Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 22.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सत्यपर्यायजातमुच्छिनत्ति, नासदुत्पादयति यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा
प्रादुर्भवति, विनश्यति, सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति, असदुपस्थित–स्वकालमुत्पाद
यति चेति। स खल्वयं प्रसादोऽनेकान्तवादस्य यदीद्रशोऽपि विरोधो न विरोधः।।२१।।
इति षड्द्रव्यसामान्यप्ररूपणा।
जीवा पुग्गलकाया आयासं अत्थिकाइया सेसा।
अमया अत्थित्तमया कारणभुदा
हि लोगस्स।। २२।।
जीवाः पुद्गलकाया आकाशमस्तिकायौ शेषौ।
अमया अस्तित्वमयाः कारणभूता हि लोकस्य।। २२।।
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जब जीव, पर्यायकी गौणतासे और द्रव्यकी मुख्यतासे विवक्षित होता है तब वह [१] उत्पन्न
नहीं होता, [२] विनष्ट नहीं होता, [३] क्रमवृत्तिसे वर्तन नहीं करता इसलिये सत् [–विद्यमान]
पर्यायसमूकोे विनष्ट नहीं करता और [४] असत्को [–अविद्यमान पर्यायसमूहको] उत्पन्न नहीं
करता; और जब जीव द्रव्यकी गौणतासे और पर्यायकी मुख्यतासे विवक्षित होता है तब वह [१]
उपजता है, [२] विनष्ट होता है, [३] जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसे सत् [–विद्यमान]
पर्यायसमूहको विनष्ट करता है और [४] जिसका स्वकाल उपस्थित हुआ है [–आ पहुँचा है] ऐसे
असत्को [–अविद्यमान पर्यायसमूहको] उत्पन्न करता है।
वह प्रसाद वास्तवमें अनेकान्तवादका है कि ऐसा विरोध भी [वास्तवमें] विरोध नहीं है।। २१।।
इसप्रकार षड्द्रव्यकी सामान्य प्ररूपणा समाप्त हुई।
गाथा २२

अन्वयार्थः–
[जीवाः] जीव, [पुद्गलकायाः] पुद्गलकाय, [आकाशम्] आकाश और [शेषौ
अस्तिकायौ] शेष दो अस्तिकाय [अमयाः] अकृत हैं, [अस्तित्वमयाः] अस्तित्वमय हैं और [हि]
वास्तवमें [लोकस्य कारणभूताः] लोकके कारणभूत हैं।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें], सामान्यतः जिनका स्वरूप [पहले] कहा गया है ऐसे छह
द्रव्योंमेंसे पाँचको अस्तिकायपना स्थापित किया गया है।
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जीवद्रव्य, पुद्दगलकाय, नभ ने अस्तिकायो शेष बे
अणुकृतक छे, अस्तित्वमय छे, लोककारणभूत छे। २२।