Panchastikay Sangrah (Hindi).

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
ये तु पुनरपुनर्भवाय नित्यविहितोद्योगमहाभागा भगवन्तो निश्चयव्यवहारयोरन्यत–
रानवलम्बनेनात्यन्तमध्यस्थीभूताः
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[यहाँ जिन जीवोंको ‘व्यवहारसम्यग्द्रष्टि कहा है वे उपचारसे सम्यग्द्रष्टि हैं ऐसा नहीं समझना। परन्तु वे वास्तवमें
सम्यग्द्रष्टि हैं ऐसा समझना। उन्हें चारित्र–अपेक्षासे मुख्यतः रागादि विद्यमान होनेसे सराग सम्यक्त्ववाले कहकर
‘व्यवहारसम्यग्द्रष्टि’ कहा है। श्री जयसेनाचार्यदेवने स्वयं ही १५०–१५१ वीं गाथाकी टीकामें कहा है कि – जब
यह जीव आगमभाषासे कालादिलब्धिरूप और अध्यात्मभाषासे शुद्धात्माभिमुख परिणामरूप स्वसंवेदनज्ञानको प्राप्त
करता है तब प्रथम तो वह मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियोंके उपशम और क्षयोपशम द्वारा सराग–सम्यग्द्रष्टि होता
है।]
१। निश्चय–व्यवहारके सुमेलकी स्पष्टताके लिये पृष्ठ २५८का पद टिप्पण देखें।
२। महाभाग = महा पवित्र; महा गुणवान; महा भाग्यशाली।
३। मोक्षके लिये नित्य उद्यम करनेवाले महापवित्र भगवंतोंको [–मोक्षमार्गी ज्ञानी जीवोंको] निरन्तर
शुद्धद्रव्यार्थिकनयके विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपका सम्यक् अवलम्बन वर्तता होनेसे उन जीवोंको उस अवलम्बनकी
तरतमतानुसार सविकल्प दशामें भूमिकानुसार शुद्धपरिणति तथा शुभपरिणतिका यथोचित सुमेल [हठ रहित]
होता है इसलिये वे जीव इस शास्त्रमें [२५८ वें पृष्ठ पर] जिन्हें केवलनिश्चयावलम्बी कहा हैे ऐसे
केवलनिश्चयावलम्बी नहीं हैं तथा [२५९ वें पृष्ठ पर] जिन्हें केवलव्यवहारावलम्बी कहा है ऐसे
केवलव्यवहारावलम्बी नहीं हैं।
[अब निश्चय–व्यवहार दोनोंका सुमेल रहे इस प्रकार भूमिकानुसार प्रवर्तन करनेवाले ज्ञानी
जीवोंका प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता हैः–
परन्तु जो, अपुनर्भवके [मोक्षके] लिये नित्य उद्योग करनेवाले महाभाग भगवन्तों, निश्चय–
व्यवहारमेंसे किसी एकका ही अवलम्बन नहीं लेनेसे [–केवलनिश्चयावलम्बी या केवलव्यवहारावलम्बी
नहीं होनेसे] अत्यन्त मध्यस्थ वर्तते हुए,