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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
स एव पञ्चास्तिकायसमवायो यावांस्तावाँल्लोकस्ततः परममितोऽनन्तो ह्यलोकः, स तु नाभावमात्रं
किन्तु तत्समवायातिरिक्तपरिमाणमनन्तक्षेत्रं खमाकाशमिति।। ३।।
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आवासं।
अत्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अुणमहंता।। ४।।
जीवाः पुद्गलकाया धर्मो धर्मौ तथैव आकाशम्।
अस्तित्वे च नियता अनन्यमया अणुमहान्तः।। ४।।
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अब, उसी अर्थसमयका, १लोक और अलोकके भेदके कारण द्विविधपना है। वही पंचास्तिकायसमूह
जितना है, उतना लोक है। उससे आगे अमाप अर्थात अनन्त अलोक है। वह अलोक अभावमात्र
नहीं है किन्तु पंचास्तिकायसमूह जितना क्षेत्र छोड़ कर शेष अनन्त क्षेत्रवाला आकाश है [अर्थात
अलोक शून्यरूप नहीं है किन्ंतु शुद्ध आकाशद्रव्यरूप है।। ३।।
गाथा ४
अन्वयार्थः– [जीवाः] जीव, [पुद्गलकायाः] पुद्गलकाय, [धर्माधर्मौ] धर्म, अधर्म [तथा एव]
तथा [आकाशम्] आकाश [अस्तित्वे नियताः] अस्तित्वमें नियत, [अनन्यमयाः] [अस्तित्वसे]
अनन्यमय [च] और [अणुमहान्तः] अणुमहान [प्रदेशसे बडे़] हैं।
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१। ‘लोक्यन्ते द्रश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोकः’ अर्थात् जहाँ जीवादिपदार्थ दिखाई देते हैं, वह लोक है।
अणुमहान=[१] प्रदेशमें बडे़ अर्थात् अनेकप्रदेशी; [२] एकप्रदेशी [व्यक्ति–अपेक्षासे] तथा अनेकप्रदेशी
[शक्ति–अपेक्षासे]।
जीवद्रव्य, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म ने आकाश ए
अस्तित्वनियत, अनन्यमय ने अणुमहान पदार्थ छे। ४।