Panchastikay Sangrah (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
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मौनीन्द्रीं कर्मचेतनां पुण्यबन्धभयेनानवलम्बमाना अनासादितपरमनैष्कर्म्यरूपज्ञानचेतनाविश्रान्तयो
व्यक्ताव्यक्तप्रमादतन्त्रा अरमागतकर्म–फलचेतनाप्रधानप्रवृत्तयो वनस्पतय इव केवलं पापमेव बध्नन्ति।
उक्तञ्च–‘‘णिच्छयमालम्बंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता। णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा
केई’’।।
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गया है ऐसी वनस्पति जैसे, मुनींद्रकी कर्मचेतनाको पुण्यबंधके भयसे नहीं अवलम्बते हुए और परम
नैष्कर्म्यरूप ज्ञानचेतनामें विश्रांतिको प्राप्त नहीं होते हुए, [मात्र] व्यक्त–अव्यक्त प्रमादके आधीन वर्तते
हुए, प्राप्त हुए हलके [निकृःष्ट] कर्मफलकी चेतनाके प्रधानपनेवाली प्रवृत्ति जिसे वर्तती है ऐसी
वनस्पतिकी भाँति, केवल पापको ही बाँधते है। कहा भी है किः–– णिच्छयमालम्बंता णिच्छयदो
णिच्छयं अयाणंता। णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा केई।। [अर्थात् निश्चयका अवलम्बन लेने वाले
परन्तु निश्चयसे [वास्तवमें] निश्चयको नहीं जानने वाले कई जीव बाह्य चरणमें आलसी वर्तते हुए
चरणपरिणामका नाश करते हैं।]
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१। केवलनिश्चयावलम्बी जीव पुण्यबन्धके भयसे डरकर मंदकषायरूप शुभभाव नहीं करते और पापबन्धके
कारणभूत अशुभभावोंका सेवन तो करते रहते हैं। इस प्रकार वे पापबन्ध ही करते हैं।

२। इस गाथाकी संस्कृत छाया इस प्रकार हैेः निश्चयमालम्बन्तो निश्चयतो निश्चयमजानन्तः। नाशयन्ति चरणकरणं
बाह्यचरणालसाः केऽपि।।
३। श्री जयसेनाचार्यदेवरचित टीकामें [व्यवहार–एकान्तका स्पष्टीकरण करनेके पश्चात् तुरन्त ही] निश्चयएकान्तका
निम्नानुसार स्पष्टीकरण किया गया हैः–
और जो केवलनिश्चयावलम्बी वर्तते हुए रागादिविकल्परहित परमसमाधिरूप शुद्ध आत्माको उपलब्ध नहीं
करते होने पर भी, मुनिको [व्यवहारसे] आचरनेयोग्य षड्–आवश्यकादिरूप अनुष्ठानको तथा श्रावकको
[व्यवहारसे] आचरनेयोग्य दानपूजादिरूप अनुष्ठानको दूषण देते हैं, वे भी उभयभ्रष्ट वर्तते हुए, निश्चयव्यवहार–
अनुष्ठानयोग्य अवस्थांतरको नहीं जानते हुए पापको ही बाँधते हैं [अर्थात् केवल निश्चय–अनुष्ठानरूप शुद्ध
अवस्थासे भिन्न ऐसी जो निश्चय–अनुष्ठान और व्यवहारअनुष्ठानवाली मिश्र अवस्था उसे नहीं जानते हुए पापको
ही बाँधते हैं], परन्तु यदि शुद्धात्मानुष्ठानरूप मोक्षमार्गको और उसके साधकभूत [व्यवहारसाधनरूप]
व्यवहारमोक्षमार्गको माने, तो भले चारित्रमोहके उदयके कारण शक्तिका अभाव होनेसे शुभ–अनुष्ठान रहित हों
तथापि – यद्यपि वे शुद्धात्मभावनासापेक्ष शुभ–अनुष्ठानरत पुरुषों जैसे नहीं हैं तथापि–सराग सम्यक्त्वादि द्वारा
व्यवहारसम्यग्द्रष्टि है और परम्परासे मोक्ष प्राप्त करते हैं।––इस प्रकार निश्चय–एकान्तके निराकरणकी
मुख्यतासे दो वाक्य कहे गये।