Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 25.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती।
मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति
कालो परायत्तो।। २५।।
समयो निमिषः काष्ठा कला च नाली ततो दिवारात्र।
मासर्त्वयनसंवत्सरमिति कालः परायत्त।। २५।।
अत्र व्यवहारकालस्य कथंचित्परायत्तत्वं द्योतितम्।
परमाणुप्रचलनायत्तः समयः। नयनपुटघटनायत्तो निमिषः। तत्संख्याविशेषतः काष्ठा कला नाली
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उत्तरः– जिस प्रकार लटकती हुई लम्बी डोरीको, लम्बे बाँसको या कुम्हारके चाकको एक ही
स्थान पर स्पर्श करने पर सर्वत्र चलन होता है, जिस प्रकार मनोज्ञ स्पर्शनेन्द्रियविषयका अथवा
रसनेन्द्रियविषयका शरीरके एक ही भागमें स्पर्श होने पर भी सम्पूर्ण आत्मामें सुखानुभव होता है
और जिस प्रकार सर्पदंश या व्रण [घाव] आदि शरीरके एक ही भागमें होने पर भी सम्पूर्ण आत्मामें
दुःखवेदना होती है, उसी प्रकार कालद्रव्य लोकाकाशमें ही होने पर भी सम्पूर्ण आकाशमें परिणति
होती है क्योंकि आकाश अखण्ड एक द्रव्य है।

यहाँ यह बात मुख्यतः ध्यानमें रखना चाहिये कि काल किसी द्रव्यको परिणमित नहीं करता,
सम्पूर्ण स्वतंत्रतासे स्वयमेव परिणमित होनेवाले द्रव्योंको वह बाह्यनिमित्तमात्र है ।

इस प्रकार निश्चयकालका स्वरूप दर्शाया गया।। २४।।
गाथा २५
अन्वयार्थः– [समयः] समय, [निमिषः] निमेष, [काष्ठा] काष्ठा, [कला च] कला, [नाली]
घड़ी, [ततः दिवारात्रः] अहोरात्र, [–दिवस], [मासर्त्वयनसंवत्सरम्] मास, ऋतु, अयन और वर्ष
– [इति कालः] ऐसा जो काल [अर्थात् व्यवहारकाल] [परायत्तः] वह पराश्रित है।
टीकाः– यहाँ व्यवहारकालका कथंचित् पराश्रितपना दर्शाया है।
परमाणुके गमनके आश्रित समय है; आंखके मिचनेके आश्रित निमेष है; उसकी [–निमेषकी]
अमुक संख्यासे काष्ठा, कला और घड़ी होती है; सूर्यके गमनके आश्रित अहोरात्र होता है; और
उसकी [–अहोरात्रकी] अमुक संख्यासे मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं। –ऐसा व्यवहारकाल