कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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अत्र सत्ताद्रव्ययोरर्थान्तरत्वं प्रत्याख्यातम्।
द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्याप्नोति तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्वसद्भावपर्यायान्
स्वभावविशेषानित्यनुगतार्थया निरुक्तया द्रव्यं व्याख्यातम्। द्रव्यं च लक्ष्य–लक्षणभावादिभ्यः
कथञ्चिद्भेदेऽपि वस्तुतः सत्ताया अपृथग्भूतमेवेति मन्तव्यम्। ततो यत्पूर्वं सत्त्वमसत्त्वं
त्रिलक्षणत्वमत्रिलक्षणत्वमेकत्वमनेकत्वं सर्वपदार्थस्थितत्वमेकपदार्थस्थितत्वं विश्व–
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गाथा ९
अन्वयार्थः– [तान् तान् सद्भावपर्यायान्] उन–उन सद्भावपर्यायोको [यत्] जो [द्रवति]
द्रवित होता है – [गच्छति] प्राप्त होता है, [तत्] उसे [द्रव्यं भणन्ति] [सर्वज्ञ] द्रव्य कहते हैं
– [सत्तातः अनन्यभूतं तु] जो कि सत्तासे अनन्यभूत है।
टीकाः– यहाँ सत्ताने और द्रव्यको अर्थान्तरपना [भिन्नपदार्थपना, अन्यपदार्थपना] होनेका
खण्डन किया है।
‘ उन–उन क्रमभावी और सहभावी सद्भावपर्यायोंको अर्थात स्वभावविशेषोंको जो १द्रवित
होता है – प्राप्त होता है – सामान्यरूप स्वरूपसेे व्याप्त होता है वह द्रव्य है’ – इस प्रकार
२अनुगत अर्थवाली निरुक्तिसे द्रव्यकी व्याख्या की गई। और यद्यपि ३लक्ष्यलक्षणभावादिक द्वारा द्रव्यको
सत्तासे कथंचित् भेद है तथापि वस्तुतः [परमार्थेतः] द्रव्य सत्तासे अपृथक् ही है ऐसा मानना।
इसलिये पहले [८वीं गाथामें] सत्ताको जो सत्पना, असत्पना, त्रिलक्षणपना, अत्रिलक्षणपना,
एकपना,
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१। श्री जयसेनाचार्यदेवकी टीकामें भी यहाँकी भाँति ही ‘द्रवति गच्छति’ का एक अर्थ तो ‘द्रवित होता है अर्थात्
प्राप्त होता है ’ ऐसा किया गया है; तदुपरान्त ‘द्रवति’ अर्थात स्वभावपर्यायोंको द्रवित होता है और गच्छति
अर्थात विभावपर्यायोंको प्राप्त होता है ’ ऐसा दूसरा अर्थ भी यहाँ किया गया है।
२। यहाँ द्रव्यकी जो निरुक्ति की गई है वह ‘द्रु’ धातुका अनुसरण करते हुए [–मिलते हुए] अर्थवाली हैं।
३। सत्ता लक्षण है और द्रव्य लक्ष्य है।