Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 9.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द

२४

दवियदि गच्छदि ताइं ताइं सब्भावपञ्जयाइं जं।
दवियं
तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो।। ९।।

द्रवति गच्छति तांस्तान् सद्भावपर्यायान् यत्।
द्रव्य तत् भणन्ति अनन्यभूतं तु सत्तातः।। ९।।

----------------------------------------------------------------------------- [४] सर्व पदार्थ सत् है इसलिये महासत्ता ‘सर्व पदार्थोंमें स्थित’ है। व्यक्तिगत पदार्थोंमें स्थित भिन्न–भिन्न व्यक्तिगत सत्ताओं द्वारा ही पदार्थोंका भिन्न–भिन्न निश्चित व्यक्तित्व रह सकता है, इसलिये उस–उस पदार्थकी अवान्तरसत्ता उस–उस ‘एक पदार्थमें ही स्थित’ है। [५] महासत्ता समस्त वस्तुसमूहके रूपों [स्वभावों] सहित है इसलिये वह ‘सविश्वरूप’ [सर्वरूपवाली] है। वस्तुकी सत्ताका [कथंचित्] एक रूप हो तभी उस वस्तुका निश्चित एक रूप [–निश्चित एक स्वभाव] रह सकता है, इसलिये प्रत्येक वस्तुकी अवान्तरसत्ता निश्चित ‘एक रूपवाली’ ही है। [६] महासत्ता सर्व पर्यायोंमें स्थित है इसलिये वह ‘अनन्तपर्यायमय’ है। भिन्न–भिन्न पर्यायोंमें [कथंचित्] भिन्न–भिन्न सत्ताएँ हों तभी प्रत्येक पर्याय भिन्न–भिन्न रहकर अनन्त पर्यायें सिद्ध होंगी, नहीं तो पर्यायोंका अनन्तपना ही नहीं रहेगा–एकपना हो जायगा; इसलिये प्रत्येक पर्यायकी अवान्तरसत्ता उस–उस ‘एक पर्यायमय’ ही है।

इस प्रकार सामान्यविशेषात्मक सत्ता, महासत्तारूप तथा अवान्तरसत्तारूप होनेसे, [१] सत्ता भी है और असत्ता भी है, [२] त्रिलक्षणा भी है और अत्रिलक्षणा भी है, [३] एक भी है और अनेक भी है, [४] सर्वपदार्थस्थित भी है और एकपदार्थस्थित भी है। [५] सविश्वरूप भी है और एकरूप भी है, [६] अनंतपर्यायमय भी है और एकपर्यायमय भी है।। ८।। --------------------------------------------------------------------------

ते ते विविध सद्भावपर्ययने द्रवे–व्यापे–लहे
तेने कहे छे द्रव्य, जे सत्ता थकी नहि अन्य छे। ९।