Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 16-24 (Adhikar 2).

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दव्वइं इत्यादि दव्वइं द्रव्याणि जाणइ जानाति कथंभूतानि जहठियइं यथास्थितानि
वीतरागस्वसंवेदनलक्षणस्य निश्चयसम्यग्ज्ञानस्य परंपरया कारणभूतेन परमागमज्ञानेन
परिच्छिनत्तीति
न केवलं परिच्छिनत्ति तह तथैव जगि इह जगति मण्णइ मन्यते
निजात्मद्रव्यमेवोपादेयमिति रुचिरूपं यन्निश्चयसम्यक्त्वं तस्य परंपरया कारणभूतेन‘‘मूढत्रयं
मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः’’ इति
निर्दोष श्रद्धान करे, [स एव ] वही [आत्मनः संबंधी ] आत्माका [अविचलः भावः ]
चलमलिनावगाढ दोष रहित निश्चल भाव है, [स एव ] वही आत्मभाव [दर्शनं ] सम्यक्दर्शन
है
भावार्थ :यह जगत् छह द्रव्यमयी है, सो इन द्रव्योंको अच्छी तरह जानकर
श्रद्धान करे, जिसमें संदेह नहीं वह सम्यग्दर्शन है, यह सम्यग्दर्शन आत्माका निज स्वभाव
है
वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदन निश्चयसम्यग्ज्ञान उसका परम्पराय कारण जो परमागमका
ज्ञान उसे अच्छी तरह जान, और मनमें मानें, यह निश्चय करे कि इन सब द्रव्योंमें निज
आत्मद्रव्य ही ध्यावने योग्य है, ऐसा रुचिरूप जो निश्चयसम्यक्त्व है, उसका परम्परायकारण
व्यवहारसम्यक्त्व देव-गुरु-धर्मकी श्रद्धा उसे स्वीकार करे
व्यवहारसम्यक्त्वके पच्चीस दोष
हैं, उनको छोड़े उन पच्चीसको ‘‘मूढ़त्रयं’’ इत्यादि श्लोकमें कहा है इसका अर्थ ऐसा
है कि जहाँ देव-कुदेवका विचार नहीं है, वह तो देवमूढ़, जहाँ सुगुरु-कुगुरुका विचार नहीं
भावार्थद्रव्योने जाणे छेवीतराग स्वसंवेदन जेनुं स्वरूप छे एवा निश्चय
सम्यग्ज्ञानना परंपराए कारणभूत परमागमना ज्ञानथी आ जगतमां यथास्थित द्रव्योनुं
परिच्छेदन करे छे, मात्र परिच्छेदन करे छे एटलुं ज नहि पण, ‘निजआत्मद्रव्य ज
उपादेय छे’ एवी रुचिरूप जे निश्चयसम्यक्त्व छे तेनी परंपराए कारणभूत एवा
‘‘मूढत्रयं
मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषा पंचविंशतिः’’ (श्री सोमदेवकृत
यशस्तिलक पृष्ठ १२४) (अर्थत्रण मूढता, आठ मद, छ अनायतन, आठ शंकादि
अंगोए प्रमाणे सम्यग्दर्शनना पच्चीश दोष छे.) एम श्लोकमां कह्या प्रमाणे सम्यक्त्वना
१. त्रण मूढतादेवमूढता, गुरुमूढता, धर्ममूढता.
२. आठ मदजातिमद, कुळमद, धनमद, तपमद, रूपमद, बळमद, विद्यामद, राजमद.
३. छ अनायतनकुदेव, कुगुरु अने कुधर्मनी अने ए त्रणेना आराधकोनी प्रशंसा.
४. आठ अंगोशंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढता, परदोष-कथन, अस्थिरकरण, साधर्मीओ प्रत्ये प्रेम न
राखवो, अप्रभावना.
अधिकार-२ः दोहा-१५ ]परमात्मप्रकाशः [ २२७

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श्लोककथितपञ्चविंशतिसम्यक्त्वमलत्यागेन श्रद्दधातीति एवं द्रव्याणि जानाति श्रद्दधाति
कोऽसौ अप्पहं केरउ भावडउ आत्मनः संबंधिभावः परिणामः किंविशिष्टो भावः अविचल
अविचलोऽपि चलमलिनागाढदोषरहितः दंसणु दर्शनं सम्यक्त्वं भवतीति क एव सो जि
एव पूर्वोक्तो जीवभाव इति अयमत्र भावार्थः इदमेव सम्यक्त्वं चिन्तामणिरिदमेव कल्पवृक्ष
इदमेव कामधेनुरिति मत्वा भोगाकांक्षास्वरूपादिसमस्तविकल्पजालं वर्जनीयमिति तथा
चोक्त म्‘‘हस्ते चिन्तामणिर्यस्य गृहे यस्य सुरद्रुमः कामधेनुर्धने यस्य तस्य का प्रार्थना
परा ।।’’ ।।१५।।
है, वह गुरुमूढ़, जहाँ धर्म-कुधर्मका विचार नहीं है, वह धर्ममूढ़ ये तीन मूढ़ता; और
जातिमद, कुलमद, धनमद, रूपमद, तपमद, बलमद, विद्यामद, राजमद ये आठ मद
कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, इनकी और इनके आराधकोंकी जो प्रशंसा वह छह अनायतन और
निःशंकितादि आठ अंगोंसे विपरीत शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़ता, परदोष
कथन,
अथिरकरण, साधर्मियोंसे स्नेह नहीं रखना, और जिनधर्मकी प्रभावना नहीं करना, ये शंकादि
आठ मल, इसप्रकार सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं, इन दोषोंको छोड़कर तत्त्वोंकी श्रद्धा
करे, वह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है
जहाँ अस्थिर बुद्धि नहीं है, और परिणामोंकी
मलिनता नहीं, और शिथिलता नहीं, वह सम्यक्त्व है यह सम्यग्दर्शन ही कल्पवृक्ष,
कामधेनु चिंतामणि है, ऐसा जानकर भोगोंकी वाँछारूप जो विकल्प उनको छोड़कर
सम्यक्त्वका ग्रहण करना चाहिये
ऐसा कहा है ‘हस्ते’ इत्यादि जिसके हाथमें चिन्तामणि
है, धनमें कामधेनु है, और जिसके घरमें कल्पवृक्ष है, उसके अन्य क्या प्रार्थनाकी
आवश्यकता है ? कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिंतामणि तो कहने मात्र हैं, सम्यक्त्व ही कल्पवृक्ष,
कामधेनु, चिंतामणि है, ऐसा जानना
।।१५।।
पचीस मलना त्याग वडे द्रव्योनी श्रद्धा करे छे. आ रीते द्रव्योने आत्मानो अविचळ
चळ, मळ, अगाढ दोष रहित परिणाम
पूर्वोक्त जीवभावजाणे छे, श्रद्धे छे ते
सम्यक्त्व छे.
अहीं, आ भावार्थ छे के आ ज सम्यक्त्व चिंतामणि छे, आ ज कल्पवृक्ष छे,
आ ज कामधेनु छे एम जाणीने भोग, आकांक्षा स्वरूपथी मांडीने समस्त विकल्प जाळने
छोडवा योग्य छे. कह्युं पण छे के
‘‘हस्ते चिंतामणिर्यस्य गृहे यस्य सुरद्रुमः कामधेनुर्धने यस्य
तस्य का प्रार्थना परा ।।’’ (अर्थजेना हाथमां चिंतामणिरत्न छे, जेने घेर कल्पवृक्ष छे,
जेना धनमां कामधेनु छे तेने अन्य प्रार्थना करवानी शी जरूर छे?) १५.
२२८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१५

