कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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न चैतदाङ्कयम् पुद्गलादन्येषाममूर्तर्र्त्वादविभाज्यानां सावयवत्वकल्पनमन्याय्यम्। द्रश्यत
एवाविभाज्येऽपि विहाय–सीदं घटाकाशमिदमघटाकाशमिति विभागकल्पनम्। यदि तत्र विभागो न
कल्पेत तदा यदेव घटाकाशं तदेवाघटाकाशं स्यात्। न च तदिष्टम्। ततः कालाणुभ्योऽन्यत्र सर्वेषां
कायत्वाख्यं सावयवत्वमवसेयम्। त्रैलोक्यरूपेण निष्पन्नत्वमपि तेषामस्तिकायत्वसाधनपरमुपन्यस्तम्।
तथा च–त्रयाणामूर्ध्वाऽधोमध्यलोकानामुत्पादव्ययध्रौव्यवन्तस्तद्विशेषात्मका भावा भवन्तस्तेषां मूल–
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अब, [उन्हें] कायत्व किस प्रकार है उसका उपदेश किया जाता हैः– जीव, पुद्गल, धर्म,
अधर्म, और आकाश यह पदार्थ १अवयवी हैं। प्रदेश नामके उनके जो अवयव हैं वे भी परस्पर
व्यतिरेकवाले होनेसे २पर्यायें कहलाती है। उनके साथ उन [पाँच] पदार्थोंको अनन्यपना होनेसे
कायत्वसिद्धि घटित होती है। परमाणु [व्यक्ति–अपेक्षासे] ३निरवयव होनेपर भी उनको सावयवपनेकी
शक्तिका सद्भाव होनेसे कायत्वसिद्धि ४निरपवाद है। वहाँ ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है कि
पुद्गलके अतिरिक्त अन्य पदार्थ अमूर्तपनेके कारण ५अविभाज्य होनेसे उनके सावयवपनेकी कल्पना
न्याय विरुद्ध [अनुचित] है। आकाश अविभाज्य होनेपर भी उसमें ‘यह घटाकाश है, यह अघटाकाश
[ पटाकाश] है’ ऐसी विभागकल्पना द्रष्टिगोचर होती ही है। यदि वहाँ [कथंचित्] विभागकी
कल्पना न की जाये तो जो घटाकाश हैे वही [सर्वथा] अघटाकाश हो जायेगा; और वह तो ईष्ट
[मान्य] नहीं है। इसलिये कालाणुओंके अतिरिक्त अन्य सर्वमें कायत्व नामका सावयवपना निश्चित
करना चाहिये।
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१। अवयवी=अवयववाला; अंशवाला; अंशी; जिनकेे अवयव [अर्थात्] एकसे अधिक प्रदेश] हों ऐसे।
२। पर्यायका लक्षण परस्पर व्यतिरेक है। वह लक्षण प्रदेशोंमें भी व्याप्त है, क्योंकि एक प्रदेश दूसरे प्रदेशरूप न
होनेसे प्रदेशोंमें परस्पर व्यतिरेक हैे; इसलिये प्रदेश भी पर्याय कहलाती है।
३। निरवयव=अवयव रहित; अंश रहित ; निरंश; एकसे अधिक प्रदेश रहित।
४। निरपवाद=अपवाद रहित। [पाँच अस्तिकायोंको कायपना होनेमें एक भी अपवाद नहीं है, क्योंकि [उपचारसे]
परमाणुको भी शक्ति–अपेक्षासे अवयव–प्रदेश हैं।]
५। अविभाज्य=जिनके विभाग न किये जा सकें ऐसे।