कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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अण्णोण्णं पविसंता दिंता ओगासमण्णमण्णस्स।
म्ेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति।। ७।।
अनयोऽन्यं प्रविशन्ति ददन्त्यवकाशमन्योऽन्यस्य।
मिलन्त्यपि च नित्यं स्वकं स्वभावं न विजहन्ति।। ७।।
अत्र षण्णां द्रव्याणां परस्परमत्यन्तसंकरेऽपि प्रतिनियतस्वरूपादप्रच्यवनमुक्तम्।
अत एव तेषां परिणामवत्त्वेऽपि प्राग्नित्यत्वमुक्तम्। अत एव च न तेषामेकत्वापत्तिर्न च
जीवकर्मणोर्व्यवहारनयादेशादेकत्वेऽपि परस्परस्वरूपोपादानमिति।। ७।।
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गाथा ७
अन्वयार्थઃ– [अन्योन्यं प्रविशन्ति] वे एक–दूसरेमें प्रवेश करते हैं, [अन्योन्यस्य] अन्योन्य
[अवकाशम् ददन्ति] अवकाश देते हैं, [मिलन्ति] परस्पर [क्षीर–नीरवत्] मिल जाते हैं। [अपि
च] तथापि [नित्यं] सदा [स्वकं स्वभावं] अपने–अपने स्वभावको [न विजहन्ति] नहीं छोड़ते।
टीकाः– यहाँ छह द्रव्योंको परस्पर अत्यन्त संकर होने पर भी वे प्रतिनियत [–अपने–अपने
निश्वित] स्वरूपसे च्युत नहीं होते ऐसा कहा है। इसलिये [–अपने–अपने स्वभावसे च्युत नहीं होते
इसलिये], परिणामवाले होने पर भी वे नित्य हैं–– ऐसा पहले [छठवी गाथामें] कहा था; और
इसलिये वे एकत्वको प्राप्त नहीं होते; और यद्यपि जीव तथा कर्मको व्यवहारनयके कथनसे
एकत्व [कहा जाता] है तथापि वे [जीव तथा कर्म] एक–दूसरेके स्वरूपको ग्रहण नहीं करते।।
७।।
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संकर=मिलन; मिलाप; [अन्योन्य–अवगाहरूप] मिश्रितपना।
अन्योन्य थाय प्रवेश, ए अन्योन्य दे अवकाशने,
अन्योन्य मिलन, छतां कदी छोडे़ न आपस्वभावने। ७।