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अथ यै षड्द्रव्यैः सम्यक्त्वविषयभूतैस्त्रिभुवनं भृतं तिष्ठति तानीदृक् जानीहीत्यभिप्रायं
मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं कथयति
१४२) दव्वइँ जाणहि ताइँ छह तिहुयणु भरियउ जेहिँ
आइ-विणास-विवज्जियहिँ णाणिहि पभणियएहिँ ।।१६।।
द्रव्याणि जानीहि तानि षट् त्रिभुवनं भृतं यैः
आदिविनाशविवर्जितैः ज्ञानिभिः प्रभणितैः ।।१६।।
दव्वइं इत्यादि दव्वइं द्रव्याणि जाणहि त्वं हे प्रभाकरभट्ट ताइं तानि
परमागमप्रसिद्धानि कतिसंख्योपेतानि छह षडेव यैः द्रव्यैः किं कृतम् तिहुयणु भरियउ
त्रिभुवनं भृतम् जेहिं यैः कर्तृभूतैः पुनरपि किंविशिष्टैः आइ-विणास-विवज्जयहिं
द्रव्यार्थिकनयेनादिविनाशविवर्जितैः पुनरपि कथंभूतैः णाणिहि पभणियएहिं ज्ञानिभिः प्रभणितैः
कथितैश्चेति अयमत्राभिप्रायः एतैः षड्भिर्द्रव्यैर्निष्पन्नोऽयं लोको न चान्यः कोऽपि लोकस्य
हर्ता कर्ता रक्षको वास्तीति किं च यद्यपि षड्द्रव्याणि व्यवहारसम्यक्त्वविषयभूतानि भवन्ति
आगे सम्यक्त्वके कारण जो छह द्रव्य हैं, उनसे यह तीनलोक भरा हुआ है, उनको
यथार्थ जानो, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर यह गाथासूत्र कहते हैं
गाथा१६
अन्वयार्थ :हे प्रभाकरभट्ट, तू [तानि षड्द्रव्याणि ] उन छहों द्रव्योंको [जानीहि ]
जान, [यैः ] जिन द्रव्योंसे [त्रिभुवनं भृतं ] यह तीन लोक भर रहा है, वे छह द्रव्य [ज्ञानिभिः ]
ज्ञानियोंने [आदिविनाशविवर्जितैः ] आदि अंतकर रहित द्रव्यार्थिकनयसे [प्रभणितैः ] कहे हैं
भावार्थ :वह लोक छह द्रव्योंसे भरा है, अनादिनिधन है, इस लोकका आदि अंत
नहीं है, तथा इसका कर्ता, हर्ता व रक्षक कोई नहीं है यद्यपि ये छह द्रव्य व्यवहारसम्यक्त्वके
हवे, सम्यक्त्वना विषयभूत जे छ द्रव्यो त्रण जगतमां भर्यां पड्यां छे तेमने एवा
ज (एवा ज स्वरूपे) जाणो, एवो अभिप्राय मनमां राखीने आ गाथा-सूत्र कहे छेः
भावार्थआ लोक आ छ द्रव्योथी बनेलो छे, पण बीजो कोई लोकनो कर्ता, हर्ता
के रक्षक नथी.
वळी, व्यवहारसम्यक्त्वना विषयभूत छ द्रव्यो छे तोपण शुद्धनिश्चयनयथी शुद्धात्मानी
अनुभूतिरूप वीतराग सम्यक्त्वनो विषय तो नित्यानंद जेनो एक स्वभाव छे एवो
अधिकार-२ः दोहा-१६ ]परमात्मप्रकाशः [ २२९

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तथापि शुद्धनिश्चयेन शुद्धात्मानुभूति रूपस्य वीतरागसम्यक्त्वस्य नित्यानन्दैकस्वभावो
निजशुद्धात्मैव विषयो भवतीति
।।१६।।
अथ तेषामेव षड्द्रव्याणां संज्ञां कथयति चेतनाचेतनविभागं च कथयति
१४३) जीउ सचेयणु दव्वु मुणि पंच अचेयण अण्ण
पोग्गलु धम्माहम्मु णहु कालेँ सहिया भिण्ण ।।१७।।
जीवः सचेतनं द्रव्यं मन्यस्व पञ्च अचेतनानि अन्यानि
पुद्गलः धर्माधर्मौ नभः कालेन सहितानि भिन्नानि ।।१७।।
जीउ इत्यादि जीउ सचेयणु दव्वु चिदानन्दैकस्वभावो जीवश्चेतनाद्रव्यं भवति मुणि
मन्यस्व जानीहि त्वम् पंच अचेयण पञ्चाचेतनानि अण्ण जीवादन्यानि तानि कानि
कारण हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतरागसम्यक्त्वका कारण नित्य आनंद
स्वभाव निज शुद्धात्मा ही है
।।१६।।
आगे उन छह द्रव्योंके नाम कहते हैं
गाथा१७
अन्वयार्थ :हे शिष्य, तू [जीवः सचेतनं द्रव्यं ] जीव चेतनद्रव्य है, ऐसा [मन्यस्व ]
जान, [अन्यानि ] और बाकी [पुद्गलः धर्माधर्मौ ] पुद्गल धर्म, अधर्म, [नभः ] आकाश
[कालेन सहिता ] और काल सहित जो [पंच ] पाँच हैं, वे [अचेतनानि ] अचेतन हैं और
[अन्यानि ] जीवसे भिन्न हैं, तथा ये सब [भिन्नानि ] अपने
अपने लक्षणोंसे आपसमें भिन्न
(जुदा-जुदा) हैं, काल सहित छह द्रव्य हैं, कालके बिना पाँच अस्तिकाय हैं ।।
भावार्थ :सम्यक्त्व दो प्रकारका है, एक सरागसम्यक्त्व दूसरा वीतरागसम्यक्त्व,
सरागसम्यक्त्वका लक्षण कहते हैं प्रशम अर्थात् शान्तिपना, संवेग अर्थात् जिनधर्मकी रुचि तथा
निजशुद्धात्म ज छे. १६.
हवे, ते छ द्रव्योनां नाम कहे छे अने तेमनो चेतन अने अचेतन एवो विभाग कहे
छेः
भावार्थचिदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवो जीव चेतनद्रव्य छे अने जे
जीवद्रव्यथी अन्य छे अने पोतपोतानां लक्षणथी परस्पर जुदां छे एवो पुद्गल, धर्म, अधर्म,
२३० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१७

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पोग्गलु धम्माहम्मु णहु पुद्गलधर्माधर्मनभांसि कथंभूतानि तानि कालें सहिया कालद्रव्येण
सहितानि
पुनरपि कथंभूतानि भिण्ण स्वकीयस्वकीयलक्षणेन परस्परं भिन्नानि इति तथाहि
द्विधा सम्यक्त्वं भण्यते सरागवीतरागभेदेन सरागसम्यक्त्वलक्षणं कथ्यते प्रशम-
संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्ति लक्षणं सरागसम्यक्त्वं भण्यते, तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति तस्य
विषयभूतानि षड्द्रव्याणीति
वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राविनाभूतं
तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति अत्राह प्रभाकरभट्टः निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं
निश्चयसम्यक्त्वं भवतीति बहुधा व्याख्यातं पूर्वं भवद्भिः, इदानीं पुनः वीतरागचारित्राविनाभूतं
निश्चयसम्यक्त्वं व्याख्यातमिति पूर्वापरविरोधः कस्मादिति चेत्
निजशुद्धात्मैवोपादेय इति
रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं गृहस्थावस्थायां तिर्थंकरपरमदेवभरतसगररामपाण्डवादीनां विद्यते, न च
जगतसे अरुचि, अनुकंपा परजीवोंको दुःखी देखकर दया भाव और आस्तिक्य अर्थात् देव-गुरु-
धर्मकी तथा छह द्रव्योंकी श्रद्धा इन चारोंका होना वह व्यवहारसम्यक्त्वरूप सरागसम्यक्त्व है,
और वीतरागसम्यक्त्व जो निश्चयसम्यक्त्व वह निजशुद्धात्मानुभूतिरूप वीतरागचारित्रसे तन्मयी
है
यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया हे प्रभो, निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी
रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्वका कथन पहले तुमने अनेक बार किया, फि र अब वीतरागचारित्रसे
तन्मयी निश्चयसम्यक्त्व है, वह व्याख्यान करते हैं, सो यह तो पूर्वापर विरोध है
क्योंकि जो
निज शुद्धात्मा ही उपादेय हैं, ऐसी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व तो गृहस्थमें तीर्थंकर परमदेव भरत
चक्रवर्ती और राम, पांडवादि बड़े
बड़े पुरुषोंके रहता है, लेकिन उनके वीतरागचारित्र नहीं है
आकाश, काळसहित पांचद्रव्यो अचेतन छे; एम तुं जाण.
सम्यक्त्व बे प्रकारनुं छे, एक सराग सम्यक्त्व, बीजुं वीतराग सम्यक्त्व.
सराग सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहेवामां आवे छे. प्रशम, संवेग, अनुकंपा अने आस्तिक्यनी
अभिव्यक्ति लक्षणवाळुं सराग सम्यक्त्व छे, ते ज व्यवहार सम्यक्त्व छे. तेनां विषयभूत छ
द्रव्यो छे. वीतराग चारित्रनी साथे अविनाभावी, निजशुद्धात्मानी अनुभूतिस्वरूप वीतराग-
सम्यक्त्व छे ते ज निश्चयसम्यक्त्व छे.
आ कथन सांभळीने अहीं प्रभाकरभट्ट पूछे छे के हे प्रभु! ‘एक निजशुद्ध आत्मा ज
उपादेय छे’ एवी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व छे एम आपे पूर्वे अनेकवार कह्युं छे अने अहीं
आप वीतरागचारित्रनी साथे अविनाभूत निश्चयसम्यक्त्व होय छे एम आपे कह्युं, तो तेमां
पूर्वापर विरोध आवे छे. तो केवी रीते विरोध आवे छे एम कहो, तो तेनुं कारण आ छे के
निजशुद्ध आत्मा ज उपादेय छे एवी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व गृहस्थावस्थामां तीर्थंकर परमदेव,
भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, राम, पांडव आदि महापुरुषोने होय छे पण तेमने वीतरागचारित्र
अधिकार-२ः दोहा-१७ ]परमात्मप्रकाशः [ २३१

