Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 26.

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
५१
च। गगनमणिगमनायत्तो दिवारात्रः। तत्संख्याविशेषतः मासः, ऋतुः अयनं, संवत्सरमिति।
एवंविधो हि व्यवहारकालः केवलकालपर्यायमात्रत्वेनावधारयितुमशक्यत्वात् परायत्त इत्युपमीयत
इति।। २५।।
णत्थि चिरं वा खिप्पं मत्तारहिदं तु सा वि खलु मत्ता।
पोग्गलदव्वेण
विणा तम्हा कालो पड्डच्चभवो।। २६।।
नास्ति चिरं वा क्षिप्रं मात्रारहितं तु सापि खलु मात्रा।
पुद्गलद्रव्येण विना तस्मात्काल प्रतीत्यभवः।। २६।।
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केवल कालकी पर्यायमात्ररूपसे अवधारना अशकय होनसे [अर्थात् परकी अपेक्षा बिना– परमाणु,
आंख, सूर्य आदि पर पदार्थोकी अपेक्षा बिना–व्यवहारकालका माप निश्चित करना अशकय होनेसे]
उसे ‘पराश्रित’ ऐसी उपमा दी जाती है।
भावार्थः– ‘समय’ निमित्तभूत ऐसे मंद गतिसे परिणत पुद्गल–परमाणु द्वारा प्रगट होता है–
मापा जाता है [अर्थात् परमाणुको एक आकाशप्रदेशसे दूसरे अनन्तर आकाशप्रदेशमें मंदगतिसे जानेमें
जो समय लगे उसे समय कहा जाता है]। ‘निमेष’ आँखके मिचनेसे प्रगट होता है [अर्थात् खुली
आँखके मिचनेमें जो समय लगे उसे निमेष कहा जाता है और वह एक निमेष असंख्यात समयका
होता है]। पन्द्रह निमेषका एक ‘काष्ठा’, तीस काष्ठाकी एक ‘कला’, बीससे कुछ अधिक कलाकी
एक ‘घड़ी’ और दो घड़ीका एक ‘महूर्त बनता है]। ‘अहोरात्र’ सूर्यके गमनसे प्रगट होता है [और
वह एक अहोरात्र तीस मुहूर्तका होता है] तीस अहोरात्रका एक ‘मास’, दो मासकी एक ‘ऋतु’
तीन ऋतुका एक ‘अयन’ और दो अयनका एक ‘वर्ष’ बनता है। – यह सब व्यवहारकाल हैे।
‘पल्योपम’, ‘सागरोपम’ आदि भी व्यवहारकालके भेद हैं।
उपरोक्त समय–निमेषादि सब वास्तवमें मात्र निश्चयकालकी ही [–कालद्रव्यकी ही] पर्यायें हैं
परन्तु वे परमाणु आदि द्वारा प्रगट होती हैं इसलिये [अर्थात् पर पदार्थों द्वारा मापी सकती हैं
इसलिये] उन्हें उपचारसे पराश्रित कहा जाता है।। २५।।
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‘चिर’ ‘शीध्र’ नहि मात्रा बिना, मात्रा नहीं पुद्गल बिना,
ते कारणे पर–आश्रये उत्पन्न भाख्यो काल आ। २६।