व्यक्ताव्यक्तप्रमादतन्त्रा अरमागतकर्म–फलचेतनाप्रधानप्रवृत्तयो वनस्पतय इव केवलं पापमेव बध्नन्ति।
उक्तञ्च–‘‘णिच्छयमालम्बंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता। णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा
केई’’।।
नैष्कर्म्यरूप ज्ञानचेतनामें विश्रांतिको प्राप्त नहीं होते हुए, [मात्र] व्यक्त–अव्यक्त प्रमादके आधीन वर्तते
हुए, प्राप्त हुए हलके [निकृःष्ट] कर्मफलकी चेतनाके प्रधानपनेवाली प्रवृत्ति जिसे वर्तती है ऐसी
वनस्पतिकी भाँति, केवल पापको ही बाँधते है। कहा भी है किः–– णिच्छयमालम्बंता णिच्छयदो
णिच्छयं अयाणंता। णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा केई।। [अर्थात् निश्चयका अवलम्बन लेने वाले
परन्तु निश्चयसे [वास्तवमें] निश्चयको नहीं जानने वाले कई जीव बाह्य चरणमें आलसी वर्तते हुए
चरणपरिणामका नाश करते हैं।]
२। इस गाथाकी संस्कृत छाया इस प्रकार हैेः निश्चयमालम्बन्तो निश्चयतो निश्चयमजानन्तः। नाशयन्ति चरणकरणं
[व्यवहारसे] आचरनेयोग्य दानपूजादिरूप अनुष्ठानको दूषण देते हैं, वे भी उभयभ्रष्ट वर्तते हुए, निश्चयव्यवहार–
अनुष्ठानयोग्य अवस्थांतरको नहीं जानते हुए पापको ही बाँधते हैं [अर्थात् केवल निश्चय–अनुष्ठानरूप शुद्ध
अवस्थासे भिन्न ऐसी जो निश्चय–अनुष्ठान और व्यवहारअनुष्ठानवाली मिश्र अवस्था उसे नहीं जानते हुए पापको
ही बाँधते हैं], परन्तु यदि शुद्धात्मानुष्ठानरूप मोक्षमार्गको और उसके साधकभूत [व्यवहारसाधनरूप]
व्यवहारमोक्षमार्गको माने, तो भले चारित्रमोहके उदयके कारण शक्तिका अभाव होनेसे शुभ–अनुष्ठान रहित हों
तथापि – यद्यपि वे शुद्धात्मभावनासापेक्ष शुभ–अनुष्ठानरत पुरुषों जैसे नहीं हैं तथापि–सराग सम्यक्त्वादि द्वारा
व्यवहारसम्यग्द्रष्टि है और परम्परासे मोक्ष प्राप्त करते हैं।––इस प्रकार निश्चय–एकान्तके निराकरणकी
मुख्यतासे दो वाक्य कहे गये।