कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
अत्र पञ्चास्तिकायानां विशेषसंज्ञा सामान्यविशेषास्तित्वं कायत्वं चोक्तम्। तत्र जीवाः पुद्गलाः धर्माधर्मौ आकाशमिति तेषां विशेषसंज्ञा अन्वर्थाः प्रत्येयाः। सामान्यविशेषास्तित्वञ्च तेषामुत्पादव्ययध्रौव्यमय्यां सामान्यविशेषसत्तायां नियतत्वाद्वय वस्थितत्वादवसेयम्। अस्तित्वे नियतानामपि न तेषामन्यमयत्वम्, यतस्ते सर्वदैवानन्य–मया आत्मनिर्वृत्ताः। अनन्यमयत्वेऽपि तेषामस्तित्वनियतत्वं नयप्रयोगात्। द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ– द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च। तत्र न खल्वेकनयायत्तादेशना किन्तु तदुभयायता। ततः पर्यायार्थादेशादस्तित्वे स्वतः कथंचिद्भिन्नऽपि व्यवस्थिताः द्रव्यार्थादेशात्स्वयमेव सन्तः सतोऽनन्यमया भवन्तीति। कायत्वमपि तेषामणुमहत्त्वात्। अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्तोऽमूर्ताश्च निर्विभागांशास्तैः महान्तोऽणुमहान्तः प्रदेशप्रचयात्मका इति सिद्धं तेषां कायत्वम्। अणुभ्यां। महान्त इतिः व्यत्पत्त्या ---------------------------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें] पाँच अस्तिकायोंकी विशेषसंज्ञा, सामान्य विशेष–अस्तित्व तथा कायत्व कहा है।
वहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश–यह उनकी विशेषसंज्ञाएँ अन्वर्थ जानना।
उनके सामान्यविशेष–अस्तित्व भी है ऐसा निश्चित करना चाहिये। वे अस्तित्वमें नियत होने पर भी [जिसप्रकार बर्तनमें रहनेवाला घी बर्तनसे अन्यमय है उसीप्रकार] अस्तित्वसे अन्यमय नहीं है; क्योंकि वे सदैव अपनेसे निष्पन्न [अर्थात् अपनेसे सत्] होनेके कारण [अस्तित्वसे] अनन्यमय है [जिसप्रकार अग्नि उष्णतासे अनन्यमय है उसीप्रकार]। ‘अस्तित्वसे अनन्यमय’ होने पर भी उनका ‘अस्तित्वमें नियतपना’ नयप्रयोगसे है। भगवानने दो नय कहे है – द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वहाँ कथन एक नयके आधीन नहीं होता किन्तु उन दोनों नयोंके आधीन होता है। इसलिये वे पर्यायार्थिक कथनसे जो अपनेसे कथंचित् भिन्न भी है ऐसे अस्तित्वमें व्यवस्थित [निश्चित स्थित] हैं और द्रव्यार्थिक कथनसे स्वयमेव सत् [–विद्यमान] होनेके कारण अस्तित्वसे अनन्यमय हैं। --------------------------------------------------------------------------- अन्वर्थ=अर्थका अनुसरण करती हुई; अर्थानुसार। [पाँच अस्तिकायोंके नाम उनके अर्थानुसार हैं।]