अभिन्नसाध्यसाधनभावमलभमाना अन्तराल एव प्रमादकादम्बरीमदभरालसचेतसो मत्ता इव, मूर्च्छिता
इव, सुषुप्ता इव, प्रभूतघृतसितोपलपायसासादितसौहित्या इव, ससुल्बणबल–सञ्जनितजाडया इव,
दारुणमनोभ्रंशविहित मोहा इव, मुद्रितविशिष्टचैतन्या वनस्पतय इव,
स्वमतिकल्पनासे कुछ भी भासकी कल्पना करके इच्कानुसार– जैसे सुख उत्पन्न हो वैसे–रहते हैं],
वे वास्तवमें भिन्नसाध्यसाधनभावको तिरस्कारते हुए, अभिन्नसाध्यसाधनभावको उपलब्ध नहीं करते
हुए, अंतरालमें ही [–शुभ तथा शुद्धके अतिरिक्त शेष तीसरी अशुभ दशामें ही], प्रमादमदिराके
मदसे भरे हुए आलसी चित्तवाले वर्तते हुए, मत्त [उन्मत्त] जैसे, मूर्छित जैसे, सुषुप्त जैसे, बहुत
घी–शक्कर खीर खाकर तृप्तिको प्राप्त हुए [तृप्त हुए] हों ऐसे, मोटे शरीरके कारण जड़ता [–
मंदता, निष्क्रियता] उत्पन्न हुई हो ऐसे, दारुण बुद्धिभ्रंशसे मूढ़ता हो गई हो ऐसे, जिसका
विशिष्टचैतन्य मुँद
ऐसा होने पर भी जो निज कल्पनासे अपनेमें किंचित भास होनेकी कल्पना करके निश्चिंतरूपसे स्वच्छंदपूर्वक
वर्तते हैं। ‘ज्ञानी मोक्षमार्गी जीवोंको प्राथमिक दशामें आंशिक शुद्धिके साथ–साथ भूमिकानुसार शुभ भाव भी
होते हैं’–इस बातकी श्रद्धा नहीं करते, उन्हें यहाँ केवल निश्चयावलम्बी कहा है।]
२। मोक्षमार्गी ज्ञानी जीवोंको सविकल्प प्राथमिक दशामें [छठवें गुणस्थान तक] व्यवहारनयकी अपेक्षासे
श्रावक–मुनिके आचार सम्बन्धी शुभ भाव होते हैं।–यह वात केवलनिश्चयावलम्बी जीव नहीं मानता अर्थात्
[आंशिक शुद्धिके साथकी] शुभभाववाली प्राथमिक दशाको वे नहीं श्रद्धते और स्वयं अशुभ भावोंमें वर्तते होने
पर भी अपनेमें उच्च शुद्ध दशाकी कल्पना करके स्वच्छंदी रहते हैं।