कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
च। गगनमणिगमनायत्तो दिवारात्रः। तत्संख्याविशेषतः मासः, ऋतुः अयनं, संवत्सरमिति। एवंविधो हि व्यवहारकालः केवलकालपर्यायमात्रत्वेनावधारयितुमशक्यत्वात् परायत्त इत्युपमीयत इति।। २५।।
पोग्गलदव्वेण विणा तम्हा कालो पड्डच्चभवो।। २६।।
पुद्गलद्रव्येण विना तस्मात्काल प्रतीत्यभवः।। २६।।
----------------------------------------------------------------------------- केवल कालकी पर्यायमात्ररूपसे अवधारना अशकय होनसे [अर्थात् परकी अपेक्षा बिना– परमाणु, आंख, सूर्य आदि पर पदार्थोकी अपेक्षा बिना–व्यवहारकालका माप निश्चित करना अशकय होनेसे] उसे ‘पराश्रित’ ऐसी उपमा दी जाती है।
भावार्थः– ‘समय’ निमित्तभूत ऐसे मंद गतिसे परिणत पुद्गल–परमाणु द्वारा प्रगट होता है– मापा जाता है [अर्थात् परमाणुको एक आकाशप्रदेशसे दूसरे अनन्तर आकाशप्रदेशमें मंदगतिसे जानेमें जो समय लगे उसे समय कहा जाता है]। ‘निमेष’ आँखके मिचनेसे प्रगट होता है [अर्थात् खुली आँखके मिचनेमें जो समय लगे उसे निमेष कहा जाता है और वह एक निमेष असंख्यात समयका होता है]। पन्द्रह निमेषका एक ‘काष्ठा’, तीस काष्ठाकी एक ‘कला’, बीससे कुछ अधिक कलाकी एक ‘घड़ी’ और दो घड़ीका एक ‘महूर्त बनता है]। ‘अहोरात्र’ सूर्यके गमनसे प्रगट होता है [और वह एक अहोरात्र तीस मुहूर्तका होता है] तीस अहोरात्रका एक ‘मास’, दो मासकी एक ‘ऋतु’ तीन ऋतुका एक ‘अयन’ और दो अयनका एक ‘वर्ष’ बनता है। – यह सब व्यवहारकाल हैे। ‘पल्योपम’, ‘सागरोपम’ आदि भी व्यवहारकालके भेद हैं।
उपरोक्त समय–निमेषादि सब वास्तवमें मात्र निश्चयकालकी ही [–कालद्रव्यकी ही] पर्यायें हैं परन्तु वे परमाणु आदि द्वारा प्रगट होती हैं इसलिये [अर्थात् पर पदार्थों द्वारा मापी सकती हैं इसलिये] उन्हें उपचारसे पराश्रित कहा जाता है।। २५।। --------------------------------------------------------------------------
‘चिर’ ‘शीध्र’ नहि मात्रा बिना, मात्रा नहीं पुद्गल बिना,
ते कारणे पर–आश्रये उत्पन्न भाख्यो काल आ। २६।