उन्होंने स्पष्टता की है।
गुरुदेवश्रीकी प्रेरणा झेलकर अत्यन्त परिश्रमपूर्वक ऐसा सुन्दर अनुवाद कर देनेके बदलेमें संस्था
उनका जितना उपकार माने उतना कम है। यह अनुवाद अमूल्य है, क्योंकि मात्र, कुन्दकुन्दभारती
एवं गुरुदेवके प्रति परम भक्तिसे प्रेरित होकर अपनी आध्यात्मरसिकता द्वारा किये गये इस
अनुवादका मुल्य कैसे आँका जाये? इस अनुवादके महान कार्यके बदलेमें उनको अभिनन्दनके रूपमें
कुछ कीमती भेंट देनेकी संस्थाको अतीव उत्कंठा थी, और उसे स्वीकार करनेके लिये उनको
बारम्बार आग्रहयुक्त अनुरोधभी किया गया था, परन्तु उन्होंने उसे स्वीकार करनेके लिये स्पष्ट
इनकार कर दिया था। उनकी यह निस्पृहता भी अत्यंन्त प्रशंसनीय है। पहले प्रवचनसारके
अनुवादके समय जब उनको भेंटकी स्वीकृतिके लिये अनुरोध किया गया था तब उन्होंने
वैराग्यपूर्वक ऐसा प्रत्युत्तर दिया था कि ‘‘मेरा आत्मा इस संसार परिभ्रमणसे छूटे इतना ही पर्याप्त,
––दूसरा मुझे कुछ बदला नहीं चाहिये’’। उपोद्घातमें भी अपनी भावना व्यक्त करते हुए वे लिखते
हैं किः ‘‘ यह अनुवाद मैने श्रीपंचास्तिकायसंग्रह प्रति भक्तिसे और पूज्य गुरुदेवकी प्रेरणासे प्रेरित
होकर, निज कल्याणके लिये, भवभयसे डरते डरते किया है’’।
शास्त्रभंडार’ ईडर, तथा ‘भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टिट्यूट’ पूनाकी ओरसे हमें पांडुलेख
मिले थे, तदर्थ उन दोनों संस्थाओंके प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। श्री मगनालालजी जैनने श्री
पंचास्तिकायसंग्रह के गुजराती अनुवाद के गद्यांश का हन्दी रूपान्तर, ब्र० श्री चन्दूलालभाईने प्रस्तुत
संस्करण का ‘प्रूफ’ संशोधन तथा ‘कहान मुद्रणालय’ के मालिक श्री ज्ञानचन्दजी जैनने
उत्साहपूर्वक इस संस्करण का सुन्दर मुद्रण कर दया है, तदर्थ उनके प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करते
हैं।
मुमुक्षु जीव अति बहुमानपूर्वक सद्गुरुगम से इस परमागम का अभ्यास करके उसके गहन
भावोंको आत्मसात् करें और शास्त्रके तात्पर्यभूत वीतरागभावको प्राप्त करें–––यही भावना।