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बंधणहिँ बन्धनैः बद्धा निबद्धाः
विशेषेण मोक्षमिच्छन्ति
तो [बंधनैः बद्धाः ] बंधनोंसे बंधे [पशवोऽपि ] पशु भी [तमेव ] उस मोक्ष की ही [किं
इच्छंति ] क्यों इच्छा करें ?
अविनाभावी एवा, उपादेयरूप अनंतसुखनुं कारण छे; माटे ज्ञानीओ विशेषपणे मोक्षने इच्छे
छे. ५.
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होता, [ततः ] तो [त्रिलोकः अपि ] तीनों ही लोक [निजशिरसि ] अपने मस्तकके [उपरि ]
ऊ पर [तमेव ] उसी मोक्षको [किं धरति ] क्यों रखते ?
कोई स्थान नहीं हैं, सबके ऊ पर मोक्ष ही है, और मोक्षके आगे अनंत अलोक है, वह शून्य
है, वहाँ कोई स्थान नहीं है
अभावने मोक्ष वैशेषिको माने छे; तेनो निषेध कर्यो छे.
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वृद्धवैशेषिकास्ते निषिद्धाः
अभाव है, परंतु केवल बुद्धि अर्थात् केवलज्ञानका अभाव नहीं है, इंद्रियोंसे उत्पन्न सुखका
अभाव है, लेकिन अतीन्द्रिय सुखकी पूर्णता है, दुःख, इच्छा, द्वेष, यत्न इन विभावरूप गुणोंका
तो अभाव ही है, केवलरूप परिणमन है, व्यवहार
कहना वृथा है
छूटकर अपने घरकी तरफ गमन करता है, वह निजघर निर्वाण ही है
छे, तेनुं खंडन करवामां आव्युं छे.
नामना नैयायिको कहे छे, तेमनुं पण खंडन थयुं.
वळी, जैनमतमां तो (मोक्षमां) इन्द्रियजनित ज्ञान अने सुखनो अभाव थतां कांई
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अतीन्द्रियरूप जो केवलज्ञान है, वह वस्तुका स्वभाव है, उसका अभाव आत्मामें नहीं हो
सकता
इंद्रियादि दस प्राण अर्थात् पाँच इंद्रियाँ, मन, वचन, काय, आयु, श्वासोच्छ्वास इन दस
प्राणोंका भी अभाव है, ज्ञानादि निज प्राणोंका अभाव नहीं है
इसीलिये मोक्ष सबसे उत्तम है
सेवंते ] क्यों सेवन करते ? कभी भी न सेवते
छे. ६.
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सेवते हैं, केवलज्ञानादि गुण सहित सिद्धभगवान् निरंतर निर्वाणमें ही निवास करते हैं, ऐसा
निश्चित है
है, अनंत सारता लिये हुए है
माटे मोक्षने निरंतर सेवे? (पण सिद्ध भगवंतो निरंतर मोक्षने सेवे छे) तेथी जणाय छे के
ते (मोक्ष) उत्तम सुखने आपे छे. सिद्धना सुखनुं स्वरूप (श्री पूज्यपादकृत सिद्धभक्ति गाथा
७मां) पण कह्युं छे केः
वृद्धिह्रासव्यपेतं विषयविरहितं निःप्रतिद्वन्द्वभावम्
मुत्कृष्टानन्तसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम्
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अन्य भी भव्य जीव [परमनिरंजने ] परम निरंजनमें [मनः धृत्वा ] मन रखकर [सर्वे ] सब
ही [मोक्षं ] मोक्षको [एव ] ही [ध्यायंति ] ध्यावते हैं
रहित), अन्य द्रव्यनी अपेक्षा वगरनुं, निरुपम, अमित, शाश्वत, सदाकाळ, उत्कृष्ट अने अनंत
सारवाळुं एवुं परमसुख हवे सिद्धभगवानने उत्पन्न थयुं.]
हवे, सर्व परमपुरुषोए मोक्ष ज ध्याववा योग्य छे, एम कहे छेः
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स्वभावनिजात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नवीतराग-
सहजानन्दैकसुखरसानुभवेन पूर्णकलशवत् भरितावस्थे निरञ्जनशब्दाभिधेयपरमात्मध्याने स्थित्वा
मोक्षमेव ध्यायन्ति
निर्विकल्पत्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिकाले निजशुद्धात्मैव ध्येय इति
अतीन्द्रियसुखरस उसके अनुभवसे पूर्ण कलशकी तरह भरे हुए निरंतर निराकार निजस्वरूप
परमात्माके ध्यानमें स्थिर होकर मुक्त होते हैं
वीतरागके नाममंत्रके अक्षर अथवा वीतरागके सेवक महामुनि ध्यावने योग्य हैं, तो भी वीतराग
निर्विकल्प तीन गुप्तिरूप परमसमाधिके समय अपना शुद्ध आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, अन्य
कोई भी दूसरा पदार्थ पूर्ण अवस्थामें ध्यावने योग्य नहीं है
वीतराग सहजानंदरूप सुखरसना अनुभवथी पूर्णकलशनी जेम परिपूर्ण एवा निरंजन शब्दथी
कहेवा योग्य परमात्माना ध्यानमां स्थित थईने एक मोक्षने ज ध्यावे छे.