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तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्परविरोधः, अस्ति चेत्तर्हि तेषामसंयतत्वं कथमिति पूर्वपक्षः
तत्र परिहारमाह तेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपं निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते परं किंतु
चारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासंयता वा भण्यन्ते
शुद्धात्मभावनाच्युताः सन्तः भरतादयो निर्दोषिपरमात्मनामर्हत्सिद्धानां गुणस्तववस्तुस्तवरूपं
स्तवनादिकं कुर्वन्ति तच्चरितपुराणादिकं च समाकर्णयन्ति तदाराधकपुरुषाणामाचार्योपाध्याय-
साधूनां विषयकषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं संसारस्थितिच्छेदनार्थं च दानपूजादिकं कुर्वन्ति तेन कारणेन
शुभरागयोगात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति
या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा
वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परंपरया साधकत्वादिति वस्तुवृत्त्या तु
यही परस्पर विरोध है यदि उनके वीतरागचारित्र माना जावे, तो गृहस्थपना क्यों कहा ? यह
प्रश्न किया उसका उत्तर श्रीगुरु देते हैं उन महान् (बड़े) पुरुषोंके शुद्धात्मा उपादेय है ऐसी
भावनारूप निश्चयसम्यक्त्व तो है, परन्तु चारित्रमोहके उदयसे स्थिरता नहीं है जब तक
महाव्रतका उदय नहीं है, तब तक असंयमी कहलाते हैं, शुद्धात्माकी अखंड भावनासे रहित
हुए भरत, सगर, राघव, पांडवादिक निर्दोष परमात्मा अरहंत सिद्धोंके गुणस्तवन वस्तुस्तवनरूप
स्तोत्रादि करते हैं, और उनके चारित्र पुराणादिक सुनते हैं, तथा उनकी आज्ञाके आराधक जो
महान पुरुष, आचार्य, उपाध्याय, साधु उनको भक्तिसे आहारदानादि करते हैं, पूजा करते हैं
विषय कषायरूप खोटे ध्यानके रोकनेके लिये तथा संसारकी स्थितिके नाश करनेके लिये ऐसी
शुभ क्रिया करते हैं
इसलिये शुभ रागके संबंधसे सम्यग्दृष्टि हैं, और इनके निश्चयसम्यक्त्व
भी कहा जा सकता है, क्योंकि वीतरागचारित्रसे तन्मयी निश्चयसम्यक्त्वके परम्पराय साधकपना
होतुं नथी, तो ए प्रमाणे परस्पर विरोध आवे छे. जो आप कहो के तेमने वीतराग चारित्र
होय छे तो तेमने असंयतपणुं कह्युं छे ते केवी रीते घटी शके?
तेनो परिहार कहे छेते महापुरुषोने ‘शुद्ध आत्मा उपादेय छे’ एवी भावनारूप
निश्चयसम्यक्त्व होय छे, पण चारित्रमोहना उदयथी स्थिरता होती नथी, व्रतप्रतिज्ञानो भंग थाय
छे, ते कारणे तेमने असंयत कह्या छे.
शुद्ध आत्मानी भावनाथी च्युत थतां (ज्यारे शुद्ध आत्मानी भावना रहेती नथी त्यारे)
भरतादि अर्हंत सिद्ध एवा निर्दोष परमात्माना गुणस्तवन, वस्तुस्तवनरूप स्तवनादि करे छे अने
तेमनां चरित्र तथा पुराणादिक सांभळे छे. तेमना आराधक पुरुषो एवा आचार्य, उपाध्याय अने
साधुओने विषयकषायना दुर्ध्याननी वंचना अर्थे, संसारस्थितिना छेदन अर्थे दानपूजादिक करे छे
ते कारणे शुभरागना संबंधथी तेओ सरागसम्यग्द्रष्टि छे.
वळी, तेमना (सराग) सम्यक्त्वने निश्चयसम्यक्त्वनुं नाम पण घटी शके छे, कारण के
२३२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१७

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तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थः ।।१७।।
अथानन्तरं सूत्रचतुष्टयेन जीवादिषड्द्रव्याणां क्रमेण प्रत्येकं लक्षणं कथ्यते
१४४) मुत्तिविहूणउ णाणमउ परमाणंदसहाउ
णियमिं जोइय अप्पु मुणि णिच्चु णिरंजणु भाउ ।।१८।।
मूर्तिविहीनः ज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः
नियमेन योगिन् आत्मानं मन्यस्व नित्यं निरञ्जनं भावम् ।।१८।।
मुत्तिविहूणउ इत्यादि मुत्ति-विहूणउ अमूर्तः शुद्धात्मनो विलक्षणया स्पर्श-
रसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या विहीनत्वात् मूर्तिविहीनः णाणमउ क्रमकरणव्यवधानरहितेन
लोकालोकप्रकाशकेन केवलज्ञानेन निर्वृत्तत्वात् ज्ञानमयः परमाणंदसहाउ वीतराग-
है अब वास्तवमें (असलमें) विचारा जावे, तो गृहस्थ अवस्थामें इनके सरागसम्यक्त्व ही है
और जो सरागसम्यक्त्व है, वह व्यवहार ही है, ऐसा जानो ।।१७।।
आगे चार दोहोंसे छह द्रव्योंके क्रमसे हरएकके लक्षण कहते हैं
गाथा१८
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [नियमेन ] निश्चय करके [आत्मानं ] तू आत्माको
ऐसा [मन्यस्व ] जान कैसा है आत्मा ? [मूर्तिविहीनः ] मूर्तिसे रहित है, [ज्ञानमयः ] ज्ञानमयी
है, [परमानंदस्वभावः ] परमानंद स्वभाववाला है, [नित्यं ] नित्य है, [निरंजनं ] निरंजन है,
[भावम् ] ऐसा जीवपदार्थ है
भावार्थ :यह आत्मा अमूर्तीक शुद्धात्मासे भिन्न जो स्पर्श-रस-गंध-वर्णवाली मूर्ति
उससे रहित है, लोक-अलोकका प्रकाश करनेवाले केवलज्ञानकर पूर्ण है, जोकि केवलज्ञान
सब पदार्थोंको एक समयमें प्रत्यक्ष जानता है, आगे-पीछे नहीं जानता, वीतरागभाव परमानंदरूप
ते वीतरागचारित्रनी साथे अविनाभूत निश्चयसम्यक्त्वनुं परंपराए साधक छे. वस्तुताए
(वास्तविकपणे) तो सरागसम्यक्त्वथी कहेवामां आवतुं ते सम्यक्त्व व्यवहारसम्यक्त्व ज छे, एवो
भावार्थ छे. १७.
त्यार पछी चार दोहकसूत्रोथी जीवादि छ द्रव्योमांना दरेकना क्रमथी लक्षण कहे छेः
भावार्थहे योगी! तुं शुद्धनिश्चयनयथी आत्माने आवो जाण के ते अमूर्त शुद्ध
आत्माथी विलक्षण स्पर्श-रस-गंध-वर्णवाळी मूर्तिथी रहित होवाथी मूर्ति रहित छे क्रम, करण
दोह-१८ ]परमात्मप्रकाशः [ २३३

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परमानन्दैकरूपसुखामृतरसास्वादेन समरसीभावपरिणतस्वरूपत्वात् परमानन्दस्वभावः णियमिं
शुद्धनिश्चयेन जोइय हे योगिन् अप्पु तमित्थंभूतमात्मानं मुणि मन्यस्व जानीहि त्वम् पुनरपि
किंविशिष्टं जानीहि णिच्चु शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वान्नित्यम् पुनरपि
किंविशिष्टम् णिरंजणु मिथ्यात्वरागादिरूपाञ्जनरहितत्वान्निरञ्जनम् पुनश्च कथंभूतमात्मानं
जानीहि भाउ भावं विशिष्टपदार्थम् इति अत्रैवंगुणविशिष्टः शुद्धात्मैवोपादेय अन्यद्धेयमिति
तात्पर्यार्थः ।।१८।।
अथ
१४५) पुग्गलु छव्वहु मुत्तु वढ इयर अमुत्तु वियाणि
धम्माधम्मु वि गयठियहँ कारणु पभणहिँ णाणि ।।१९।।
पुद्गलः षड्विधः मूर्तः वत्स इतराणि अमूर्तानि विजानीहि
धर्माधर्ममपि गतिस्थित्योः कारणं प्रभणन्ति ज्ञानिनः ।।१९।।
अतिन्द्रिय सुखस्वरूप अमृतके रसके स्वादसे समरसी भावको परिणत हुआ है, ऐसा हे योगी;
शुद्ध निश्चयसे अपनी आत्माको ऐसा समझ, शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे बिना टाँकीका घडया हुआ
सुघटघाट ज्ञायक स्वभाव नित्य है
तथा मिथ्यात्व रागादिरूप अंजनसे रहित निरंजन है ऐसी
आत्माको तू भलीभाँति जान, जो सब पदार्थोंमें उत्कृष्ट है इन गुणोंसे मंडित शुद्ध आत्मा
ही उपादेय है, और सब तजने योग्य हैं ।।१८।।
आगे फि र भी कहते हैं
गाथा१९
अन्वयार्थ :[वत्स ] हे वत्स, तू [पुद्गलः ] पुद्गलद्रव्य [षड्विधः ] छह प्रकार
अने व्यवधानथी रहित लोकालोक प्रकाशक केवळज्ञानथी रचायेल होवाथी ज्ञानमय छे,
वीतरागपरमानंद ज जेनुं एक रूप छे एवा सुखामृतना रसास्वादथी जेनुं स्वरूप समरसीभावमां
परिणम्युं होवाथी परमानंदस्वभाववाळो छे. शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी एक (केवळ) टंकोत्कीर्ण
ज्ञायकस्वभाववाळो होवाथी नित्य छे, मिथ्यात्व रागादि अंजन रहित होवाथी निरंजन छे अने
एक विशिष्ट पदार्थ छे.
अहीं आवा गुणवाळो शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे, बाकीनुं बधुंय हेय छे एवो तात्पर्यार्थ
छे. १८.
हवे, फरी कहे छेः
२३४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१९

