कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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ते चेव अत्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा।
गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुता।। ६।।
ते चैवास्तिकायाः त्रैकालिकभावपरिणता नित्याः।
गच्छंति द्रव्यभावं परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः।। ६।।
अत्र पञ्चास्तिकायानां कालस्य च द्रव्यत्वमुक्तम्।
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लोकपूरण अवस्थारूप व्यक्तिकी शक्तिका सदैव सद्भाव होनेसे जीवोंको भी कायत्व नामका
सावयवपना है ऐसा अनुमान किया ही जा सकता है। पुद्गलो भी ऊर्ध्व अधो–मध्य ऐसे लोकके
[तीन] विभागरूप परिणत महास्कंधपनेकी प्राप्तिकी व्यक्तिवाले अथवा शक्तिवाले होनेसे उन्हें भी
वैसी [कायत्व नामकी] सावयवपनेकी सिद्धि है ही।। ५।।
गाथा ६
अन्वयार्थः– [त्रैकालिकभावपरिणताः] जो तीन कालके भावोंरूप परिणमित होते हैं तथा
[नित्याः] नित्य हैं [ते च एव अस्तिकायाः] ऐसे वे ही अस्तिकाय, [परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः]
परिवर्तनलिंग [काल] सहित, [द्रव्यभावं गच्छन्ति] द्रव्यत्वको प्राप्त होते हैं [अर्थात् वे छहों द्रव्य
हैं।]
टीकाः– यहाँ पाँच अस्तिकायोंको तथा कालको द्रव्यपना कहा है।
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लोकपूरण=लोकव्यापी। [केवलसमुद्द्यात के समय जीवकी त्रिलोकव्यापी दशा होती है। उस समय ‘यह
ऊर्ध्वलोकका जीवभाग है, यह अधोलोकका जीवभाग है और यह मध्यलोकका जीवभाग हैे’ ऐसे विभाग किये
जा सकते है। ऐसी त्रिलोकव्यापी दशा [अवस्था] की शक्ति तो जीवोंमें सदैव है इसलिये जीव सदैव
सावयव अर्थात् कायत्ववाले हैंऐसा सिद्ध होता है।]
ते अस्तिकाय त्रिकालभावे परिणमे छे, नित्य छे;
ए पाँच तेम ज काल वर्तनलिंग सर्वे द्रव्य छे। ६।