वीतराग निर्विकल्प त्रिगुप्ति वडे गुप्त परमसमाधिकाळमां शुद्ध आत्मा ज ध्याववा योग्य छे. ८.
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एक सुखका कारण मोक्ष ही है [तेन ] इस कारण तू [परं एकं तम् एव ] नियमसे एक
मोक्षका ही [विचिंतय ] चिंतवन कर जिसे कि महामुनि भी चिंतवन करते हैं
नथी, तेथी हे प्रभाकरभट्ट! तुं वीतराग निर्विकल्प परम सामायिकमां स्थित थईने निज
शुद्धात्मस्वभावने ध्याव.
शी रीते थाय?)
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रूपावलोकनादिलोचनविषयो नास्ति श्रवणरमणीयगीतवाद्यादिशब्दविषयोऽपि नास्तीति तस्मात्
ज्ञायते तत्सुखमात्मोत्थमिति
निरोधे सति विशेषेणोपलभ्यते
और गंधमाल्यादिक नाकका विषय भी नहीं है, दिव्य स्त्रियोंका रूप अवलोकनादि नेत्रका विषय
भी नहीं, और कानोंका मनोज्ञ गीत वादित्रादि शब्द विषय भी नहीं हैं, इसलिये जानते हैं कि
सुख आत्मामें ही है
पुरुषे तेने पूछ्युं के ‘तमे आनंदमां छो ने? त्यारे तेणे कह्युं के ‘आनंद वर्ते छे’ ते सुख आत्माथी
उत्पन्न थयुं छे. जो तमे कहो के शा माटे? तो तेनो उत्तर ए छे के ते समये स्त्रीसेवनादि
स्पर्शनो विषय नथी, भोजनादि जिह्वा-इन्द्रियनो विषय नथी, विशिष्टरूप गंधमाळादि घ्राणेन्द्रियनो
विषय नथी, दिव्य स्त्री-पुरुषनां अवलोकनादि नेत्रनो विषय नथी, कर्णने प्रिय गीत वाद्यादि
शब्दनो विषय नथी, तेथी एम जणाय छे के ते सुख आत्माथी उत्पन्न थयुं छे.
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निर्व्याकुलता प्रगट ही दिख रही है, वे इंद्रादिक देवोंसे भी अधिक सुखी हैं
है ? यद्यपि वे सिद्ध दृष्टिगोचर नहीं हैं, तो भी अनुमान कर ऐसा जाना जाता है, कि सिद्धोंके
भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म नहीं, तथा विषयोंकी प्रवृत्ति नहीं है, कोई भी विकल्प
आत्मजनित है, तथा विषय
थाय छे. आ सुख तो स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी गम्य छे अने सिद्धोनुं सुख तो अनुमानथी पण
जणाय छे. ते आ प्रमाणेः
समाधिस्थ परमयोगीओने, पंचेन्द्रिविषय व्यापारनो अभाव होवा छतां पण, पोताना आत्माथी
उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप सुखनी उपलब्धि होय छे.
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नियमसे तू [मोक्षं मन्यस्व ] मोक्ष जान, ऐसा [ज्ञानिनः साधवः ] ज्ञानवान् मुनिराज [ब्रुवंति ]
कहते हैं, रत्नत्रयके योगसे मोक्षका साधन करते हैं, इससे उनका नाम साधु है
अनंतगुणनी व्यक्तिरूप कार्यसमयसारभूत परमात्मानी प्राप्ति ते खरेखर मोक्ष छे, एम
साधुज्ञानीओ कहे छे.
