सदित्यभिधानस्य सदिति प्रत्ययस्य च सर्वपदार्थेषु तन्मूलस्यैवोपलम्भात्। सविश्वरूपा च विश्वस्य
समस्तवस्तुविस्तारस्यापि रूपैस्त्रिलक्षणैः स्वभावैः सह वर्तमानत्वात्। अनन्तपर्याया
चानन्ताभिर्द्रव्यपर्यायव्यक्तिभिस्त्रिलक्षणाभिः परिगम्यमानत्वात् एवंभूतापि सा न खलु निरकुशा किन्तु
सप्रतिपक्षा। प्रतिपक्षो ह्यसत्ता सत्तायाः अत्रिलक्षणत्वं त्रिलक्षणायाः, अनेकत्वमेकस्याः,
एकपदार्थस्थितत्वं सर्वपदार्थस्थितायाः, एकरूपत्वं सविश्वरूपायाः, एकपर्यायत्वमनन्तपर्यायाया
इति।
‘उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक’ [त्रिलक्षणा] जानना; क्योंकि
सूचित करती है। और वह [सत्ता] ‘सर्वपदार्थस्थित’ है; क्योंकि उसके कारण ही [–सत्ताके कारण
ही] सर्व पदार्थोमें त्रिलक्षणकी [–उत्पादव्ययध्रौव्यकी], ‘सत्’ ऐसे कथनकी तथा ‘सत’ ऐसी
प्रतीतिकी उपलब्धि होती है। और वह [सत्ता] ‘सविश्वरूप’ है, क्योंकि वह विश्वके रूपों सहित
अर्थात् समस्त वस्तुविस्तारके त्रिलक्षणवाले स्वभावों सहित वर्तती है। और वह [सत्ता]
‘अनंतपर्यायमय’ है। क्योंकि वह त्रिलक्षणवाली अनन्त द्रव्यपर्यायरूप व्यक्तियोंसे व्याप्त है। [इसप्रकार
सर्वपदार्थस्थितको एकपदार्थस्थितपना प्रतिपक्ष है; [५] सविश्वरूपको एकरूपपना प्रतिपक्ष है;
[६]अनन्तपर्यायमयको एकपर्यायमयपना प्रतिपक्ष है।
२। यहाँ ‘सामान्यात्मक’का अर्थ ‘महा’ समझना चाहिये और ‘विशेषात्मक’ का अर्थ ‘अवान्तर’ समझना चाहिये।
३। निरंकुश=अंकुश रहित; विरुद्ध पक्ष रहित ; निःप्रतिपक्ष। [सामान्यविशेषात्मक सत्ताका ऊपर जो वर्णन किया
अपेक्षासे] विरुद्ध प्रकारकी हैे।]
४। सप्रतिपक्ष=प्रतिपक्ष सहित; विपक्ष सहित; विरुद्ध पक्ष सहित।