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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अत्र पञ्चास्तिकायानामस्तित्वसंभवप्रकारः कायत्वसंभवप्रकारश्चोक्तः।
अस्ति ह्यस्तिकायानां गुणैः पर्यायैश्च विविधैः सह स्वभावो आत्मभावोऽ नन्यत्वम्। वस्तुनो
विशेषा हि व्यतिरेकिणः पर्याया गुणास्तु त एवान्वयिनः। तत ऐकेन पर्यायेण
प्रलीयमानस्यान्येनोपजायमानस्यान्वयिना गुणेन ध्रौव्यं बिभ्राणस्यैकस्याऽपि वस्तुनः
समुच्छेदोत्पादध्रौव्यलक्षणमस्तित्वमुपपद्यत एव। गुणपर्यायैः सह सर्वथान्यत्वे त्वन्यो विनश्यत्यन्यः
प्रादुर्भवत्यन्यो ध्रवुत्वमालम्बत इति सर्वं विप्लवते। ततः साध्वस्तित्वसंभव–प्रकारकथनम्।
कायत्वसंभवप्रकारस्त्वयमुपदिश्यते। अवयविनो हि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाश–पदार्थास्तेषामवयवा अपि
प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्यायाः उच्यन्ते। तेषां तैः सहानन्यत्वे कायत्वसिद्धिरूपपत्तिमती।
निरवयवस्यापि परमाणोः सावयवत्वशक्तिसद्भावात् कायत्वसिद्धिरनपवादा। न चैतदाङ्कयम्
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टीकाः– यहाँ, पाँच अस्तिकायोंको अस्तित्व किस प्रकार हैे और कायत्व किस प्रकार है वह
कहा है।
वास्तवमें अस्तिकायोंको विविध गुणों और पर्यायोंके साथ स्वपना–अपनापन–अनन्यपना है।
वस्तुके १व्यतिरेकी विशेष वे पर्यायें हैं और २अन्वयी विशेषो वे गुण हैं। इसलिये एक पर्यायसे
प्रलयको प्राप्त होनेवाली, अन्य पर्यायसे उत्पन्न होनेवाली और अन्वयी गुणसे ध्रुव रहनेवाली एक ही
वस्तुको ३व्यय–उत्पाद–धौव्यलक्षण अस्तित्व घटित होता ही है। और यदि गुणों तथा पर्यायोंके साथ
[वस्तुको] सर्वथा अन्यत्व हो तब तो अन्य कोई विनाशको प्राप्त होगा, अन्य कोई प्रादुर्भावको
[उत्पादको] प्राप्त होगा और अन्य कोई ध्रुव रहेगा – इसप्रकार सब ४विप्लव प्राप्त हो जायेगा।
इसलिये [पाँच अस्तिकायोंको] अस्तित्व किस प्रकार है तत्सम्बन्धी यह [उपर्युक्त] कथन सत्य–
योग्य–न्याययुक्त हैे।
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१। व्यतिरेक=भेद; एकका दुसरेरूप नहीं होना; ‘यह वह नहीं है’ ऐसे ज्ञानके निमित्तभूत भिन्नरूपता। [एक पर्याय
दूसरी पयार्यरूप न होनेसे पर्यायोंमें परस्पर व्यतिरेक है; इसलिये पर्यायें द्रव्यके व्यतिरेकी [व्यतिरेकवाले]
विशेष हैं।]
२। अन्वय=एकरूपता; सद्रशता; ‘यह वही है’ ऐसे ज्ञानके कारणभूत एकरूपता। [गुणोंमें सदैव सद्रशता रहती
होनेसे उनमें सदैव अन्वय है, इसलिये गुण द्रव्यके अन्वयी विशेष [अन्वयवाले भेद] हैं।
३। अस्तित्वका लक्षण अथवा स्वरूप व्यय–उत्पाद–ध्रौव्य है।
४। विप्लव=अंधाधू्रन्धी; उथलपुथल; गड़़बड़़ी; विरोध।