Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 19.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
३९
द्रव्यमालक्ष्यते, तदेव तथाविधोभयावस्थाव्यापिना प्रतिनियतैक– वस्तुत्वनिबन्धनभूतेन
स्वभावेनाविनष्टमनुत्पन्नं वा वेद्यते। पर्यायास्तु तस्य पूर्वपूर्वपरिणामो–पमर्दोत्तरोत्तरपरिणामोत्पादरूपाः
प्रणाशसंभवधर्माणोऽभिधीयन्ते। ते च वस्तुत्वेन द्रव्यादपृथग्भूता एवोक्ताः। ततः पर्यायैः
सहैकवस्तुत्वाज्जायमानं म्रियमाणमति जीवद्रव्यं सर्वदानुत्पन्ना विनष्टं द्रष्टव्यम्। देवमनुष्यादिपर्यायास्तु
क्रमवर्तित्वादुपस्थितातिवाहितस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति।। १८।।
एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो।
तावदिओ जीवाणं देवो मणुसो त्ति गदिणामो।। १९।।
एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य नास्त्युत्पादः।
तावज्जीवानां देवो मनुष्य इति गतिनाम।। १९।।
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जो द्रव्य
पूर्व पर्यायके वियोगसे और उत्तर पर्यायके संयोगसे होनेवाली उभय अवस्थाको आत्मसात्
[अपनेरूप] करता हुआ विनष्ट होता और उपजता दिखाई देता है, वही [द्रव्य] वैसी उभय
अवस्थामें व्याप्त होनेवाला जो प्रतिनियत एकवस्तुत्वके कारणभूत स्वभाव उसके द्वारा [–उस
स्वभावकी अपेक्षासे] अविनष्ट एवं अनुत्पन्न ज्ञात होता है; उसकी पर्यायें पूर्व–पूर्व परिणामके नाशरूप
और उत्तर–उत्तर परिणामके उत्पादरूप होनेसे विनाश–उत्पादधर्मवाली [–विनाश एवं उत्पादरूप
धर्मवाली] कही जाती है, और वे [पर्यायें] वस्तुरूपसे द्रव्यसे अपृथग्भूत ही कही गई है। इसलिये,
पर्यायोंके साथ एकवस्तुपनेके कारण जन्मता और मरता होने पर भी जीवद्रव्य सर्वदा अनुत्पन्न एवं
अविनष्ट ही देखना [–श्रद्धा करना]; देव मनुष्यादि पर्यायें उपजती है और विनष्ट होती हैं क्योंकि
वे क्रमवर्ती होनेसे उनका स्वसमय उपस्थित होता है और बीत जाता है।। १८।।
गाथा १९
अन्वयार्थः– [एवं] इसप्रकार [जीवस्य] जीवको [सतः विनाशः] सत्का विनाश और
[असतः उत्पादः] असत्का उत्पाद [न अस्ति] नहीं है; [‘देव जन्मता हैे और मनुष्य मरता है’ –
ऐसा कहा जाता है उसका यह कारण है कि] [जीवानाम्] जीवोंकी [देवः मनुष्यः] देव, मनुष्य
[इति गतिनाम] ऐसा गतिनामकर्म [तावत्] उतने ही कालका होता है।
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१। पूर्व = पहलेकी। २। उत्तर = बादकी
ए रीते सत्–व्यय ने असत्–उत्पाद होय न जीवने;
सुरनरप्रमुख गतिनामनो हदयुक्त काळ ज होय छे। १९।