तत्परिणामान्यथानुपपतिगम्यमानत्वादनुक्तोऽपि निश्चयकालोऽ–स्तीति निश्चीयते। यस्तु
निश्चयकालपर्यायरूपो व्यवहारकालः स जीवपद्गलपरिणामेनाभि–व्यज्यमानत्वात्तदायत्त एवाभिगम्यत
एवेति।। २३।।
सद्भावमें दिखाई देता है, गति–स्थित–अवगाहपरिणामकी भाँति। [जिसप्रकार गति, स्थिति और
अवगाहरूप परिणाम धर्म, अधर्म और आकाशरूप सहकारी कारणोंके सद्भावमें होते हैं, उसी प्रकार
उत्पादव्ययध्रौव्यकी एकतारूप परिणाम सहकारी कारणके सद्भावमें होते हैं।] यह जो सहकारी
कारण सो काल है।
और जो निश्चयकालकी पर्यायरूप व्यवहारकाल वह, जीव–पुद्गलोंके परिणामसे व्यक्त [–गम्य]
होता है इसलिये अवश्य तदाश्रित ही [–जीव तथा पुद्गलके परिणामके आश्रित ही] गिना जाता है
।।२३।।
परिणामकी ही बात ली गई है।
परिणाम अर्थात् उनकी समयविशिष्ट वृत्ति। वह समयविशिष्ट वृत्ति समयको उत्पन्न करनेवाले किसी पदार्थके
बिना [–निश्चयकालके बिना] नहीं हो सकती। जिसप्रकार आकाश बिना द्रव्य अवगाहन प्राप्त नहीं कर
सकते अर्थात् उनका विस्तार [तिर्यकपना] नहीं हो सकता उसी प्रकार निश्चयकाल बिना द्रव्य परिणामको
प्राप्त नहीं हो सकते अर्थात् उनको प्रवाह [ऊर्ध्वपना] नहीं हो सकता। इस प्रकार निश्चयकालके अस्तित्व
बिना [अर्थात् निमित्तभूत कालद्रव्यके सद्भाव बिना] अन्य किसी प्रकार जीव–पुद्गलके परिणाम बन नहीं
सकते इसलिये ‘निश्चयकाल विद्यमान है’ ऐसा ज्ञात होता है– निश्चित होता है।]