ज्ञानी सुकानी मळया बिना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळयो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळयो।
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां।
अने ज्ञप्तिमांही दरव–गुण–पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे।
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
–रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां–अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा।
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं।