कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति।। २४।।
अगुरुलघुको अमूर्तो वर्तनलक्षणश्च काल इति।। २४।।
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अन्वयार्थः– [कालः इति] काल [निश्चयकाल] [व्यपगतपञ्चवर्णरसः] पाँच वर्ण और पाँच रस रहित, [व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्शः च] दो गंध और आठ स्पर्श रहित, [अगुरुलघुकः ] अगुरुलघु, [अमूर्तः] अमूर्त [च] और [वर्तनलक्षणः] वर्तनालक्षणवाला है।
लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशमें एक–एक कालाणु [कालद्रव्य] स्थित है। वह कालाणु [कालद्रव्य] सो निश्चयकाल है। अलोकाकाशमें कालाणु [कालद्रव्य] नहीं है।
वह काल [निश्चयकाल] वर्ण–गंध–रस–स्पर्श रहित है, वर्णादि रहित होनेसे अमूर्त है और अमूर्त होनेसे सूक्ष्म, अतन्द्रियज्ञानग्राह्य है। और वह षट्गुणहानिवृद्धिसहित अगुरुलघुत्वस्वभाववाला है। कालका लक्षण वर्तनाहेतुत्व है; अर्थात् जिस प्रकार शीतऋतुमें स्वयं अध्ययनक्रिया करते हुए पुरुषको अग्नि सहकारी [–बहिरंग निमित्त] है और जिस प्रकार स्वयं घुमने की क्रिया करते हुए कुम्भारके चाकको नीचेकी कीली सहकारी है उसी प्रकार निश्चयसे स्वयमेव परिणामको प्राप्त जीव– पुद्गलादि द्रव्योंको [व्यवहारसे] कालाणुरूप निश्चयकाल बहिरंग निमित्त है।
प्रश्नः– अलोकमें कालद्रव्य नहीं है वहाँ आकाशकी परिणति किस प्रकार हो सकती है? -------------------------------------------------------------------------- श्री अमृतचद्राचार्यदेवने इस २४वीं गाथाकी टीका लिखी नहीं है इसलिए अनुवादमें अन्वयार्थके बाद तुरन्त
रसवर्णपंचक स्पर्श–अष्टक, गंधयुगल विहीन छे,
छे मूर्तिहीन, अगुरुलघुक छे, काळ वर्तनलिंग छे। २४।