Panchastikay Sangrah (Hindi). Shlok: 8.

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
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प्रवचनस्य सारभूतं पञ्चास्तिकायसंग्रहा–भिधानं भगवत्सर्वज्ञोपज्ञत्वात् सूत्रमिदमभिहितं मयेति।
अथैवं शास्त्रकारः प्रारब्धस्यान्त–मुपगम्यात्यन्तं कृतकृत्यो भूत्वा परमनैष्कर्म्यरूपे शुद्धस्वरूपे विश्रान्त
इति श्रद्धीयते।। १७३।।
इति समयव्याख्यायां नवपदार्थपुरस्सरमोक्षमार्गप्रपञ्चवर्णनो द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समाप्तः।।
स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वै–
र्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः।
स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति
कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः।। ८।।
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इस प्रकार शास्त्रकार [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव] प्रारम्भ किये हुए कार्यके अन्तको पाकर,
अत्यन्त कृतकृत्य होकर, परमनैष्कर्म्यरूप शुद्धस्वरूपमें विश्रांत हुए [–परम निष्कर्मपनेरूप
शुद्धस्वरूपमें स्थिर हुए] ऐसे श्रद्धे जाते हैं [अर्थात् ऐसी हम श्रद्धा करते हैं]।। १७३।।
इस प्रकार [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री पंचास्तिकायसंग्रहशास्त्रकी श्रीमद्
अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित] समयव्याख्या नामकी टीकामें नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन नामका
द्वितीय श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ।

[अब, ‘यह टीका शब्दोने की है, अमृतचन्द्रसूरिने नहीं’ ऐसे अर्थका एक अन्तिम श्लोक कहकर
अमृतचन्द्राचार्यदेव टीकाकी पूर्णाहुति करते हैंः]
[श्लोकार्थः–] अपनी शक्तिसे जिन्होंने वस्तुका तत्त्व [–यथार्थ स्वरूप] भलीभाँति कहा है
ऐसे शब्दोंने यह समयकी व्याख्या [–अर्थसमयका व्याख्यान अथवा पंचास्तिकायसंग्रहशास्त्रकी टीका]
की है; स्वरूपगुप्त [–अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमें गुप्त] अमृतचंद्रसूरिका [उसमें] किंचित् भी कर्तव्य
नही हैं ।। [८]।।