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पुग्गलु इत्यादि पुग्गलु पुद्गलद्रव्यं छव्वहु षड्विधम् तदा चोक्त म्‘‘पुढवी जलं
च छाया चउरिंदिय विसय कम्मपाउग्गा कम्मतीदा एवं छब्भेया पुग्गला होंति ।।’’ एवं
तत्कथं भवति मुत्तु स्पर्शरसगन्धवर्णवती मूर्तिरिति वचनान्मूर्तम् वढ वत्स पुत्र इयर
इतराणि पुद्गलात् शेषद्रव्याणि अमुत्तु स्पर्शाद्यभावादमूर्तानि वियाणि विजानीहि त्वम्
धम्माधम्मु वि धर्माधर्मद्वयमपि गयठियहँ गतिस्थित्योः कारणु कारणं निमित्तं पभणहिँ
प्रभणन्ति कथयन्ति
के कथयन्ति णाणि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानिनः इति अत्र द्रष्टव्यम्
तथा [मूर्तः ] मूर्तीक है, [इतराणि ] अन्य सब द्रव्य [अमूर्तानि ] अमूर्त हैं, ऐसा [विजानीहि ]
जान, [धर्माधर्ममपि ] धर्म और अधर्म इन दोनों द्रव्योंको [गतिस्थित्योः कारणं ] गति-
स्थितिका सहायक
कारण [ज्ञानिनः ] केवली श्रुतकेवली [प्रभणंति ] कहते हैं
भावार्थ :पुद्गल द्रव्यके छह भेद दूसरी जगह भी ‘पुढवी जलं’ इत्यादि गाथासे
कहते हैं उसका अर्थ यह है कि बादरबादर १, बादर २, बादरसूक्ष्म ३, सूक्ष्मबादर ४, सूक्ष्म
५, सूक्ष्मसूक्ष्म ६, ये छह भेद पुद्गलके हैं उनमेंसे पत्थर, काठ, तृण आदि पृथ्वी बादरबादर
हैं, टुकड़े होकर नहीं जुड़ते, जल, घी, तैल आदि बादर हैं, जो टूटकर मिल जाते हैं, छाया,
आतप, चाँदनी ये बादरसूक्ष्म हैं, जो कि देखनेमें तो बादर और ग्रहण करनेमें सूक्ष्म हैं, नेत्रको
छोड़कर चार इंद्रियोंके विषय रस, गंधादि सूक्ष्मबादर हैं, जो कि देखनेमें नहीं आते, और
ग्रहण करनेमें आते हैं
कर्मवर्गणा सूक्ष्म हैं, जो अनंत मिली हुई हैं, परंतु दृष्टिमें नहीं आतीं,
और सूक्ष्मसूक्ष्म परमाणु है, जिसका दूसरा भाग नहीं होता इस तरह छह भेद हैं इन छहों
तरहके पुद्गलोंको तू अपने स्वरूपसे जुदा समझ यह पुद्गलद्रव्य स्पर्श-रस-गंध-वर्णको
धारण करता है, इसलिये मूर्तीक है, अन्य धर्म-अधर्म दोनों गति तथा स्थितिके कारण हैं,
भावार्थपुद्गलद्रव्य छ प्रकारनुं छे. पुद्गलद्रव्यना छ भेद (श्री पंचास्तिकाय
गाथा ७६१मां) पण कह्या छे के ‘‘पुढवी जलं च छाया चउरिंदिय विषय कम्मपाउगा कम्मातीदा
एवं छब्भेया पुग्गला होंति ।।’’ अर्थपृथ्वी, जळ, छाया, नेत्र सिवायना चार इन्द्रियना
विषयो, कर्मवर्गणा तथा परमाणु एम छ वस्तुओथी पुद्गलना छ भेद समजी लेवा जोईए.
(अर्थात् बादरबादर, बादर, बादरसूक्ष्म, सूक्ष्मबादर, सूक्ष्म अने सूक्ष्मसूक्ष्म एम छ प्रकारना
पुद्गल छे) ए प्रमाणे ते कई रीते छे?
‘जे स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाळुं होय ते मूर्त छे’ ए आगमना वचनानुसारे ते मूर्त छे;
पुद्गल सिवायना बाकीना पांच द्रव्यो स्पर्शादिनो अभाव होवाथी अमूर्त छे, एम हे वत्स!
तुं जाण. धर्मद्रव्य गतिनुं अने अधर्मद्रव्य स्थितिनुं (उदासीन) कारण छे, एम
वीतरागस्वसंवेदनवाळा ज्ञानीओ कहे छे.
अधिकार-२ः दोहा-१९ ]परमात्मप्रकाशः [ २३५

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यद्यपि वज्रवृषभनाराचसंहननरूपेण पुद्गलद्रव्यं मुक्ति गमनकाले सहकारिकारणं भवति तथापि
धर्मद्रव्यं च गतिसहकारिकारणं भवति, अधर्मद्रव्यं च लोकाग्रे स्थितस्य स्थितिसहकारिकारणं
भवति
यद्यपि मुक्तात्मप्रदेशमध्ये परस्परैकक्षेत्रावगाहेन तिष्ठन्ति तथापि निश्चयेन विशुद्धज्ञान-
दर्शनस्वभावपरमात्मानः सकाशाद्भिन्नस्वरूपेण मुक्तौ तिष्ठन्ति तथात्र संसारे चेतनाकारणानि
हेयानीति भावार्थः ।।१९।।
अथ
१४६) दव्वुइँ सयलइँ उवरि ठियइँ णियमेँ जासु वसंति
तं णहु दव्वु वियाणि तुहुं जिणवर एउ भणंति ।।२०।।
ऐसा वीतरागदेवने कहा है यहाँ पर एक बात देखनेकी है कि यद्यपि वज्रवृषभनाराचसंहनन-
रूप पुद्गलद्रव्य मोक्षके गमनका सहायक है, इसके बिना मुक्ति नहीं हो सकती, तो भी
धर्मद्रव्य गति सहायी है, इसके बिना सिद्धलोकको जाना नहीं हो सकता, तथा अधर्मद्रव्य
सिद्धलोकमें स्थितिका सहायी है
लोकशिखर पर आकाशके प्रदेश अवकाशमें सहायी हैं
अनंते सिद्ध अपने स्वभावमें ही ठहरे हुए हैं, परद्रव्यका कुछ प्रयोजन नहीं है यद्यपि
मुक्तात्माओंके प्रदेश आपसमें एक जगह हैं, तो भी विशुद्ध, ज्ञान, दर्शन, भाव, भगवान्
सिद्धक्षेत्रमें भिन्न
भिन्न स्थित हैं, कोई सिद्ध किसी सिद्धिसे प्रदेशोंकर मिला हुआ नहीं है
पुद्गलादि पाँचों द्रव्य जीवको यद्यपि निमित्त कारण कहे गये हैं, तो भी उपादानकारण नहीं
है, ऐसा सारांश हुआ
।।१९।।
अहीं, जोवानुं ए (वात देखवानी)छे के वज्रवृषभनाराचसंहननरूपे पुद्गलद्रव्य
मुक्ति-गमनकाळे सहकारी कारण छे, तेमज धर्मद्रव्य पण गतिमां सहकारी कारण छे, अधर्मद्रव्य
पण लोकाग्रे स्थित थता सिद्धने स्थितिमां सहकारी कारण छे.
जोके आ बधा द्रव्यो मुक्तात्माना प्रदेशमां एकक्षेत्रावगाहे रहे छे तोपण निश्चयथी विशुद्ध
ज्ञान, विशुद्ध दर्शन जेनो स्वभाव छे एवा परमात्माथी तेओ भिन्न भिन्न स्वरूपे मुक्तिमां
रहे छे;
तथा आ संसारमां चेतननां कारणो (निमित्त कारणो) होय छे, एवो भावार्थ छे. पण
(उपादान कारणथी) हेय छे. १९.
२३६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२०

