क्रियाकाण्डपरिणतिंमाहात्म्यान्निवारयन्तोऽत्यन्तमुदासीना यथाशक्तयाऽऽत्मानमात्म–नाऽऽत्मनि
संचेतयमाना नित्योपयुक्ता निवसन्ति, ते खलु स्वतत्त्वविश्रान्त्यनुसारेण क्रमेण कर्माणि
संन्यसन्तोऽत्यन्तनिष्प्रमादानितान्तनिष्कम्पमूर्तयो वनस्पतिभिरूपमीयमाना अपि
दूरनिरस्तकर्मफलानुभूतयःकर्मानुभूतिनिरुत्सुकाःकेवलज्ञानानुभूतिसमुपजाततात्त्विका–
नन्दनिर्भरतरास्तरसा संसारसमुद्रमुत्तीर्य शब्द–ब्रह्मफलस्य शाश्वतस्य भोक्तारो भवन्तीति।। १७२।।
वारते हुए [–शुभ क्रियाकाण्डपरिणति हठ रहित सहजरूपसे भूमिकानुसार वर्तती होने पर भी
अंतरंगमें उसे माहात्म्य नहीं देते हुए], अत्यन्त उदासीन वर्तते हुए, यथाशक्ति आत्माको आत्मासे
आत्मामें संचेतते [अनुभवते] हुए नित्य–उपयुक्त रहते हैं, वे [–वे महाभाग भगवन्तों], वास्तवमें
स्वतत्त्वमें विश्रांतिके अनुसार क्रमशः कर्मका संन्यास करते हुए [–स्वतत्त्वमें स्थिरता होती जाये
तदनुसार शुभ भावोंको छोड़ते हुए], अत्यन्त निष्प्रमाद वर्तते हुए, अत्यन्त निष्कंपमूर्ति होनेसे जिन्हें
वनस्पतिकी उपमा दी जाती है तथापि जिन्होंनेे कर्मफलानुभूति अत्यन्त निरस्त [नष्ट] की है ऐसे,
कर्मानुभूतिके प्रति निरुत्सुक वर्तते हुए, केवल [मात्र] ज्ञानानुभूतिसे उत्पन्न हुए तात्त्विक आनन्दसे
अत्यन्त भरपूर वर्तते हुए, शीघ्र संसारसमुद्रको पार उतरकर, शब्दब्रह्मके शाश्वत फलके [–
निर्वाणसुखके] भोक्ता होते हैं।। १७२।।
भणियं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं सुत्तं।। १७३।।