कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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अत्र मुक्तावस्थस्यात्मनो निरुपाधिस्वरूपमुक्तम्।
आत्मा हि परद्रव्यत्वात्कर्मरजसा साकल्येन यस्मिन्नेव क्षणे मुच्यते तस्मि–
न्नेवोर्ध्वगमनस्वभावत्वाल्लोकांतमधिगम्य परतो गतिहेतोरभावादवस्थितः केवलज्ञानदर्शनाभ्यां
स्वरूपभूतत्वादमुक्तोऽनंतमतीन्द्रियं सुखमनुभवति। मुक्तस्य चास्य भावप्राणधारणलक्षणं जीवत्वं,
चिद्रूपलक्षणं चेतयितृत्वं, चित्परिणामलक्षण उपयोगः, निर्वर्तितसमस्ताधिकारशक्तिमात्रं प्रभुत्वं,
समस्तवस्त्वसाधारणस्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्वं, स्वरूपभूतस्वातन्क्र्यलक्षणसुखोपलम्भ–रूपं
भोक्तृत्वं, अतीतानंतरशरीरपरिमाणावगाहपरिणामरूपं देहमात्रत्वं, उपाधिसंबंधविविक्त–
मात्यन्तिकममूर्तत्वम्। कर्मसंयुक्तत्वं तु द्रव्यभावकर्मविप्रमोक्षान्न भवत्येव। द्रव्यकर्माणि हि पुद्गलस्कंधा
भावकर्माणि तु
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टीकाः– यहाँ मुक्तावस्थावाले आत्माका निरुपाधि स्वरूप कहा है।
आत्मा [कर्मरजके] परद्रव्यपनेके कारण कर्मरजसे सम्पूर्णरूपसे जिस क्षण छूटता है [–मुक्त
होता है], उसी क्षण [अपने] ऊर्ध्वगमनस्वभावके कारण लोकके अन्तको पाकर आगे गतिहेतुका
अभाव होनेसे [वहाँ] स्थिर रहता हुआ, केवलज्ञान और केवलदर्शन [निज] स्वरूपभूत होनेके
कारण उनसे न छूटता हुआ अनन्त अतीन्द्रिय सुखका अनुभव करता है। उस मुक्त आत्माको,
भावप्राणधारण जिसका लक्षण [–स्वरूप] है ऐसा ‘जीवत्व’ होता है; चिद्रूप जिसका लक्षण [–
स्वरूप] है ऐसा ‘चेतयितृत्व’ होता है ; चित्परिणाम जिसका लक्षण [–स्वरूप] है ऐसा ‘उपयोग’
होता है; प्राप्त किये हुए समस्त [आत्मिक] अधिकारोंकी १शक्तिमात्ररूप ‘प्रभुत्व’ होता है; समस्त
वस्तुओंसे असाधारण ऐसे स्वरूपकी निष्पत्तिमात्ररूप [–निज स्वरूपको रचनेरूप] ‘कर्तृत्व’ होता है;
स्वरूपभूत स्वातंक्र्य जिसका लक्षण [–स्वरूप] है ऐसे सुखकी उपलब्धिरूप ‘भोक्तृत्व’ होता है;
अतीत अनन्तर [–अन्तिम] शरीर प्रमाण अवगाहपरिणामरूप ‘२देहप्रमाणपना’ होता है; और
उपाधिके सम्बन्धसे ३विविक्त ऐसा आत्यंतिक [सर्वथा] ‘अमूर्तपना’ होता है। [मुक्त आत्माको]
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१। शक्ति = सामर्थ्य; ईशत्व। [मुक्त आत्मा समस्त आत्मिक अधिकारोंको भोगनेमें अर्थात् उनका उपयोग करनेमें
स्वयं समर्थ है इसलिये वह प्रभु है।]
२। मुक्त आत्माकी अवगाहना चरमशरीरप्रमाण होती है इसलिये उस अन्तिम शरीरकी अपेक्षा लेकर उनको
‘देहप्रमाणपना’ कहा जा सकता है।
३। विविक्त = भिन्न; रहित।