Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 31-32.

< Previous Page   Next Page >


Page 62 of 264
PDF/HTML Page 91 of 293

 

background image
६२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इन्द्रियबलायुरुच्छवासलक्षणा हि प्राणाः। तेषु चित्सामान्यान्वयिनो भावप्राणाः,
पुद्गलसामान्यान्वयिनो द्रव्यप्राणाः। तेषामुभयेषामपि त्रिष्वपि कालेष्वनवच्छिन्नसंतानत्वेन
धारणात्संसारिणो जीवत्वम्। मुक्तस्य तु केवलानामेव भावप्राणानां धारणात्तदवसेयमिति।। ३०।।
अगुरुलहुगा अणंता तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे।
देसेहिं असंखादा सिय लोगं सव्वमावण्णा।। ३१।।
केचित्तु अणावण्णा मिच्छादंसणकसायजोगजुदा।
विजुदा य तेहिं बहुगा
सिद्धा संसारिणो जीवा।। ३२।।
अगुरुलघुका अनंतास्तैरनंतैः परिणताः सर्वे।
देशैरसंख्याताः स्याल्लोकं सर्वमापन्नाः।। ३१।।
केचित्तु अनापन्ना मिथ्यादर्शनकषाययोगयुताः।
वियुताश्च तैर्बहवः सिद्धाः संसारिणो जीवाः।। ३२।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ३१–३२
अन्वयार्थः– [अनंताः अगुरुलघुकाः] अनन्त ऐसे जो अगुरुलघु [गुण, अंश] [तैः अनंतैः] उन
अनन्त अगुरुलघु [गुण] रूपसे [सर्वे] सर्व जीव [परिणताः] परिणत हैं; [देशैः असंख्याताः] वे
असंख्यात प्रदेशवाले हैं। [स्यात् सर्वम् लोकम् आपन्नाः] कतिपय कथंचित् समस्त लोकको प्राप्त होते
हैं [केचित् तु] और कतिपय [अनापन्नाः] अप्राप्त होते हैं। [बहवः जीवाः] अनेक [–अनन्त] जीव
[मिथ्यादर्शनकषाययोगयुताः] मिथ्यादर्शन–कषाय–योगसहित [संसारिणः] संसारी हैं [च] और
अनेक [–अनन्त जीव] [तैः वियुताः] मिथ्यादर्शन–कषाय–योगरहित [सिद्धाः] सिद्ध हैं।
--------------------------------------------------------------------------

जे अगुरुलघुक अनन्त ते–रूप सर्व जीवो परिणमे;
सौना प्रदेश असंख्य; कतिपय लोकव्यापी होय छे; ३१।
अव्यापी छे कतिपय; वली निर्दोष सिद्ध जीवो घणा;
मिथ्यात्व–योग–कषाययुत संसारी जीव बहु जाणवा। ३२।