Panchastikay Sangrah (Hindi). Sadgurudev stuti.

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श्री सद्गुरुदेव–स्तुति
[हरिगीत]
संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली,
ज्ञानी सुकानी मळया बिना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळयो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळयो।
[अनुष्टुप]
अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर–वीर–कुंदना!
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां।
[शिखरिणी]
सद्रा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे,
अने ज्ञप्तिमांही दरव–गुण–पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे।
[शार्दूलविक्रीडित]
हैयुं ‘सत सत, ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे,
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
–रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां–अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा।
[वसंततिलका]
नित्ये सुधाझरण चंद्र! तने नमुं हुं,
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं।
[स्रग्धरा]
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर–अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं, – मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाली!