कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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६१
पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं।
सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाउ उस्सासो।। ३०।।
प्राणैश्चतुर्भिर्जीवति जीविष्यति यः खलु जीवितः पूर्वम्।
स जीवः प्राणाः पुनर्बलमिन्द्रियमायुरुच्छवासः।। ३०।।
जीवत्वगुणव्याख्येयम्।
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आत्मा समस्त ज्ञेयको जानता है। ऐसी सर्वज्ञदशा इस क्षेत्रमें इस कालमें [अर्थात् इस क्षेत्रमें इस
कालमें जन्म लेने वाले जीवोंको ] प्राप्त नहीं होती तथापि सर्वज्ञत्वशक्तिवाले निज आत्माका स्पष्ट
अनुभव इस क्षेत्रमें इस कालमें भी हो सकता है।
यह शास्त्र अध्यात्म शास्त्र होनेसे यहाँ सर्वज्ञसिद्धिका विस्तार नहीं किया गया है; जिज्ञासुको
वह अन्य शास्त्रोमें देख लेना चाहिये।। २९।।
गाथा ३०
अन्वयार्थः– [यः खलु] जो [चतुर्भिः प्राणैः] चार प्राणोंसे [जीवति] जीता है, [जीविष्यति]
जियेगा और [जीवितः पूर्वम्] पूर्वकालमें जीता था, [सः जीवः] वह जीव है; [पुनः प्राणाः] और
प्राण [इन्द्रियम्] इन्द्रिय, [बलम्] बल, [आयुः] आयु तथा [उच्छवासः] उच्छ्वास है।
टीकाः– यह, जीवत्वगुणकी व्याख्या है।
प्राण इन्द्रिय, बल, आयु और उच्छ्वासस्वरूप है। उनमें [–प्राणोंमें], चित्सामान्यरूप
अन्वयवाले वे भावप्राण है और पुद्गलसामान्यरूप अन्वयवाले वे द्रव्यप्राण हैं। उन दोनों प्राणोंको
त्रिकाल अच्छिन्न–संतानरूपसे [अटूट धारासे] धारण करता है इसलिये संसारीको जीवत्व है।
मुक्तको [सिद्धको] तो केवल भावप्राण ही धारण होनेसे जीवत्व है ऐसा समझना।। ३०।।
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जिन प्राणोंमें चित्सामान्यरूप अन्वय होता है वे भावप्राण हैं अर्थात् जिन प्राणोंमें सदैव ‘चित्सामान्य,
चित्सामान्य, चित्सामान्य’ ऐसी एकरूपता–सद्रशता होती है वेे भावप्राण हैं। [जिन प्राणोंमें सदैव
‘पुद्गलसामान्य, पुद्गलसामान्य, पुद्गलसामान्य ’ ऐसी एकरूपता–सद्रशता होती है वे द्रव्यप्राण हैं।]
जे चार प्राणे जीवतो पूर्वे, जीवे छे, जीवशे,
ते जीव छे; ने प्राण इन्द्रिय–आयु–बल–उच्छ्वास छे। ३०।