Panchastikay Sangrah (Hindi).

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द

१८

अत्र पञ्चास्तिकायानां कालस्य च द्रव्यत्वमुक्तम्।

द्रव्याणि हि सहक्रमभुवां गुणपर्यायाणामनन्यतयाधारभूतानि भवन्ति। ततो

वृत्तवर्तमानवर्तिष्यमाणानां भावानां पर्यायाणा स्वरूपेण परिणतत्वादस्तिकायानां परिवर्तनलिङ्गस्य कालस्य चास्ति द्रव्यत्वम्। न च तेषां भूतभवद्भविष्यद्भावात्मना परिणममानानामनित्यत्वम्, यतस्ते भूतभवद्भविष्यद्भावावस्थास्वपि प्रतिनियतस्वरूपापरित्यागा–न्नित्या एव। अत्र कालः पुद्गलादिपरिवर्तनहेतुत्वात्पुद्गलादिपरिवर्तनगम्यमानपर्यायत्वा–च्चास्तिकायेष्वन्तर्भावार्थ स परिवर्तन– लिङ्ग इत्युक्त इति।। ६।। -----------------------------------------------------------------------------

द्रव्य वास्तवमें सहभावी गुणोंको तथा क्रमभावी पर्यायोंको अनन्यरूपसे आधारभूत है। इसलिये जो वर्त चूके हैं, वर्त रहे हैं और भविष्यमें वर्तेंगे उन भावों–पर्यायोंरूप परिणमित होनेके कारण [पाँच] अस्तिकाय और परिवर्तनलिंग काल [वे छहों] द्रव्य हैं। भूत, वर्तमान और भावी भावस्वरूप परिणमित होनेसे वे कहीं अनित्य नहीं है, क्योंकि भूत, वर्तमान और भावी भावरूप अवस्थाओंमें भी प्रतिनियत [–अपने–अपने निश्वित] स्वरूपको नहीं छोड़ते इसलिये वे नित्य ही है।

यहाँ काल पुद्गलादिके परिवर्तनका हेतु होनेसे तथा पुद्गलादिके परिवर्तन द्वारा उसकी पर्याय गम्य [ज्ञात] होती हैं इसलिये उसका अस्तिकायोंमें समावेश करनेके हेतु उसे ‘परिवर्तनलिंग’ कहा है। [पुद्गलादि अस्तिकायोंका वर्णन करते हुए उनके परिवर्तन (परिणमन) का वर्णन करना चाहिये। और उनके परिवर्तनका वर्णन करते हुए उन परिवर्तनमें निमित्तभूत पदार्थका [कालका] अथवा उस परिवर्तन द्वारा जिनकी पर्यायें व्यक्त होती हैं उस पदार्थका [कालका] वर्णन करना अनुचित नहीं कहा जा सकता। इसप्रकार पंचास्तिकायके वर्णनमें कालके वर्णनका समावेश करना अनुचित नहीं है ऐसा दर्शानेके हेतु इस गाथासूत्रमें कालके लिये ‘परिवर्तनलिंग’ शब्दका उपयोग किया है।]।। ६।। -------------------------------------------------------------------------- १। अनन्यरूप=अभिन्नरूप [जिसप्रकार अग्नि आधार है और उष्णता आधेय है तथापि वे अभिन्न हैं, उसीप्रकार द्रव्य

आधार है और गुण–पर्याय आधेय हैं तथापि वे अभिन्न हैं।]

२। परिवर्तनलिंग=पुद्गलादिका परिवर्तन जिसका लिंग है; वह पुद्गलादिके परिणमन द्वारा जो ज्ञान होता है

वह। [लिंग=चिह्न; सूचक; गमक; गम्य करानेवाला; बतलानेवाला; पहिचान करानेवाला।]

३। [१] यदि पुद्गलादिका परिवर्तन होता है तो उसका कोई निमित्त होना चाहिये–इसप्रकार परिवर्तनरूपी चिह्न

द्वारा कालका अनुमान होता है [जिसप्रकार धुआँरूपी चिह्न द्वारा अग्निका अनुमान होता है उसीप्रकार],
इसलिये काल ‘परिवर्तनलिंग’ है। [२] और पुद्गलादिके परिवर्तन द्वारा कालकी पर्यायें [–‘कर्म समय’,
‘अधिक समय ऐसी कालकी अवस्थाएँ] गम्य होती हैं इसलिये भी काल ‘परिवर्तनलिंग’ है।