हि घृतोत्पतौ गोरसस्य सतो न विनाशः न चापि गोरसव्यतिरिक्तस्यार्थान्तरस्यासतः उत्पादः किन्तु
गोरसस्यैव सदुच्छेदमसदुत्पादं चानुपलभ–मानस्य स्पर्शरसगन्धवर्णादिषु परिणामिषु गुणेषु
पूर्वावस्थया विनश्यत्सूत्तरावस्थया प्रादर्भवत्सु नश्यति च नवनीतपर्यायो घतृपर्याय उत्पद्यते, तथा
सर्वभावानामपीति।। १५।।
टीकाः– यहाँ उत्पादमें असत्के प्रादुर्भावका और व्ययमें सत्के विनाशका निषेध किया है
होता ––ऐसा इस गाथामें कहा है]।
विनाश और उत्पाद करते हैं। जिसप्रकार घीकी उत्पत्तिमें गोरसका–सत्का–विनाश नहीं है तथा
गोरससे भिन्न पदार्थान्तरका–असत्का–उत्पाद नहीं है, किन्तु गोरसको ही, सत्का विनाश और
असत्का उत्पाद किये बिना ही, पूर्व अवस्थासे विनाश प्राप्त होने वाले और उत्तर अवस्थासे उत्पन्न
होने वाले स्पर्श–रस–गंध–वर्णादिक परिणामी गुणोंमें मक्खनपर्याय विनाशको प्राप्त होती है तथा
घीपर्याय उत्पन्न होती है; उसीप्रकार सर्व भावोंका भी वैसा ही है [अर्थात् समस्त द्रव्योंको नवीन
पर्यायकी उत्पत्तिमें सत्का विनाश नहीं है तथा असत्का उत्पाद नहीं है, किन्तु सत्का विनाश और
असत्का उत्पाद किये बिना ही, पहलेकी [पुरानी] अवस्थासे विनाशको प्राप्त होनेवाले और बादकी
[नवीन] अवस्थासे उत्पन्न होनेवाले
परिणामी=परिणमित होनेवाले; परिणामवाले। [पर्यायार्थिक नयसे गुण परिणामी हैं अर्थात् परिणमित होते हैं।]