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द्रव्याणि सकलानि उदरे स्थितानि नियमेन यस्य वसन्ति
तत् नभः द्रव्यं विजानीहि त्वं जिनवरा एतद् भणन्ति ।।२०।।
दव्वइं द्रव्याणि कतिसंख्योपेतानि सयलइं समस्तानि उवरि उदरे ठियइं स्थितानि णियमें
निश्चयेन जासु यस्य वसन्ति आधाराधेयभावेन तिष्ठन्ति तं तत् णहु दव्वु नभ आकाशद्रव्यं वियाणि
विजानीहि तुहुं त्वं हे प्रभाकरभट्ट
जिणवर जिनवराः वीतरागसर्वज्ञाः एउ भणंति एतद्भणन्ति
कथयन्तीति
अयमत्र तात्पर्यार्थः यद्यपि परस्परैकक्षेत्रावगाहेन तिष्ठत्याकाशं तथापि साक्षादुपादेय-
भूतादनन्तसुखस्वरूपात्परमात्मनः सकाशादत्यन्तभिन्नत्वाद्धेयमिति ।।२०।।
अथ
१४७) कालु मुणिज्जहि दव्वु तुहुँ वट्टणलक्खणु एउ
रयणहँ रासि विभिण्ण जिम तसु अणुयहँ तह भेउ ।।२१।।
आगे आकाशका स्वरूप कहते हैं
गाथा२०
अन्वयार्थ :[यस्य ] जिसके [उदरे ] अंदर [सकलानि द्रव्याणि ] सब द्रव्यें
[स्थितानि ] स्थित हुई [नियमेन वसंति ] निश्चयसे आधार आधेयरूप होकर रहती हैं, [तत् ]
उसको [त्वं ] तू [नभः द्रव्यं ] आकाशद्रव्य [विजानीहि ] जान, [एतत् ] ऐसा [जिनवराः ]
जिनेन्द्रदेव [भणंति ] कहते हैं
लोकाकाश आधार है, अन्य सब द्रव्य आधेय है
भावार्थ :यद्यपि ये सब द्रव्य आकाशमें परस्पर एक क्षेत्रावगाहसे ठहरी हुई हैं, तो
भी आत्मासे अत्यंत भिन्न हैं, इसलिये त्यागने योग्य हैं, और आत्मा साक्षात् आराधने योग्य हैं,
अनंतसुखस्वरूप है
।।२०।।
आगे कालद्रव्यका व्याख्यान करते हैं
हवे, आकाशनुं स्वरूप कहे छेः
भावार्थजोके सर्व द्रव्यो परस्पर एकक्षेत्रावगाहथी आकाशमां रहे छे तोपण ते
(आकाश) साक्षात् उपादेयभूत अनंतचतुष्टय स्वरूप परमात्माथी अत्यंत भिन्न होवाथी हेय
छे. २०.
हवे, काळद्रव्यनुं व्याख्यान करे छेः
अधिकार-२ः दोहा-२१ ]परमात्मप्रकाशः [ २३७

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कालं मन्यस्व द्रव्यं त्वं वर्तनालक्षणं एतत्
रत्नानां राशिः विभिन्नः यथा तस्य अणूनां तथा भेदः ।।२१।।
कालु इत्यादि कालु कालं मुणिज्जहि मन्यस्व जानीहि किं जानीहि दव्वु कालसंज्ञं
द्रव्यम् कथंभूतम् वट्टण-लक्खणु वर्तनालक्षणं स्वयमेव परिणममाणानां द्रव्याणां
बहिरङ्गसहकारिकारणम् किंवदिति चेत् कुम्भकारचक्रस्याधस्तनशिलावदिति एउ एतत्
प्रत्यक्षीभूतं तस्य कालद्रव्यस्यासंख्येयप्रमितस्य परस्परभेदविषये दृष्टान्तमाह रयणहं रासि रत्नानां
राशिः कथंभूतः विभिण्ण विभिन्नः विशेषेण स्वरूपव्यवधानेन भिन्नः जिम यथा तसु तस्य
कालद्रव्यस्य अणुयहं अणूनां कालाणूनां तह तथा भेउ भेदः इति अत्राह शिष्यः समय
एव निश्चयकालः, अन्यन्निश्चयकालसंज्ञं कालद्रव्यं नास्ति अत्र परिहारमाह
गाथा२१
अन्वयार्थ :[त्वं ] हे भव्य, तू [एतत् ] इस प्रत्यक्षरूप [वर्तनालक्षणं ]
वर्तनालक्षणवालेको [कालं ] कालद्रव्य [मन्यस्व ] जान अर्थात् अपने आप परिणमते हुए
द्रव्योंको कुम्हारके चक्रकी नीचेकी सिलाकी तरह जो बहिरंग सहकारीकारण है, यह कालद्रव्य
असंख्यात प्रदेशप्रमाण है
[यथा ] जैसे [रत्नानां राशिः ] रत्नोंकी राशि [विभिन्नः ] जुदारूप
है, सब रत्न जुदा जुदा रहते हैंमिलते नहीं हैं, [यथा ] उसी तरह [तस्य ] उस कालके
[अणूनां ] कालकी अणुओंका [भेदः ] भेद है
भावार्थ :एक कालाणुसे दूसरा कालाणु नहीं मिलता यहाँ पर शिष्यने प्रश्न किया
कि समय ही निश्चयकाल है, अन्य निश्चयकाल नामवाला द्रव्य नहीं है ? इसका समाधान
श्रीगुरु करते हैं
समय वह कालद्रव्यकी पर्याय है, क्योंकि विनाशको पाता है ऐसा ही
भावार्थहे भव्य! वर्तनालक्षणवाळुं आ प्रत्यक्ष काळ नामनुं द्रव्य तुं जाण. अर्थात्
जेवी रीते कुंभारना चाकने तेने फरवामां नीचेना पथ्थरनुं पड बहिरंग सहकारी कारण छे तेवी
रीते स्वयमेव परिणमतां द्रव्योने तेना परिणमनमां काळ द्रव्य बहिरंग सहकारी कारण छे.
काळद्रव्यना असंख्य प्रदेशोना परस्पर भेदना विषयमां द्रष्टांत कहे छे. जेवी रीते रत्नोनी
राशि विभिन्न छे. बधा रत्नो पोतपोतानां विशेष स्वरूपव्यवधानथी (स्वरूपनी भिन्नताथी) जुदां
जुदां छे
तेवी रीते काळद्रव्यना असंख्य जेटला कालाणुओ परस्पर जुदा छे.
प्रश्नसमय ज निश्चयकाळ छे, अन्य निश्चयकाळ नामनुं द्रव्य नथी.
तेनो परिहारसमय तो विनश्वर होवाथी पर्याय छे (श्री पंचास्तिकायमां) समयनुं
२३८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२१

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समयस्तावत्पर्यायः कस्मात् विनश्वरत्वात् तथा चोक्तं समयस्य विनश्वरत्वम्‘‘समओ
उप्पण्णध्वंसी’’ इति स च पर्यायो द्रव्यं विना न भवति कस्य द्रव्यस्य भवतीति विचार्यते
यदि पुद्गलद्रव्यस्य पर्यायो भवति तर्हि पुद्गलपरमाणुपिण्डनिष्पन्नघटादयो यथा मूर्ता भवन्ति तथा
अणोरण्वन्तरव्यतिक्रमणाज्जातः समयः, चक्षुःसंपुटविघटनाज्जातो निमिषः, जलभाजनहस्तादि-
व्यापाराज्जाता घटिका, आदित्यबिम्बदर्शनाज्जातो दिवसः, इत्यादि कालपर्याया मूर्ता दृष्टिविषयाः
प्राग्भवन्ति
कस्मात् पुद्गलद्रव्योपादानकारणजातत्वाद् घटादिवत् इति तथा चोक्त म्
उपादानकारणसदृशं कार्यं भवति मृत्पिण्डाद्युपादानकारणजनितघटादिवदेव न च तथा
समयनिमिषघटिकादिवसादिकालपर्याया मूर्ता दृश्यन्ते
यैः पुनः पुद्गलपरमाणुमन्दगतिगमन-
श्रीपंचास्तिकायमें कहा है ‘‘समओ उप्पण्णपद्धंसी’’ अर्थात् समय उत्पन्न होता है और नाश होता
है
इससे जानते हैं कि समय पर्याय द्रव्यके बिना हो नहीं सकता किस द्रव्यका पर्याय है,
इस पर अब विचार करना चाहिये यदि पुद्गलद्रव्यकी पर्याय मानी जावे, तो जैसे पुद्गल
परमाणुओंसे उत्पन्न हुए घटादि मूर्तीक हैं, वैसे समय भी मूर्तीक होना चाहिये, परंतु समय
अमूर्तीक है, इसलिये पुद्गलकी पर्याय तो नहीं है
पुद्गलपरमाणु आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे
प्रदेशको जब गमन होता है, सो समयपर्याय कालकी है, पुद्गलपरमाणुके निमित्तसे होती हैं,
नेत्रोंका मिलना तथा विघटना उससे निमेष होता है, जलपात्र तथा हस्तादिके व्यापारसे घटिका
होती है, और सूर्यबिम्बके उदयसे दिन होता है, इत्यादि कालकी पर्याय हैं, पुद्गलद्रव्यके
निमित्तसे होती हैं, पुद्गल इन पर्यायोंका मूलकारण नहीं है, मूलकारण काल है
जो पुद्गल
मूलकारण होता तो समयादिक मूर्तीक होते जैसे मूर्तीक मिट्टीके ढेलेसे उत्पन्न घड़े वगैर मूर्तीक
विनश्वरपणुं कह्युं छे ‘समओ उप्पणध्वंसी’ (अर्थसमय ‘उत्पन्नध्वंसी छेसमय उत्पन्न थाय
छे अने नाश पामे छे.)
वळी, ते पर्याय द्रव्य विना होतो नथी. तो हवे समय कया द्रव्यनो पर्याय छे ते विचारीए.
जो समय पुद्गलद्रव्यनो पर्याय होय तो पुद्गलपरमाणुपिंडथी बनेल घटादि जेवी रीते मूर्त होय
छे तेवी रीते एक प्रदेशथी बीजा प्रदेश सुधी परमाणुना गमनथी उत्पन्न थतो समय, आंखना
बीडवा-उघडवाथी उत्पन्न थतो निमिष, जलभाजन अने हस्तादि व्यापारथी उत्पन्न थती घडी,
सूर्यना बिंबना उदयथी उत्पन्न थतो दिवस इत्यादि काळपर्यायो मूर्त होवा जोईए, अने मूर्त
होवाथी द्रष्टिना विषय थवा जोईए, कारण के तेओ पुद्गलद्रव्यना उपादान कारणथी उत्पन्न
थयेला मान्या छे. वळी कह्युं छे के
‘उपादानकारणसदृशं कार्यं भवति’ उपादान कारणना जेवुं ज कार्य
थाय छे. जेवी रीते माटीना पिंडादि उपादान कारण जेवुं घटादि कार्य मूर्त थाय छे, पण ते प्रमाणे
समय, निमिष, घडी, दिवस आदि काळपर्यायो मूर्त जोवामां आवता नथी.
अधिकार-२ः दोहा-२१ ]परमात्मप्रकाशः [ २३९

