Panchastikay Sangrah (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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जीवस्योत्पादव्ययसदुच्छेदासदुत्पादकर्तृत्वोपपत्त्युपसंहारोऽयम्।
द्रव्यं हि सर्वदाऽविनष्टानुत्पन्नमाम्नतम् ततो जीवद्रव्यस्य द्रव्यरूपेण नित्यत्वमुपन्यस्तम् तस्यैव
देवादिपर्यायरूपेण प्रादुर्भवतो भावकर्तृत्वमुक्तं; तस्यैव च मनुष्यादिपर्यायरूपेण
व्ययतोऽभावकर्तृत्वमाख्यातं; तस्यैव च सतो देवादिपर्यायस्योच्छेदमारभमाणस्य भावाभाव–
कर्तृत्वमुदितं; तस्यैव चासतः पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पादमारभमाणस्याभावभावकर्तृत्वमभिहितम्
सर्वमिदमनवद्यं द्रव्यपर्यायाणामन्यतरगुणमुख्यत्वेन व्याख्यानात् तथा हि–यदा जीवः पर्याय–गुणत्वेन
द्रव्यमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा नोत्पद्यते, न विनश्यति, न च क्रमवृत्त्यावर्तमानत्वात्
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गाथा २१
अन्वयार्थः– [एवम्] इसप्रकार [गुणपर्ययैः सहित] गुणपर्याय सहित [जीवः] जीव [संसरन्]
संसरण करता हुआ [भावम्] भाव, [अभावम्] अभाव, [भावाभावम्] भावाभाव [च] और
[अभावभावम्] अभावभावको [करोति] करता है।
टीकाः– यह, जीव उत्पाद, व्यय, सत्–विनाश और असत्–उत्पादका कर्तृत्व होनेकी
सिद्धिरूप उपसंहार है।
द्रव्य वास्तवमें सर्वदा अविनष्ट और अनुत्पन्न आगममें कहा है; इसलिये जीवद्रव्यको द्रव्यरूपसे
नित्यपना कहा गया। [१] देवादिपर्यायरूपसे उत्पन्न होता है इसलिये उसीको [–जीवद्रव्यको ही]
भावका [–उत्पादका] कर्तृत्व कहा गया है; [२] मनुष्यादिपर्यायरूपसे नाशको प्राप्त होता है
इसलिये उसीको अभावका [–व्ययका] कर्तृत्व कहा गया है; [३] सत् [विद्यमान] देवादिपर्यायका
नाश करता है इसलिये उसीको भावाभावका [–सत्के विनाशका] कर्तृत्व कहा गया है; और [४]
फिरसे असत् [–अविद्यमान] मनुष्यादिपर्यायका उत्पाद करता है इसलिये उसीको अभावभावका [–
असत्के उत्पादका] कर्तृत्व कहा गया है।
–यह सब निरवद्य [निर्दोष, निर्बाध, अविरुद्ध] है, क्योंकि द्रव्य और पर्यायोमेंसे एककी
गौणतासे और अन्यकी मुख्यतासे कथन किया जाता है। वह इस प्रकार हैः––