Panchastikay Sangrah (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 58 of 264
PDF/HTML Page 87 of 293

 

background image
५८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
चिद्विवर्ताः। विवर्तते हि चिच्छक्तिरनादिज्ञानावरणादि–कर्मसंपर्ककूणितप्रचारा परिच्छेद्यस्य
विश्वस्यैकदेशेषु क्रमेण व्याप्रियमाणा। यदा तु ज्ञानावरणादिकर्मसंपर्कः प्रणश्यति तदा परिच्छेद्यस्य
विश्वस्य
सर्वदेशेषु युगपद्वयापृता कथंचित्कौटस्थ्यमवाप्य विषयांतरमनाप्नुवंती न विवर्तते। स खल्वेष
निश्चितः सर्वज्ञसर्वदर्शित्वोपलम्भः। अयमेव द्रव्यकर्मनिबंधनभूतानां भावकर्मणां कर्तृत्वोच्छेदः। अयमेव
-----------------------------------------------------------------------------
कर्मसंयुक्तपना’ तो होता ही नहीं , क्योंकि द्रव्यकर्मो और भावकर्मोसे विमुक्ति हुई है। द्रव्यकर्म वे
पुद्गलस्कंध है और भावकर्म वे चिद्विवर्त हैं। चित्शक्ति अनादि ज्ञानावरणादिकर्मोंके सम्पर्कसे
[सम्बन्धसे] संकुचित व्यापारवाली होनेके कारण ज्ञेयभूत विश्वके [–समस्त पदार्थोंके] एक–एक
देशमें क्रमशः व्यापार करती हुई विवर्तनको प्राप्त होती है। किन्तु जब ज्ञानावरणादिकर्मोंका सम्पर्क
विनष्ट होता है, तब
वह ज्ञेयभूत विश्वके सर्व देशोंमें युगपद् व्यापार करती हुई कथंचित् कूटस्थ
होकर, अन्य विषयको प्राप्त न होती हुई विवर्तन नहीं करती। वह यह [चित्शक्तिके विवर्तनका
अभाव], वास्तवमें निश्चित [–नियत, अचल] सर्वज्ञपनेकी और सर्वदर्शीपनेकी उपलब्धि है। यही,
द्रव्यकर्मोंके निमित्तभूत भावकर्मोंके कर्तृत्वका विनाश है; यही, विकारपूर्वक अनुभवके अभावके कारण
औपाधिक सुखदुःखपरिणामोंके भोक्तृत्वका विनाश है; और यही, अनादि विवर्तनके खेदके विनाशसे
--------------------------------------------------------------------------
१। पूर्व सूत्रमें कहे हुए ‘जीवत्व’ आदि नव विशेषोमेंसे प्रथम आठ विशेष मुक्तात्माको भी यथासंभव होते हैं, मात्र
एक ‘कर्मसंयुक्तपना’ नहीं होता।

२। चिद्विवर्त = चैतन्यका परिवर्तन अर्थात् चैतन्यका एक विषयको छोड़़कर अन्य विषयको जाननेरूप बदलना;
चित्शक्तिका अन्य अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित होना।

३। कूटस्थ = सर्वकाल एक रूप रहनेवाली; अचल। [ज्ञानावरणादिकर्मोका सम्बन्ध नष्ट होने पर कहीं चित्शक्ति
सर्वथा अपरिणामी नहीं हो जाती; किन्तु वह अन्य–अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित नहीं होती–सर्वदा तीनों
कालके समस्त ज्ञेयोंको जानती रहती है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]

४। औपाधिक = द्रव्यकर्मरूप उपाधिके साथ सम्बन्धवाले; जिनमें द्रव्यकर्मरूपी उपाधि निमित्त होती है ऐसे;
अस्वाभाविक; वैभाविक; विकारी।