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नयनपुटविघटनजलभाजनहस्तादिव्यापारदिनकरबिम्बगमनादिभिः पुद्गलपर्यायभूतैः क्रियाविशेषैः
समयादिकालपर्यायाः परिच्छिद्यन्ते, ते चाणुव्यतिक्रमणादयः तेषामेव समयादिकालपर्यायाणां
व्यक्ति निमित्तत्वेन बहिरङ्गसहकारिकारणभूता एव ज्ञातव्या न चोपादानकारणभूता घटोत्पत्तौ
कुम्भकारचक्रचीवरादिवत्
तस्माद् ज्ञायते तत्कालद्रव्यममूर्तमविनश्वरमस्तीति तस्य तत्पर्यायाः
समयनिमिषादय इति अत्रेदं तु कालद्रव्यं सर्वप्रकारोपादेयभूतात् शुद्धबुद्धैकस्वभावाज्जीव-
द्रव्याद्भिन्नत्वाद्धेयमिति तात्पर्यार्थः ।।२१।।
अथजीवपुद्गलकालद्रव्याणि मुक्त्वा शेषधर्माधर्माकाशान्येकद्रव्याणीति निरूपयति
१४८) जीउ वि पुग्गलु कालु जिय ए मेल्लेविणु दव्व
इयर अखंड वियाणि तुहुँ अप्प-पएसहिँ सव्व ।।२२।।
होते हैं, वैसे समयादिक मूर्तीक नहीं हैं इसलिये अमूर्तद्रव्य जो काल उसकी पर्याय हैं, द्रव्य
नहीं हैं, कालद्रव्य अणुरूप अमूर्तीक अविनश्वर है, और समयादिक पर्याय अमूर्तीक है, परंतु
विनश्वर हैं, अविनश्वरपना द्रव्यमें ही है, पर्यायमें नहीं है, यह निश्चयसे जानना
इसलिये
समयादिकको कालद्रव्यकी पर्याय ही कहना चाहिये, पुद्गलकी पर्याय नहीं हैं, पुद्गलपर्याय
मूर्तीक है
सर्वथा उपादेय शुद्ध-बुद्ध केवलस्वभाव जो जीव उससे भिन्न कालद्रव्य है, इसलिये
हेय है, यह सारांश हुआ ।।२१।।
आगे जीव, पुद्गल, काल ये तीन द्रव्य अनेक हैं, और धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन
द्रव्य एक हैं, ऐसा कहते हैं
वळी पुद्गलपरमाणुनुं मंदगतिथी गमन, नयनपुटविघटन (आंखनो पलकार),
जळभाजन तथा हस्तादिनो व्यापार, सूर्यबिंबनुं गमन वगेरे पुद्गलपर्यायभूत क्रिया विशेषोथी
समयादि काळपर्यायो जणाय छे ते परमाणुना व्यतिक्रमादि क्रियाविशेषोने काळना ते समयादि
पर्यायोनी ज प्रगटताना निमित्तपणे मात्र बहिरंग सहकारी कारणभूत ज जाणवा, पण जेवी
रीते घडानी उत्पत्तिमां कुंभार, चाकडो, चीवरादि उपादानकारण नथी तेवी रीते तेमने
उपादानकारणभूत न जाणवा. माटे जणाय छे के ते काळद्रव्य अमूर्त अने अविनश्वर छे. समय,
निमिष, आदि काळद्रव्यना पर्यायो छे.
अहीं, आ काळद्रव्य पण सर्वप्रकारे उपादेयभूत, शुद्ध, बुद्ध ज जेनो एक स्वभाव छे
एवा जीवद्रव्यथी भिन्न होवाथी, हेय छे एवो तात्पर्यार्थ छे. २१.
हवे जीव, पुद्गल अने काळ आ त्रण द्रव्यो सिवायना बाकीना धर्म, अधर्म अने आकाश
आ त्रण द्रव्यो एक एक छे; एम कहे छेः
२४० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२२

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जीवोऽपि पुद्गलः कालः जीव एतानि मुक्त्वा द्रव्याणि
इतराणि अखण्डानि विजानीहि त्वं आत्मप्रदेशैः सर्वाणि ।।२२।।
जीउ वि इत्यादि जीउ वि जीवोऽपि पुग्गलु पुद्गलः कालु कालः जिय हे जीव
मेल्लेविणु एतानि मुक्त्वा दव्व द्रव्याणि इयर इतराणि धर्माधर्माकाशानि अखंड अखण्डद्रव्याणि
वियाणि विजानीहि तुहुं त्वं हे प्रभाकरभट्ट
कैः कृत्वाखण्डानि विजानीहि अप्प-पएसहिं
आत्मप्रदेशैः कतिसंख्योपेतानि सव्व सर्वाणि इति तथाहि जीवद्रव्याणि पृथक् पृथक्
जीवद्रव्यगणनेनानन्तसंख्यानि पुद्गलद्रव्याणि तेभ्योऽप्यनन्तगुणानि भवन्ति धर्माधर्माकाशानि
पुनरेकद्रव्याण्येवेति अत्र जीवद्रव्यमेवोपादेयं तत्रापि यद्यपि शुद्धनिश्चयेन शक्त्यपेक्षया सर्वे जीवा
उपादेयास्तथापि व्यक्त्यपेक्षया पञ्च परमेष्ठिन एव, तेष्वपि मध्ये विशेषेणार्हत्सिद्धा एव तयोरपि
गाथा२२
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [त्वं ] तू [जीवः अपि ] जीव और [पुद्गलः ]
पुद्गल, [कालः ] काल [एतानि द्रव्याणि ] इन तीन द्रव्योंको [मुक्त्वा ] छोड़कर [इतराणि ]
दूसरे धर्म, अधर्म, आकाश [सर्वाणि ] ये सब तीन द्रव्य [आत्मप्रदेशैः ] अपने प्रदेशोंसे
[अखंडानि ] अखंडित हैं
भावार्थ :जीवद्रव्य जुदा जुदा जीवोंकी गणनासे अनंत हैं, पुद्गलद्रव्य उससे भी
अनंतगुणे हैं, कालद्रव्याणु असंख्यात हैं, धर्मद्रव्य एक है, और वह लोकव्यापी है, अधर्मद्रव्य
भी एक है, और वह लोकव्यापी है, ये दोनों द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं, और आकाशद्रव्य
अलोक अपेक्षा अनंतप्रदेशी है, तथा लोक अपेक्षा असंख्यातप्रदेशी हैं
ये सब द्रव्य अपने
अपने प्रदेशोंकर सहित हैं, किसीके प्रदेश किसीसे नहीं मिलते इन छहों द्रव्योंमें जीव ही
उपादेय है यद्यपि शुद्ध निश्चयसे शक्तिकी अपेक्षा सभी जीव उपादेय हैं, तो भी व्यक्तिकी
अपेक्षा पंचपरमेष्ठी ही उपादेय हैं, उनमें भी अरहंत सिद्ध ही हैं, उन दोनोंमें भी सिद्ध ही हैं,
भावार्थजीवद्रव्यो पृथक् पृथक् जीवद्रव्यनी संख्यानी गणतरीथी अनंत छे,
पुद्गलद्रव्यो तेनाथी पण अनंतगुणा छे, (कालाणु असंख्यात छे) अने धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य अने
आकाशद्रव्य एक एक छे.
अहीं, एक जीवद्रव्य ज उपादेय छे. तेमां पण जोके शुद्धनिश्चयनयथी शक्ति-अपेक्षाए
सर्व जीवो उपादेय छे तोपण व्यक्ति-अपेक्षाए पांच परमेष्ठी ज उपादेय छे, तेमां पण विशेष
करीने अर्हन्त अने सिद्ध भगवंतो ज उपादेय छे अने ते बन्नेमां पण सिद्ध भगवंतो ज
उपादेय छे, परमार्थथी तो मिथ्यात्व, रागादि विभावपरिणामोनी निवृत्तिकाळे स्वशुद्धात्मा ज
अधिकार-२ः दोहा-२२ ]परमात्मप्रकाशः [ २४१

