कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
द्रव्यमालक्ष्यते, तदेव तथाविधोभयावस्थाव्यापिना प्रतिनियतैक– वस्तुत्वनिबन्धनभूतेन स्वभावेनाविनष्टमनुत्पन्नं वा वेद्यते। पर्यायास्तु तस्य पूर्वपूर्वपरिणामो–पमर्दोत्तरोत्तरपरिणामोत्पादरूपाः प्रणाशसंभवधर्माणोऽभिधीयन्ते। ते च वस्तुत्वेन द्रव्यादपृथग्भूता एवोक्ताः। ततः पर्यायैः सहैकवस्तुत्वाज्जायमानं म्रियमाणमति जीवद्रव्यं सर्वदानुत्पन्ना विनष्टं द्रष्टव्यम्। देवमनुष्यादिपर्यायास्तु क्रमवर्तित्वादुपस्थितातिवाहितस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति।। १८।।
तावदिओ जीवाणं देवो मणुसो त्ति गदिणामो।। १९।।
तावज्जीवानां देवो मनुष्य इति गतिनाम।। १९।।
----------------------------------------------------------------------------- जो द्रव्य १पूर्व पर्यायके वियोगसे और २उत्तर पर्यायके संयोगसे होनेवाली उभय अवस्थाको आत्मसात् [अपनेरूप] करता हुआ विनष्ट होता और उपजता दिखाई देता है, वही [द्रव्य] वैसी उभय अवस्थामें व्याप्त होनेवाला जो प्रतिनियत एकवस्तुत्वके कारणभूत स्वभाव उसके द्वारा [–उस स्वभावकी अपेक्षासे] अविनष्ट एवं अनुत्पन्न ज्ञात होता है; उसकी पर्यायें पूर्व–पूर्व परिणामके नाशरूप और उत्तर–उत्तर परिणामके उत्पादरूप होनेसे विनाश–उत्पादधर्मवाली [–विनाश एवं उत्पादरूप धर्मवाली] कही जाती है, और वे [पर्यायें] वस्तुरूपसे द्रव्यसे अपृथग्भूत ही कही गई है। इसलिये, पर्यायोंके साथ एकवस्तुपनेके कारण जन्मता और मरता होने पर भी जीवद्रव्य सर्वदा अनुत्पन्न एवं अविनष्ट ही देखना [–श्रद्धा करना]; देव मनुष्यादि पर्यायें उपजती है और विनष्ट होती हैं क्योंकि वे क्रमवर्ती होनेसे उनका स्वसमय उपस्थित होता है और बीत जाता है।। १८।।
अन्वयार्थः– [एवं] इसप्रकार [जीवस्य] जीवको [सतः विनाशः] सत्का विनाश और [असतः उत्पादः] असत्का उत्पाद [न अस्ति] नहीं है; [‘देव जन्मता हैे और मनुष्य मरता है’ – ऐसा कहा जाता है उसका यह कारण है कि] [जीवानाम्] जीवोंकी [देवः मनुष्यः] देव, मनुष्य [इति गतिनाम] ऐसा गतिनामकर्म [तावत्] उतने ही कालका होता है। -------------------------------------------------------------------------- १। पूर्व = पहलेकी। २। उत्तर = बादकी
सुरनरप्रमुख गतिनामनो हदयुक्त काळ ज होय छे। १९।