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उभाभ्यामशून्यशून्यत्वात्, सहावाच्यत्वात्, भङ्गसंयोगार्पणायामशून्यावाच्यत्वात्, शून्यावाच्य–त्वात्,
गुणपञ्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति।। १५।।
गुणपर्यायेषु भावा उत्पादव्ययान् प्रकुर्वन्ति।। १५।।
----------------------------------------------------------------------------- पररूपादिसे] एकही साथ ‘अवाच्य’ है, भंगोंके संयोगसे कथन करने पर [५] ‘अशून्य और अवाच्य’ है, [६] ‘शून्य और अवाच्य’ है, [७] ‘अशून्य, शून्य और अवाच्य’ है।
भावार्थः– [१] द्रव्य स्वचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘है’। [२] द्रव्य परचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘नहीं है’। [३] द्रव्य क्रमशः स्वचतुष्टयकी और परचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘है और नहीं है’। [४] द्रव्य युगपद् स्वचतुष्टयकी और परचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘अवक्तव्य है’। [५] द्रव्य स्वचतुष्टयकी और युगपद् स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘है और अवक्तव्य हैे’। [६] द्रव्य परचतुष्टयकी, और युगपद् स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘नहीं और अवक्तव्य है’। [७] द्रव्य स्वचतुष्टयकी, परचतुष्टयकी और युगपद् स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘है, नहीं है और अवक्तव्य है’। – इसप्रकार यहाँ सप्तभंगी कही गई है।। १४।।
अन्वयार्थः– [भावस्य] भावका [सत्का] [नाशः] नाश [न अस्ति] नहीं है [च एव] तथा [अभावस्य] अभावका [असत्का] [उत्पादः] उत्पाद [न अस्ति] नहीं है; [भावाः] भाव [सत् द्रव्यों] [गुणपर्यायषु] गुणपर्यायोंमें [उत्पादव्ययान्] उत्पादव्यय [प्रकृर्वन्ति] करते हैं। -------------------------------------------------------------------------- स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावको स्वचतुष्टय कहा जाता है । स्वद्रव्य अर्थात् निज गुणपर्यायोंके
अपनी वर्तमान पर्याय; स्वभाव अर्थात् निजगुण– स्वशक्ति।
‘भावो’ करे छे नाश ने उत्पाद गुणपर्यायमां। १५।