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मध्ये सिद्धा एव, परमार्थेन तु मिथ्यात्वरागादिविभावपरिणामनिवृत्तिकाले स्वशुद्धात्मैवोपादेय
इत्युपादेयपरंपरा ज्ञातव्येति भावार्थः
।।२२।।
अथ जीवपुद्गलौ सक्रियौ धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि निःक्रियाणीति प्रति-
पादयति
१४९) दव्व चयारि वि इयर जिय गमणागमण-विहीण
जीउ वि पुग्गलु परिहरिवि पभणहिँ णाण-पवीण ।।२३।।
द्रव्याणि चत्वारि अपि इतराणि जीव गमनागमनविहीनानि
जीवमपि पुद्गलं परिहृत्य प्रभणन्ति ज्ञानप्रवीणाः ।।२३।।
दव्व इत्यादि दव्व द्रव्याणि कतिसंख्योपेतानि एव चयारि वि चत्वार्येव इयर
जीवपुद्गलाभ्यामितराणि जिय हे जीव कथंभूतान्येतानि गमणागमण-विहीण गमना-
और निश्चयनयकर मिथ्यात्वरागादि विभावपरिणामके अभावमें विशुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा
जानना
।।२२।।
आगे जीव पुद्गल ये दोनों चलनहलनादि क्रियायुक्त हैं, और धर्म, अधर्म, आकाश,
काल ये चारों निःक्रिय हैं, ऐसा निरूपण करते हैं
गाथा२३
अन्वयार्थ :[जीव ] हे हंस, [जीवं अपि पुद्गलं ] जीव और पुद्गल इन दोनोंको
[परिहृत्य ] छोड़कर [इतराणि ] दूसरे [चत्वारि एव द्रव्याणि ] धर्मादि चारों ही द्रव्य
[गमनागमनविहीनानि ] चलन हलनादि क्रिया रहित हैं, जीव पुद्गल क्रियावंत हैं, गमनागमन
करते हैं, ऐसा [ज्ञानप्रवीणाः ] ज्ञानियोंमें चतुर रत्नत्रयके धारक केवली श्रुतकेवली [प्रणभंति ]
कहते हैं
भावार्थ :जीवोंके संसारअवस्थामें इस गतिसे अन्य गतिके जानेको कर्म-नोकर्म
उपादेय छे. ए प्रमाणे उपादेयनी परंपरा जाणवी, एवो भावार्थ छे. २२.
हवे, जीव अने पुद्गल ए बे द्रव्यो सक्रिय छे. धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ
ए चार द्रव्यो निष्क्रिय छे, एम कहे छेः
भावार्थकर्मनोकर्मरूप पुद्गलो संसार अवस्थामां जीवोने गतिमां सहकारी
२४२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२३

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गमनविहिनानि निःक्रियाणि चलनक्रियाविहीनानि किं कृत्वा जीउ वि पुग्गलु परिहरिवि
जीवपुद्गलौ परिहृत्य पभणहिं एवं प्रभणन्ति कथयन्ति के ते णाणपवीण भेदाभेद-
रत्नत्रयाराधका विवेकिन इत्यर्थः तथाहि जीवानां संसारावस्थायां गतेः सहकारिकारण-
भूताः कर्मनोकर्मपुद्गलाः कर्मनोकर्माभावात्सिद्धानां निःक्रियत्वं भवति पुद्गलस्कन्धानां तु
कालाणुरूपं कालद्रव्यं गतेर्बहिरङ्गनिमित्तं भवति
अनेन किमुक्त भवति अविभागिव्यवहार-
कालसमयोत्पत्तौ मन्दगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुः घटोत्पत्तौ कुम्भकारवद्वहिरङ्गनिमित्तेन व्यञ्जको
व्यक्ति कारको भवति
कालद्रव्यं तु मृत्पिण्डवदुपादानकारणं भवति तस्य तु
पुद्गलपरमाणोर्मन्दगतिगमनकाले यद्यपि धर्मद्रव्यं सहकारिकारणमस्ति तथापि कालाणुरूपं
निश्चयकालद्रव्यं च सहकारिकारणं भवति
सहकारिकारणानि तु बहून्यपि भवन्ति मत्स्यानां
जातिके पुद्गल सहायी हैं और कर्म नोकर्मके अभावसे सिद्धोंके निःक्रियपना है, गमनागमन
नहीं है पुद्गलके स्कन्धोंको गमनका बहिरंग निमित्तकारण कालाणुरूप कालद्रव्य है इससे
क्या अर्थ निकला ? यह निकला कि निश्चयकालकी पर्याय जो समयरूप व्यवहारकाल उसकी
उत्पत्तिमें मंद गतिरूप परिणत हुआ अविभागी पुद्गलपरमाणु कारण होता है
समयरूप
व्यवहारकालका उपादानकारण निश्चयकालद्रव्य है, उसीको एक समयादि व्यवहारकालका
मूलकारण निश्चयकालाणुरूप कालद्रव्य है, उसीकी एक समयादिक पर्याय है, पुद्गल
परमाणुकी मंदगति बहिरंग निमित्तकारण है, उपादानकारण नहीं है, पुद्गलपरमाणु आकाशके
प्रदेशमें मंदगतिसे गमन करता है, यदि शीघ्र गतिसे चले तो एक समयमें चौदह राजू जाता
है, जैसे घटपर्यायकी उत्पत्तिमें मूलकारण तो मिट्टीका डला है, और बहिरंगकारण कुम्हार है,
वैसे समयपर्यायकी उत्पत्तिमें मूलकारण तो कालाणुरूप निश्चयकाल है, और बहिरंग
निमित्तकारण पुद्गलपरमाणु है
पुद्गलपरमाणुकी मंदगतिरूप गमन समयमें यद्यपि धर्मद्रव्य
सहकारी है, तो भी कालाणुरूप निश्चयकाल परमाणुकी मंदगतिका सहायी जानना परमाणुके
निमित्तसे तो कालका समयपर्याय प्रगट होता है, और कालके सहायसे परमाणु मंदगति करता
कारणभूत छे अने कर्मनोकर्मना अभावथी सिद्धो निष्क्रिय छे. पुद्गलस्कंधोने पण गतिनुं बहिरंग
निमित्त काळाणुरूप काळद्रव्य छे. आथी शुं कहेवायुं? आथी ए कहेवायुं के जेवी रीते घडानी
उत्पत्तिमां कुंभार बहिरंगनिमित्तथी व्यंजक
व्यक्तिकारकछे तेवी रीते व्यवहारकाळरूप अविभागी
समयनी उत्पत्तिमां मंदगतिए परिणत पुद्गलपरमाणु बहिरंग निमित्तथी व्यंजक-व्यक्तिकारक छे.
जेम (घटपर्यायनी उत्पत्तिमां) माटीनो पिंड उपादान कारण छे तेम (समय पर्यायनी उत्पत्तिमां)
काळद्रव्य उपादान कारण छे अने ते पुद्गलपरमाणुना मंदगतिथी गमनकाळे जोके धर्मद्रव्य पण
सहकारी कारण छे तोपण काळाणुरूप निश्चय काळद्रव्य पण सहकारी कारण छे.
अधिकार-२ः दोहा-२३ ]परमात्मप्रकाशः [ २४३

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धर्मद्रव्ये विद्यमानेऽपि जलवत्, घटोत्पत्तौ कुम्भकारबहिरङ्गनिमित्तेऽपि चक्रचीवरादिवत्,
जीवानां धर्मद्रव्ये विद्यमानेऽपि कर्मनोकर्मपुद्गला गतेः सहकारिकारणं, पुद्गलानां तु कालद्रव्यं
गतेः सहकारिकारणम्
कुत्र भणितमास्ते इति चेत् पञ्चास्तिकायप्राभृते-
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः सक्रियनिःक्रियव्याख्यानकाले भणितमस्ति‘‘जीवा पुग्गलकाया सह
सक्किरिया हवंति ण य सेसा पुग्गलकरणा जीवा खंदा खलु कालकरणेहिं ।।’’ पुद्गल-
है कोई प्रश्न करे कि गतिका सहकारी धर्म है, कालको क्यों कहा ? उसका समाधान यह
है कि सहकारीकारण बहुत होते हैं, और उपादानकारण एक ही होता है, दूसरा द्रव्य नहीं होता,
निज द्रव्य ही निज (अपनी) गुण
पर्यायोंका मूलकारण है, और निमित्तकारण बहिरंगकारण
तो बहुत होते हैं, इसमें कुछ दोष नहीं है धर्मद्रव्य तो सबहीका गतिसहायी है, परंतु
मछलियोंको गतिसहायी जल है, तथा घटकी उत्पत्तिमें बहिरंगनिमित्त कुम्हार है, तो भी दंड,
चक्र, चीवरादिक ये भी अवश्य कारण हैं, इनके बिना घट नहीं होता, और जीवोंके धर्मद्रव्य
गतिका सहायी विद्यमान है, तो भी कर्म-नोकर्म पुद्गल सहकारीकारण हैं, इसी तरह पुद्गलको
कालद्रव्य गति सहकारीकारण जानना
यहाँ कोई प्रश्न करे कि धर्मद्रव्य तो गतिका सहायी
सब जगह कहा है, और कालद्रव्य वर्तनाका सहायी है, गति सहायी किस जगह कहा है ?
उसका समाधान श्रीपंचास्तिकायमें कुंदकुंदाचार्यने क्रियावंत और अक्रियावंतके व्याख्यानमें
कहा है
‘‘जीवा पुग्गल’’ इत्यादि इसका अर्थ ऐसा है कि जीव और पुद्गल ये दोनों
(अत्रे कोई प्रश्न करे के गमनमां धर्मद्रव्य सहकारी कारण होय छे अने आप काळने
शा माटे सहकारी कारण कहो छो? तेनुं समाधान ए छे के) सहकारी कारणो अनेक होय छे.
मत्स्यने गमनमां धर्मद्रव्य विद्यमान होवा छतां पण, जळ सहकारी निमित्त छे, घडानी उत्पत्तिमां
कुंभारनुं बहिरंग निमित्त होवा छतां पण, चाकडो, चीवरादि सहकारी निमित्त छे. जीवोने
गमनमां धर्मद्रव्य विद्यमान होवा छतां पण कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलो सहकारी कारण छे अने
पुद्गलोने गतिनुं काळद्रव्य सहकारी कारण छे.
अहीं, कोई प्रश्न करे के (धर्मद्रव्यने तो गतिनुं निमित्त बधी जग्याए कह्युं छे अने
काळद्रव्यने वर्तनानुं कारण कह्युं छे) काळद्रव्यने गतिनुं निमित्त कई जग्याए कह्युं छे?
तेनुं समाधाान :पंचास्तिकाय प्राभृतमां श्रीकुंदकुंदाचार्यदेवे सक्रिय-निष्क्रिय व्याख्यानकाळे
(गाथा-९८मां) कह्युं छे केः
‘‘जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति णय सेसा
पुग्गलकरणा जीवा खंदा खलु कालकारणेहिं ।।
२४४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२३