मोक्षसाधका = साधव इति ।
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ज्ञानीजन कहते हैं
देकर अनंत गुणोंका समूह [समयं न त्रुटयति ] एक समयमात्र भी नाश नहीं होता, अर्थात्
हमेशा अनंत गुण पाये जाते हैं
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न नश्यति जासु यस्य मोक्षपर्यायस्याभेदेन तदाधारजीवस्य वा सो पर तदेव केवलज्ञानादिस्वरूपं
सासउ मोक्ख-फलु शाश्वतं मोक्षफलं भवति
त्यार पछी ओगणीस सूत्रो सुधी निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गना व्याख्याननुं स्थळ कहे
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णिच्छएं निश्चयनयेन एहउ वुत्तु एवमुक्तं भणितं तिष्ठतीति
साध्यो भवति, एवं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधकभावो ज्ञातव्यः सुवर्णसुवर्णपाषाणवत्
इति
ही [निश्चयेन ] निश्चयकर [आत्मानं ] आत्माको ही [मन्यस्व ] जाने [एवं ] ऐसा [उक्तम् ]
श्री वीतरागदेवने कहा है, ऐसा हे प्रभाक रभट्ट; तू जान
मोक्षका कारण है
अने सम्यक्चारित्रमय निज आत्माने निश्चयथी मोक्षनुं कारण जाणो) १२.
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[दर्शनं ज्ञानं चारित्रं ] दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणत हुआ [जीवः ] जीव [मोक्षस्य कारणं ]
मोक्षका कारण है
शुद्धात्मा ही उपादेय है, इसप्रकार रुचिरूप निश्चय करता है, वीतराग स्वसंवेदनलक्षण ज्ञानसे
जानता है, और सब रागादिक विकल्पोंके त्यागसे निज स्वरूपमें स्थिर होता है, सो
निश्चयरत्नत्रयको परिणत हुआ पुरुष ही मोक्षका मार्ग है
आत्मा ज उपादेय छे एवी रुचिरूपे निर्णय करे छे, मात्र निश्चय करे छे एटलुं ज नहि पण
वीतरागस्वसंवेदन जेनुं लक्षण छे एवा अभेदज्ञानथी जाणे छे-परिच्छेदन करे छे, मात्र
परिच्छेदन करे छे एटलुं ज नहि पण रागादि समस्त विकल्पोनो त्याग करीने अनुचरे छे
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लक्षणाभेदज्ञानेन जानाति परिच्छिनत्ति
निश्चयमोक्षमार्गो भवतीति
मोक्षमार्गो भवति यदि भवति चेत्तर्हि तत्सत्तावलोकदर्शनमभव्यानामपि विद्यते तेषामपि मोक्षो
नहीं और तुमने कहा कि जो देखे वह दर्शन, जानें वह ज्ञान, और आचरण करे वह चारित्र
है
आदि सात प्रकृतियोंका उपशम क्षयोपशम क्षय नहीं है, तथा शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी
अवलोके छे ते दर्शन’ ए प्रमाणे आपे जे कह्युं ते सत्तावलोकनरूप दर्शन केवी रीते मोक्षनुं कारण
थाय? जो आप कहेशो के तेवुं देखवारूप दर्शन मोक्षनुं कारण थाय तो ते सत्तावलोकनदर्शन
अभव्योने पण वर्ते छे, तो तेमनो पण मोक्ष थाय. पण अभव्यनो मोक्ष थाय तो आगमनो
विरोध आवे छे.
छे, अंतरंग शुद्धात्मतत्त्वनुं दर्शन तो अभव्योने होतुं नथी.) तमे कहेशो के केम? तो तेनुं
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भावार्थः
शुद्धात्माका सत्तावलोकन भी उसके कभी नहीं है
चारित्रमोहना उदयथी वीतरागचारित्ररूप निर्विकल्प शुद्धात्मसत्तावलोकन पण तेने संभवतुं नथी,
एवो भावार्थ छे.
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[त्वं ] तू [परिजानीहि ] जान, [येन ] जिससे कि [परः पवित्रः ] उत्कृष्ट अर्थात् पवित्र
[भवसि ] होवे
संदेह नहीं है
व्यवहारमोक्ष
शुद्ध आत्मानां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्अनुष्ठानरूप निश्चयमोक्षमार्ग छे; अथवा
व्यवहारमोक्षमार्ग साधक छे; निश्चयमोक्षमार्ग साध्य छे.
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समाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थः
क्रिया मिट जावे, तब गुरु वह अध्यात्मका अधिकारी हो सकता है
व्यवहाररत्नत्रय कहा है
समाधिरूप साध्य है, यह तात्पर्य हुआ
व्यवहारमोक्षमार्ग केवी रीते साधक छे? अहीं प्रश्ननो परिहार करे छेः
त्यां ‘हुं अनंतज्ञानरूप छुं इत्यादि सविकल्परूप साधक छे अने निर्विकल्प समाधिरूप साध्य छे,
एवो भावार्थ छे.’
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वह तो आस्रव सहित है, और जो निर्विकल्प है, वह आस्रव रहित है
सहित छे अने जे निर्विकल्प छे ते आस्रव रहित छे.) १४.