आत्मा हि ज्ञानदर्शनसुखस्वभावः संसारावस्थायामनादिकर्मकॢेशसंकोचितात्मशक्तिः
सुखमनुभवति च। यदा त्वस्य कर्मकॢेशाः सामस्त्येन प्रणश्यन्ति, तदाऽनर्गलासंकुचितात्म–
शक्तिरसहायः स्वयमेव युगपत्समग्रं जानाति पश्यति, स्वप्रत्ययममूर्तसंबद्धमव्याबाधमनंतं सुख
मनुभवति च। ततः सिद्धस्य समस्तं स्वयमेव जानतः पश्यतः, सुखमनुभवतश्च स्वं, न परेण
प्रयोजनमिति।। २९।।
कालमें सर्वज्ञ नहीं है’ ऐसा कहो, तो वह संमत ही है। किन्तु यदि ‘ तीनों लोकमें और तीनों
कालमें सर्वज्ञ नहीं है ’ ऐसा कहो तो हम पूछते हैं कि वह तुमने कैसे जाना? य्दि तीनों लोकको
और तीनों कालको सर्वज्ञ रहित तुमने देख–जान लिया तो तुम्हीं सर्वज्ञ हो गये, क्योंकि जो तीन
लोक और तीन कालको जाने वही सर्वज्ञ है। और यदि सर्वज्ञ रहित तीनों लोक और तीनों कालको
तुमने नहीं देखा–जाना है तो फिर ‘ तीन लोक और तीन कालमें सर्वज्ञ नहीं है ’ ऐसा तुम कैसे
कह सकते हो? इस प्रकार सिद्ध होता है कि तुम्हारा किया हुआ सर्वज्ञका निषेध योग्य नहीं है।
उष्णतारूप परिणमित अग्नि समस्त दाह्यको जलाती है, उसी प्रकार परिपूर्ण ज्ञानरूप परिणमित