स्वभावेनाविनष्टमनुत्पन्नं वा वेद्यते। पर्यायास्तु तस्य पूर्वपूर्वपरिणामो–पमर्दोत्तरोत्तरपरिणामोत्पादरूपाः
प्रणाशसंभवधर्माणोऽभिधीयन्ते। ते च वस्तुत्वेन द्रव्यादपृथग्भूता एवोक्ताः। ततः पर्यायैः
सहैकवस्तुत्वाज्जायमानं म्रियमाणमति जीवद्रव्यं सर्वदानुत्पन्ना विनष्टं द्रष्टव्यम्। देवमनुष्यादिपर्यायास्तु
क्रमवर्तित्वादुपस्थितातिवाहितस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति।। १८।।
तावदिओ जीवाणं देवो मणुसो त्ति गदिणामो।। १९।।
तावज्जीवानां देवो मनुष्य इति गतिनाम।। १९।।
जो द्रव्य
अवस्थामें व्याप्त होनेवाला जो प्रतिनियत एकवस्तुत्वके कारणभूत स्वभाव उसके द्वारा [–उस
स्वभावकी अपेक्षासे] अविनष्ट एवं अनुत्पन्न ज्ञात होता है; उसकी पर्यायें पूर्व–पूर्व परिणामके नाशरूप
और उत्तर–उत्तर परिणामके उत्पादरूप होनेसे विनाश–उत्पादधर्मवाली [–विनाश एवं उत्पादरूप
धर्मवाली] कही जाती है, और वे [पर्यायें] वस्तुरूपसे द्रव्यसे अपृथग्भूत ही कही गई है। इसलिये,
पर्यायोंके साथ एकवस्तुपनेके कारण जन्मता और मरता होने पर भी जीवद्रव्य सर्वदा अनुत्पन्न एवं
अविनष्ट ही देखना [–श्रद्धा करना]; देव मनुष्यादि पर्यायें उपजती है और विनष्ट होती हैं क्योंकि
वे क्रमवर्ती होनेसे उनका स्वसमय उपस्थित होता है और बीत जाता है।। १८।।
ऐसा कहा जाता है उसका यह कारण है कि] [जीवानाम्] जीवोंकी [देवः मनुष्यः] देव, मनुष्य
[इति गतिनाम] ऐसा गतिनामकर्म [तावत्] उतने ही कालका होता है।
सुरनरप्रमुख गतिनामनो हदयुक्त काळ ज होय छे। १९।