमामृतसमुद्रको अवगाहकर, शीघ्र निर्वाणको प्राप्त करता है।
–विस्तारसे बस हो। जयवन्त वर्ते वीतरागता जो कि साक्षात्मोक्षमार्गका सार होनेसे शास्त्रतात्पर्यभूत है। ------------------------------------------------------------------------- १। अर्हंंतादिगत राग = अर्हंंतादिकी ओरका राग; अर्हंतादिविषयक राग; अर्हंतादिका राग। [जिस प्रकार
अत्यन्त अन्तरंग जलनका कारण होता है।]