कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
मनागप्यसंभावयन्तः प्रभूतपुण्यभारमन्थरितचित्तवृत्तयः, सुरलोकादिकॢेशप्राप्तिपरम्परया सुचिरं संसारसागरे भ्रमन्तीति। उक्तञ्च–‘‘चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावारा। चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति’’।।
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बहुत पुण्यके भारसे मंथर हुई चित्तवृत्तिवाले वर्तते हुए, देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिकी परम्परा द्वारा दीर्घ कालतक संसारसागरमें भ्रमण करते हैं। कहा भी है कि – चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कावावारा। चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति।। [अर्थात् जो चरणपरिणामप्रधान है और स्वसमयरूप परमार्थमें व्यापाररहित हैं, वे चरणपरिणामका सार जो निश्चयशुद्ध [आत्मा] उसे नहीं जानते।]
[अब केवलनिश्चयावलम्बी [अज्ञानी] जीवोंका प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता हैः–]
अब, जो केवलनिश्चयावलम्बी हैं, सकल क्रियाकर्मकाण्डके आडम्बरमें विरक्त बुद्धिवाले वर्तते ------------------------------------------------------------------------- १। मंथर = मंद; जड़; सुस्त। २। इस गाथाकी संस्कृत छाया इस प्रकार हैः चरणकरणप्रधानाः स्वसमयपरमार्थमुक्तव्यापाराः। चरणकरणस्य सारं
३। श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति–टीकामें व्यवहार–एकान्तका निम्नानुसार स्पष्टीकरण किया गया हैः–
परम्परा प्राप्त करते हुए संसारमें परिभ्रमण करते हैंः किन्तु यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षण निश्चयमोक्षमार्गको माने
और निश्चयमोक्षमार्गका अनुष्ठान करनेकी शक्तिके अभावके कारण निश्चयसाधक शुभानुष्ठान करें, तो वे सराग
सम्यग्द्रष्टि हैं और परम्परासे मोक्ष प्राप्त करते हैं। –इस प्रकार व्यवहार–एकान्तके निराकरणकी मुख्यतासे दो
वाक्य कहे गये।
और उन्हें जो शुभ अनुष्ठान है वह मात्र उपचारसे ही ‘निश्चयसाधक [निश्चयके साधनभूत]’ कहा गया
है ऐसा समझना।