Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 116,117,118,119,120,121,122,123*1,123*2,123*3 (Adhikar 1),1 (Adhikar 2) Mokshani Babatama Prashna,2 (Adhikar 2) Mokshna Vishayno Uttar,3 (Adhikar 2),4 (Adhikar 2),5 (Adhikar 2); Dvitiya-Mahadhikar.

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अधिकार-१ः दोहा-११६ ]परमात्मप्रकाशः [ १८७
विशदाः ।।’’ ।।११५।।
अथ शिवशब्दवाच्ये निजशुद्धात्मनि ध्याते यत्सुखं भवति तत्सूत्रत्रयेण प्रतिपादयति
११६) जं सिवदंसणि परम-सुहु पावहि झाणु करंतु
तं सुहु भुवणि वि अत्थि णवि मेल्लिवि देउ अणंतु ।।११६।।
यत् शिवदर्शने परमसुखं प्राप्नोषि ध्यानं कुर्वन्
तत् सुखं भुवनेऽपि अस्ति नैव मुक्त्वा देवं अनन्तम् ।।११६।।
जमित्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियतेजं यत् सिवदंसणि स्वशुद्धात्मदर्शने
परमसुहु परमसुखं पावहि प्राप्नोषि हे प्रभाकरभट्ट किं कुर्वन् सन् झाणु करंतु ध्यानं कुर्वन्
सन् तं सुहु तत्पूर्वोक्त सुखं भुवणि वि भुवनेऽपि अत्थि णवि अस्ति नैव किं कृत्वा मेल्लिवि
रागभावसे परस्त्री आदिका चिंतवन करे उस अपध्यानके दो भेद हैं, एक आर्त्त दूसरा रौद्र
सो ये दोनों ही नरक, निगोदके कारण हैं, इसलिये विवेकियोंको त्यागने योग्य हैं ।।११५।।
आगे शिव शब्दसे कहे गये निज शुद्ध आत्माके ध्यान करने पर जो सुख होता है,
उस सुखको तीन दोहा-सूत्रोंमें वर्णन करते हैं
गाथा११६
अन्वयार्थ :[यत् ] जो [ध्यानं कुर्वन् ] ध्यान करता हुआ [शिवदर्शने परमसुखं ]
निज शुद्धात्माके अवलोकनमें अत्यंत सुख [प्राप्नोषि ] हे प्रभाकर, तू पा सकता है, [तत्
सुखं ] वह सुख [भुवने अपि ] तीनलोकमें भी [अनन्तम् देवं मुक्त्वा ] परमात्म द्रव्यके
सिवाय [नैव अस्ति ] नहीं है
भावार्थ :शिव नाम कल्याणका है, सो कल्याणरूप ज्ञानस्वभाव निज शुद्धात्माको
जानो, उसका जो दर्शन अर्थात् अनुभव उसमें सुख होता है, वह सुख परमात्माको छोड़
जिनशासनमां विचक्षण पुरुषो (ज्ञाता पुरुषो) आर्तध्यान कहे छे. ११५.
हवे, ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवा निजशुद्धात्मानुं ध्यान करतां, जे सुख थाय छे तेनुं कथन
त्रण गाथासूत्रोथी करे छेः
भावार्थअहीं, ‘शिव’ शब्दथी विशुद्धज्ञानस्वभाववाळो निजशुद्धात्मा जाणवो.
वीतराग निर्विकल्प त्रिगुप्तियुक्त समाधिने करतो थको तुं शिवदर्शनमां अर्थात् तेनुं दर्शन-

