Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 8.

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२०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरुवा अणंतपज्जाया।
मंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि
ऐक्का।। ८।।
सत्ता सर्वपदार्था सविश्वरूपा अनन्तपर्याया।
भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका सप्रतिपक्षा मवत्येका।। ८।।
अत्रास्तित्वस्वरूपमुक्तम्।
अस्तित्वं हि सत्ता नाम सतो भावः सत्त्वम्। न सर्वथा नित्यतया सर्वथा क्षणिकतया वा
विद्यमानमात्रं वस्तु। सर्वथा नित्यस्य वस्तुनस्तत्त्वतः क्रमभुवां भावानामभावात्कुतो विकारवत्त्वम्।
सर्वथा क्षणिकस्य च तत्त्वतः प्रत्यभिज्ञानाभावात् कुत एकसंतानत्वम्। ततः प्रत्यभिज्ञानहेतुभूतेन
केनचित्स्वरूपेण ध्रौव्यमालम्ब्यमानं काभ्यांचित्क्रमप्रवृत्ताभ्यां स्वरूपाभ्यां प्रलीयमानमुपजायमानं
चैककालमेव परमार्थतस्त्रितयीमवस्थां बिभ्राणं वस्तु सदवबोध्यम्। अत एव
सत्ताप्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मिकाऽवबोद्धव्या, भावभाववतोः कथंचिदेकस्वरूपत्वात्। सा च त्रिलक्षणस्य
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गाथा ८
अन्वयार्थः– [सत्ता] सत्ता [भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका] उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, [एका] एक,
[सर्वपदार्था] सर्वपदार्थस्थित, [सविश्वरूपा] सविश्वरूप, [अनन्तपर्याया] अनन्तपर्यायमय और
[सप्रतिपक्षा] सप्रतिपक्ष [भवति] है।
टीकाः– यहाँ अस्तित्वका स्वरूप कहा है।
अस्तित्व अर्थात सत्ता नामक सत्का भाव अर्थात सत्त्व।
विद्यमानमात्र वस्तु न तो सर्वथा नित्यरूप होती है और न सर्वथा क्षणिकरूप होती है। सर्वथा
नित्य वस्तुको वास्तवमें क्रमभावी भावोंका अभाव होनेसे विकार [–परिवर्तन, परिणाम] कहाँसे
होगा? और सर्वथा क्षणिक वस्तुमें वास्तवमें
प्रत्यभिज्ञानका अभाव होनेसे एकप्रवाहपना कहाँसे
रहेगा? इसलियेे प्रत्यभिज्ञानके हेतुभूत किसी स्वरूपसे ध्रुव रहती हुई और किन्हीं दो क्रमवर्ती
स्वरूपोंसे नष्ट होती हुई तथा उत्पन्न होती हुई – इसप्रकार परमार्थतः एक ही कालमें तिगुनी [तीन
अंशवाली] अवस्थाको धारण करती हुई वस्तु सत् जानना। इसलिये ‘सत्ता’ भी
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१। सत्त्व=सत्पनां; अस्तित्वपना; विद्यमानपना; अस्तित्वका भाव; ‘है’ ऐसा भाव।
२। वस्तु सर्वथा क्षणिक हो तो ‘जो पहले देखनेमें [–जाननेमें] आई थी वही यह वस्तु है’ ऐसा ज्ञान नहीं हो
सकता।

सर्वार्थप्राप्त, सविश्वरूप, अनंतपर्ययवंत छे,
सत्ता जनम–लय–ध्रौव्यमय छे, एक छे, सविपक्ष छे। ८।