कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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अत्र जीवानां स्वाभाविकं प्रमाणं मुक्तामुक्तविभागश्चोक्तः।
जीवा ह्यविभागैकद्रव्यत्वाल्लोकप्रमाणैकप्रदेशाः। अगुरुलघवो गुणास्तु तेषामगुरुलघु–
त्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिबंधनस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदाः प्रतिसमय–
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टीकाः– यहाँ जीवोंका स्वाभाविक १प्रमाण तथा उनका मुक्त और अमुक्त ऐसा विभाग कहा है।
जीव वास्तवमें अविभागी–एकद्रव्यपनेके कारण लोकप्रमाण–एकप्रदेशवाले हैं। उनके [–
जीवोंके] २अगुरुलघुगुण–अगुरुलघुत्व नामका जो स्वरूपप्रतिष्ठत्वके कारणभूत स्वभाव उसका
३अविभाग परिच्छेद–प्रतिसमय होने वाली ४षट्स्थानपतित वृद्धिहानिवाले अनन्त हैं; और [उनके
अर्थात् जीवोंके] प्रदेश– जो कि अविभाग परमाणु जितने मापवाले सूक्ष्म अंशरूप हैं वे–असंख्य हैं।
ऐसे उन जीवोंमें कतिपय कथंचित् [केवलसमुद्घातके कारण] लोकपूरण–अवस्थाके प्रकार द्वारा
समस्त लोकमें व्याप्त होते हैं और कतिपय समस्त लोकमें अव्याप्त होते हैं। और उन जीवोंमें जो
अनादि
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१। प्रमाण = माप; परिमाण। [जीवके अगुरुलघुत्वस्वभावके छोटेसे छोटे अंश [अविभाग परिच्छेद] करने पर
स्वभावसे ही सदैव अनन्त अंश होते हैं, इसलिये जीव सदैव ऐसे [षट्गुणवृद्धिहानियुक्त] अनन्त अंशों
जितना हैं। और जीवके स्वक्षेत्रके छोटेसे छोटे अंश करने पर स्वभावसे ही सदैव असंख्य अंश होते हैं,
इसलिये जीव सदैव ऐसे असंख्य अंशों जितना है।]
२। गुण = अंश; अविभाग परिच्छेद। [जीवमें अगुरुलघुत्व नामका स्वभाव है। वह स्वभाव जीवको
स्वरूपप्रतिष्ठत्वके [अर्थात् स्वरूपमें रहनेके] कारणभूत है। उसके अविभाग परिच्छेदोंको यहाँ अगुरुलघु गुण
[–अंश] कहे हैं।]
३। किसी गुणमें [अर्थात् गुणकी पर्यायमें] अंशकल्पना की जानेपर, उसका जो छोटेसे छोटा [जघन्य मात्रारूप,
निरंश] अंश होता हैे उसे उस गुणका [अर्थात् गुणकी पर्यायका] अविभाग परिच्छेद कहा जाता है।
४। षट्स्थानपतित वृद्धिहानि = छह स्थानमें समावेश पानेवाली वृद्धिहानि; षट्गुण वृद्धिहानि।
[अगुरुलघुत्वस्वभावकेे अनन्त अंशोमें स्वभावसे ही प्रतिसमय षट्गुण वृद्धिहानि होती रहती है।]