Panchastikay Sangrah (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
११
अत्र पञ्चास्तिकायानां विशेषसंज्ञा सामान्यविशेषास्तित्वं कायत्वं चोक्तम्।
तत्र जीवाः पुद्गलाः धर्माधर्मौ आकाशमिति तेषां विशेषसंज्ञा अन्वर्थाः प्रत्येयाः।
सामान्यविशेषास्तित्वञ्च तेषामुत्पादव्ययध्रौव्यमय्यां सामान्यविशेषसत्तायां नियतत्वाद्वय
वस्थितत्वादवसेयम्। अस्तित्वे नियतानामपि न तेषामन्यमयत्वम्, यतस्ते सर्वदैवानन्य–मया
आत्मनिर्वृत्ताः। अनन्यमयत्वेऽपि तेषामस्तित्वनियतत्वं नयप्रयोगात्। द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ–
द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च। तत्र न खल्वेकनयायत्तादेशना किन्तु तदुभयायता। ततः
पर्यायार्थादेशादस्तित्वे स्वतः कथंचिद्भिन्नऽपि व्यवस्थिताः द्रव्यार्थादेशात्स्वयमेव सन्तः सतोऽनन्यमया
भवन्तीति। कायत्वमपि तेषामणुमहत्त्वात्। अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्तोऽमूर्ताश्च निर्विभागांशास्तैः
महान्तोऽणुमहान्तः प्रदेशप्रचयात्मका इति सिद्धं तेषां कायत्वम्। अणुभ्यां। महान्त इतिः व्यत्पत्त्या
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टीकाः–
यहाँ [इस गाथामें] पाँच अस्तिकायोंकी विशेषसंज्ञा, सामान्य विशेष–अस्तित्व तथा
कायत्व कहा है।
वहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश–यह उनकी विशेषसंज्ञाएँ अन्वर्थ जानना।
वे उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यमयी सामान्यविशेषसत्तामें नियत– व्यवस्थित [निश्चित विद्यमान] होनेसे
उनके सामान्यविशेष–अस्तित्व भी है ऐसा निश्चित करना चाहिये। वे अस्तित्वमें नियत होने पर भी
[जिसप्रकार बर्तनमें रहनेवाला घी बर्तनसे अन्यमय है उसीप्रकार] अस्तित्वसे अन्यमय नहीं है;
क्योंकि वे सदैव अपनेसे निष्पन्न [अर्थात् अपनेसे सत्] होनेके कारण [अस्तित्वसे] अनन्यमय है
[जिसप्रकार अग्नि उष्णतासे अनन्यमय है उसीप्रकार]। ‘अस्तित्वसे अनन्यमय’ होने पर भी उनका
‘अस्तित्वमें नियतपना’ नयप्रयोगसे है। भगवानने दो नय कहे है – द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वहाँ
कथन एक नयके आधीन नहीं होता किन्तु उन दोनों नयोंके आधीन होता है। इसलिये वे
पर्यायार्थिक कथनसे जो अपनेसे कथंचित् भिन्न भी है ऐसे अस्तित्वमें व्यवस्थित [निश्चित स्थित] हैं
और द्रव्यार्थिक कथनसे स्वयमेव सत् [–विद्यमान] होनेके कारण अस्तित्वसे अनन्यमय हैं।
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अन्वर्थ=अर्थका अनुसरण करती हुई; अर्थानुसार। [पाँच अस्तिकायोंके नाम उनके अर्थानुसार हैं।]