कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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अत्र सामान्येनोक्तलक्षणानां षण्णां द्रव्याणां मध्यात्पश्चानामस्तिकायत्वं व्यवस्थापितम्।
अकृतत्वात् अस्तित्वमयत्वात् विचित्रात्मपरिणतिरूपस्य लोकस्य कारणत्वाच्चाभ्युपगम्यमानेषु
षट्सु दव्येषु जीवपुद्गलाकाशधर्माधर्माः प्रदेशप्रचयात्मकत्वात् पञ्चास्तिकायाः। न खलु
कालस्तदभावादस्तिकाय इति सामर्थ्यादवसीयत इति।। २२।।
सब्भावसभावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च।
परियट्टणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो।। २३।।
सद्भावस्वभावानां जीवानां तथैव पुद्गलानां च।
परिवर्तनसम्भूतः कालो नियमेन प्रज्ञप्त।। २३।।
अत्रासितकायत्वेनानुक्तस्यापि कालस्यार्थापन्नत्वं द्योतितम्।
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अकृत होनेसे, अस्तित्वमय होनेसे और अनेक प्रकारकी १अपनी परिणतिरूप लोकके कारण
होनेसे जो स्वीकार [–सम्मत] किये गये हैं ऐसे छह द्रव्योंमें जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म और
अधर्म प्रदेशप्रचयात्मक [–प्रदेशोंके समूहमय] होनेसे वे पाँच अस्तिकाय हैं। कालको
प्रदेशप्रचयात्मकपनेका अभाव होनेसे वास्तवमें अस्तिकाय नहीं हैं ऐसा [बिना–कथन किये भी]
सामर्थ्यसे निश्चित होता है।। २२।।
गाथा २३
अन्वयार्थः– [सद्भावस्वभावानाम्] सत्तास्वभाववाले [जीवानाम् तथा एव पुद्गलानाम् च] जीव
और पुद्गलोंके [परिवर्तनसम्भूतः] परिवर्तनसे सिद्ध होने वाले [कालः] ऐसा काल [नियमेन
प्रज्ञप्तः] [सर्वज्ञों द्वारा] नियमसे [निश्चयसे] उपदेश दिया गया है।
टीकाः– काल अस्तिकायरूपसे अनुक्त [–नहीं कहा गया] होने पर भी उसे अर्थपना
[पदार्थपना] सिद्ध होता है ऐसा यहाँ दर्शाया है।
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१। लोक छह द्रव्योंके अनेकविध परिणामरूप [–उत्पादव्ययध्रौव्यरूप] हैे; इसलिये छह द्रव्य सचमुच लोकके
कारण हैं।
सत्तास्वभावी जीव ने पुद्गल तणा परिणमनथी
छे सिद्धि जेनी, काल ते भाख्यो जिणंदे नियमथी । २३।