कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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४९
ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंधअट्ठफासो य।
अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति।। २४।।
व्यपगतपश्चवर्णरसो व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्शश्च।
अगुरुलघुको अमूर्तो वर्तनलक्षणश्च काल इति।। २४।।
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गाथा २४
अन्वयार्थः– [कालः इति] काल [निश्चयकाल] [व्यपगतपञ्चवर्णरसः] पाँच वर्ण और पाँच रस
रहित, [व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्शः च] दो गंध और आठ स्पर्श रहित, [अगुरुलघुकः ] अगुरुलघु,
[अमूर्तः] अमूर्त [च] और [वर्तनलक्षणः] वर्तनालक्षणवाला है।
भावार्थः– यहाँ निश्चयकालका स्वरूप कहा है।
लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशमें एक–एक कालाणु [कालद्रव्य] स्थित है। वह कालाणु
[कालद्रव्य] सो निश्चयकाल है। अलोकाकाशमें कालाणु [कालद्रव्य] नहीं है।
वह काल [निश्चयकाल] वर्ण–गंध–रस–स्पर्श रहित है, वर्णादि रहित होनेसे अमूर्त है और
अमूर्त होनेसे सूक्ष्म, अतन्द्रियज्ञानग्राह्य है। और वह षट्गुणहानिवृद्धिसहित अगुरुलघुत्वस्वभाववाला
है। कालका लक्षण वर्तनाहेतुत्व है; अर्थात् जिस प्रकार शीतऋतुमें स्वयं अध्ययनक्रिया करते हुए
पुरुषको अग्नि सहकारी [–बहिरंग निमित्त] है और जिस प्रकार स्वयं घुमने की क्रिया करते हुए
कुम्भारके चाकको नीचेकी कीली सहकारी है उसी प्रकार निश्चयसे स्वयमेव परिणामको प्राप्त जीव–
पुद्गलादि द्रव्योंको [व्यवहारसे] कालाणुरूप निश्चयकाल बहिरंग निमित्त है।
प्रश्नः– अलोकमें कालद्रव्य नहीं है वहाँ आकाशकी परिणति किस प्रकार हो सकती है?
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श्री अमृतचद्राचार्यदेवने इस २४वीं गाथाकी टीका लिखी नहीं है इसलिए अनुवादमें अन्वयार्थके बाद तुरन्त
भावार्थ लिखा गया है।
रसवर्णपंचक स्पर्श–अष्टक, गंधयुगल विहीन छे,
छे मूर्तिहीन, अगुरुलघुक छे, काळ वर्तनलिंग छे। २४।