Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 10.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
रूपत्वमेकरूपत्वमनन्तपर्यायत्वमेकपर्यायत्वं च प्रतिपादितं सत्तायास्तत्सर्वं तदनर्थान्तरभूतस्य
द्रव्यास्यैव द्रष्टव्यम्। ततो न कश्चिदपि तेषु सत्ता विशेषोऽवशिष्येत यः सत्तां वस्तुतो द्रव्यात्पृथक्
व्यवस्थापयेदिति।। ९।।
दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुतें
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हु।। १०।।
द्रव्यं सल्लक्षणकं उत्पादव्ययध्रुवत्वसंयुक्तम्।
गुणपयायाश्रयं वा यत्तद्भणन्ति सर्वज्ञा।। १०।।
अत्र त्रेधा द्रव्यलक्षणमुक्तम्।
सद्र्रव्यलक्षणम् उक्तलक्षणायाः सत्ताया अविशेषाद्र्रव्यस्य सत्स्वरूपमेव लक्षणम्। न
चानेकान्तात्मकस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वं रूपं यतो लक्ष्यलक्षणविभागाभाव इति। उत्पाद–
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अनेकपना, सर्वपदार्थस्थितपना, एकपदार्थस्थितपना, विश्वरूपपना, एकरूपपना, अनन्तपर्यायमयपना
और एकपर्यायमयपना कहा गया वह सर्व सत्तासे अनर्थांतरभूत [अभिन्नपदार्थभूत, अनन्यपदार्थभूत]
द्रव्यको ही देखना [अर्थात् सत्पना, असत्पना, त्रिलक्षणपना, अत्रिलक्षणपना आदि समस्त सत्ताके
विशेष द्रव्यके ही है ऐसा मानना]। इसलिये उनमें [–उन सत्ताके विशेषोमें] कोई सत्ताविशेष शेष
नहीं रहता जो कि सत्ताको वस्तुतः [परमार्थतः] द्रव्यसे पृथक् स्थापित करे ।। ९।।
गाथा १०
अन्वयार्थः– [यत्] जो [सल्लक्षणकम्] ‘सत्’ लक्षणवाला है, [उत्पादव्ययध्रुवत्वसंयुक्तम्] जो
उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्त है [वा] अथवा [गुणपर्यायाश्रयम्] जो गुणपर्यायोंका आश्रय है, [तद्] उसेे
[सर्वज्ञाः] सर्वज्ञ [द्रव्यं] द्रव्य [भणन्ति] कहते हैं।
टीकाः– यहाँ तीन प्रकारसे द्रव्यका लक्षण कहा है।
‘सत्’ द्रव्यका लक्षण है। पुर्वोक्त लक्षणवाली सत्तासे द्रव्य अभिन्न होनेके कारण ‘सत्’ स्वरूप
ही द्रव्यका लक्षण है। और अनेकान्तात्मक द्रव्यका सत्मात्र ही स्वरूप नहीं है कि जिससे
लक्ष्यलक्षणके विभागका अभाव हो। [सत्तासे द्रव्य अभिन्न है इसलिये द्रव्यका जो सत्तारूप स्वरूप वही
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छे सत्त्व लक्षण जेहनुं, उत्पादव्ययध्रुवयुक्त जे,
गुणपर्ययाश्रय जेह, तेने द्रव्य सर्वज्ञो कहे। १०।