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स्कन्धानां धर्मद्रव्ये विद्यमानेऽपि जलवत् द्रव्यकालो गतेः सहकारिकारणं भवतीत्यर्थः अत्र
निश्चयनयेन निःक्रियसिद्धस्वरूपसमानं निजशुद्धात्मद्रव्यमुपादेयमिति तात्पर्यम् तथा चोक्तं
निश्चयनयेन निःक्रियजीवलक्षणम्‘‘यावत्क्रियाः प्रवर्तन्ते तावद् द्वैतस्य गोचराः अद्वये
निष्कले प्राप्ते निःक्रियस्य कुतः क्रिया ।।’’ ।।२३।।
क्रियावंत हैं, और शेष चार द्रव्य अक्रियावाले हैं, चलनहलन क्रियासे रहित हैं जीवको दूसरी
गतिमें गमनका कारण कर्म है, वह पुद्गल है और पुद्गलको गमनका कारण काल है जैसे
धर्मद्रव्यके मौजूद होने पर भी मच्छोंको गमनसहायी जल है, उसी तरह पुद्गलको धर्मद्रव्यके
होने पर भी द्रव्यकाल गमनका सहकारी कारण है
यहाँ निश्चयनयकर गमनादि क्रियासे रहित
निःक्रिय सिद्धस्वरूपके समान निःक्रिय निर्द्वंद्व निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, यह शास्त्रका तात्पर्य
हुआ
इसी प्रकार दूसरे ग्रन्थोंमें भी निश्चयकर हलन-चलनादि क्रिया रहित जीवका लक्षण
कहा है ‘‘यावत्क्रिया’’ इत्यादि इसका अर्थ ऐसा है कि जब-तक इस जीवके हलन-
चलनादि क्रिया है, गतिसे गत्यंतरको जाना है, तब तक दूसरे द्रव्यका सम्बन्ध है, जब दूसरेका
सम्बन्ध मिटा, अद्वैत हुआ, तब निकल अर्थात् शरीरसे रहित निःक्रिय है, उसके हलन-चलनादि
क्रिया कहाँसे हो सकती हैं; अर्थात् संसारी जीवके कर्मके सम्बन्धसे गमन है, सिद्धभगवान्
कर्मरहित निःक्रिय हैं, उनके गमनागमन क्रिया कभी नहीं हो सकती
।।२३।।
अर्थबाह्य कारण सहित रहेला जीवो अने पुद्गलो सक्रिय छे, बाकीनां द्रव्यो सक्रिय
नथी (निष्क्रिय छे). जीवो पुद्गलकरणवाळा (जेमने सक्रियपणामां पुद्गल बहिरंग साधन होय
एवा) छे अने स्कंधो अर्थात् पुद्गलो तो काळकरणवाळा (जेमने सक्रियपणामां काळ बहिरंग
साधन होय एवा) छे.
जेवी रीते माछलांने धर्मद्रव्य विद्यमान होवा छतां पण जळ गतिनुं सहकारी कारण छे
तेवी रीते पुद्गलस्कंधोने धर्मद्रव्य विद्यमान होवा छतां पण, द्रव्यकाळ गतिनुं सहकारी कारण
छे, एवो
अर्थ छे.
अहीं, निश्चयनयथी निष्क्रिय सिद्धस्वरूप समान (निष्क्रिय) निजशुद्धात्मद्रव्य उपादेय छे,
एवुं तात्पर्य छे.
बीजी जग्याए पण निश्चयनयथी निष्क्रिय जीवनुं लक्षण कह्युं छे के ‘‘यावत्क्रियाः प्रवर्तन्ते
तावद् द्वैतस्य गोचराः अद्वये निष्कले प्राप्ते निःक्रियस्य कुतः क्रिया ।।’’ अर्थज्यां सुधी आ जीवने
हलनचलनादि क्रिया वर्ते छे त्यां सुधी द्वैत जोवामां आवे छे. अद्वैत अने निष्कल थतां, निष्क्रियने
क्रिया केवी रीते होय? २३.
अधिकार-२ः दोहा-२३ ]परमात्मप्रकाशः [ २४५

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अथ पञ्चास्तिकायसूचनार्थं कालद्रव्यमप्रदेशं विहाय कस्य द्रव्यस्य कियन्तः प्रदेशा
भवन्तीति कथयति
१५०) धम्माधम्मु वि एक्कु जिऊ ए जि असंख्य-पदेस
गयणु अणंत-पएसु मुणि बहु-विह पुग्गल-देस ।।२४।।
धर्माधर्मौ अपि एकः जीवः एतानि एव असंख्यप्रदेशानि
गगनं अनन्तप्रदेशं मन्यस्व बहुविधाः पुद्गलदेशाः ।।२४।।
धम्माधम्मु वि इत्यादि धम्माधम्मु वि धर्माधर्मद्वितयमेव एक्कु जिउ एको विवक्षितो
जीवः ए जि एतान्येव त्रीणि द्रव्याणि असंख्य-पदेश असंख्येयप्रदेशानि भवन्ति गयणु गगनं
अणंत-पएसु अनन्तप्रदेशं मुणि मन्यस्व जानीहि बहु-विह बहुविधा भवन्ति के ते पुग्गल-
देस पुद्गलप्रदेशाः अत्र पुद्गलद्रव्यप्रदेशविवक्षया प्रदेशशब्देन परमाणवो ग्राह्याः न च क्षेत्रप्रदेशा
आगे पंचास्तिकायके प्रगट करनेके लिये कालद्रव्य अप्रदेशीको छोड़कर अन्य पाँच
द्रव्योंमेंसे किसके कितने प्रदेश हैं, यह कहते हैं
गाथा२४
अन्वयार्थ :[धर्माधर्मौ ] धर्मद्रव्य-अधर्मद्रव्य [अपि एकः जीवः ] और एक जीव
[एतानि एव ] इन तीनों ही को [असंख्यप्रदेशानि ] असंख्यात प्रदेशी [मन्यस्व ] तू जान,
[गगनं ] आकाश [अनंतप्रदेशं ] अनंतप्रदेशी है, [पुद्गलप्रदेशाः ] और पुद्गलके प्रदेश
[बहुविधाः ] बहुत प्रकारके हैं, परमाणु तो एकप्रदेशी है, और स्कंध संख्यातप्रदेश,
असंख्यातप्रदेश तथा अनंतप्रदेशी भी होते हैं
भावार्थ :जगत्में धर्मद्रव्य तो एक ही है, वह असंख्यातप्रदेशी है, अधर्मद्रव्य भी
एक है, असंख्यातप्रदेशी है, जीव अनंत हैं, सो एक एक जीव असंख्यात प्रदेशी हैं, आकाशद्रव्य
एक ही है, वह अनंतप्रदेशी है, ऐसा जानो
पुद्गल एक प्रदेशसे लेकर अनंतप्रदेश तक है
एक परमाणु तो एक प्रदेशी है, और जैसे जैसे परमाणु मिलते जाते हैं, वैसे वैसे प्रदेश भी
हवे, पंचास्तिकायनी सूचनार्थे अप्रदेशी काळद्रव्य सिवायना अन्य पांच द्रव्योमां क्या
द्रव्यने केटला प्रदेशो होय छे ते कहे छेः
अहीं, पुद्गलद्रव्यप्रदेशोनी विवक्षाथी (पुद्गलना कथनमां) ‘प्रदेश’ शब्दथी परमाणुओ
समजवा पण क्षेत्रना प्रदेशो न समजवा, कारण के पुद्गलोने अनंत क्षेत्रप्रदेशोनो अभाव छे.
२४६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२४