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१८८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-११६
मुक्त्वा कम् देउ देवम् कथंभूतम् अणंतु अनन्तशब्दवाच्यपरमात्मपदार्थमिति तथाहि
शिवशब्देनात्र विशुद्धज्ञानस्वभावो निजशुद्धात्मा ज्ञातव्यः तस्य दर्शनमवलोकनमनुभवनं तस्मिन्
शिवदर्शने परमसुखं निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमाह्लादरूपं लभसे
किं कुर्वन् सन्
वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिं कुर्वन् इत्थंभूतं सुखं अनन्तशब्दवाच्यो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तं
मुक्त्वा त्रिभुवनेऽपि नास्तीति अयमत्रार्थः शिवशब्दवाच्यो योऽसौ निजपरमात्मा स एव
रागद्वेषमोहपरिहारेण ध्यातः सन्ननाकुलत्वलक्षणं परमसुखं ददाति नान्यः कोऽपि शिवनामेति
पुरुषः
।। ।।११६।। अथ
११७) जं मुणि लहइ अणंतसुहु णियअप्पा झायंतु
तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहिँ कोडि रमंतु ।।११७।।
तीनलोकमें नहीं है वह सुख क्या है ? जो निर्विकल्प वीतराग परम आनंदरूप शुद्धात्मभाव
है, वही सुखी है क्या करता हुआ यह सुख पाता है कि तीन गुप्तिरूप परमसमाधिमें आरूढ़
हुआ सता ध्यानी पुरुष ही उस सुखको पाता है अनंत गुणरूप आत्म-तत्त्वके बिना वह सुख
तीनों लोकके स्वामी इन्द्रादिको भी नहीं है इस कारण सारांश यह निकला कि शिव नामवाला
जो निज शुद्धात्मा है, वही राग-द्वेष मोहके त्यागकर ध्यान किया गया आकुलता रहित परम
सुखको देता है
संसारी जीवोंके जो इन्द्रियजनित सुख है, वह आकुलतारूप है, और आत्मीक
अतीन्द्रियसुख आकुलता रहित है, सो सुख ध्यानसे ही मिलता है, दूसरा कोई शिव या ब्रह्मा
या विष्णु नामका पुरुष देनेवाला नहीं है
आत्माका ही नाम शिव है, विष्णु है, ब्रह्मा है ।।११६।।
आगे कहते हैं कि जो सुख आत्माको ध्यावनेसे महामुनि पाते हैं, वह सुख इन्द्रादि
देवोंको दुर्लभ है
अवलोकनअनुभवनतेमां निजशुद्धात्मानी भावनाथी उत्पन्न वीतराग परम आह्लादरूप परम
सुख तुं पामी शके तेवुं सुख, ‘अनंत’ शब्दथी वाच्य एवो जे आ परमात्मपदार्थ छे तेने छोडीने,
त्रण भुवनमां (क्यांय पण) नथी.
अहीं, ए अर्थ छे के ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवो जे निजपरमात्मा छे ते ज
रागद्वेषमोहना त्याग वडे ध्यान करवामां आवतां, अनाकुळता जेनुं लक्षण छे एवा परमसुखने
आपे छे; बीजो कोई ‘शिव’ नामनो पुरुष परमसुखने आपतो नथी. ११६.
हवे, कहे छे के जे सुख आत्मानुं ध्यान करवाथी महामुनि पामे छे ते सुख इन्द्रादि
देवोने दुर्लभ छेः

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अधिकार-१ः दोहा-११७ ]परमात्मप्रकाशः [ १८९
यत् मुनिः लभते अनन्तसुखं निजात्मानं ध्यायन्
तत् सुखं इन्द्रोऽपि नैव लभते देवीनां कोटिं रम्यमाणः ।।११७।।
जमित्यादि जं यत् मुणि मुनिस्तपोधनः लहइ लभते अणंतसुहु अनन्तसुखम् किं
कुर्वन् सन् णियअप्पा ज्ञायंतु निजात्मानं ध्यायन् सन् तं सुहु तत्पूर्वोक्तं सुखं इंदु वि
णवि लहइ इन्द्रोऽपि नैव लभते किं कुर्वन् सन् देविहिं कोडि रमंतु देवीनां कोटिं रमयन्
अनुभवन्निति अयमत्र तात्पर्यार्थः बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः स्वशुद्धात्मतत्त्व-
भावनोत्पन्नवीतरागपरमानन्दसहितो मुनिर्यत्सुखं लभते तद्देवेन्द्रादयोऽपि न लभन्त इति तथा
चोक्त म्‘‘दह्यमाने जगत्यस्मिन्महता मोहवह्निना विमुक्त विषयासंगाः सुखायन्ते
तपोधनाः ।।११७।।
गाथा११७
अन्वयार्थ :[निजात्मनं ध्यायन् ] अपनी आत्माको ध्यावता [मुनिः ] परम तपोधन
(मुनि) [यत् अनन्तसुखं ] जो अनंतसुख [लभते ] पाता है, [तत् सुखं ] उस सुखको [इन्द्रः
अपि ] इन्द्र भी [देवीनां कोटिं रम्यमाणः ] करोड़ देवियोंके साथ रमता हुआ [नैव ] नहीं
[लभते ] पाता
भावार्थ :बाह्य और अंतरंग परिग्रहसे रहित निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ
जो वीतराग परमानंद सहित महामुनि जो सुख पाता है, उस सुखको इन्द्रादि भी नहीं पाते
जगत्में सुखी साधु ही हैं, अन्य कोई नहीं यही कथन अन्य शास्त्रोंमें भी कहा है‘‘दह्यमाने
इत्यादि’’ इसका अर्थ ऐसा है कि महामोहरूपी अग्निसे जलते हुए इस जगत्में देव, मनुष्य,
तिर्यञ्च, नारकी सभी दुःखी हैं, और जिनके तप ही धन है, तथा सब विषयोंका संबंध जिन्होंने
छोड़ दिया है, ऐसा साधु मुनि जगत्में सुखी हैं
।।११७।।
आगे ऐसा कहते हैं कि वैरागी मुनि ही निज आत्माको जानते हुए निर्विकल्प सुखको
पाते हैं
भावार्थबाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित, स्वशुद्धात्मतत्त्वनी भावनाथी उत्पन्न वीतराग
परमानंद सहित मुनि जे सुख पामे छे ते सुख देवेन्द्रादि पण पामता नथी. ए तात्पयार्थ छे.
वळी कह्युं पण छे के
‘‘दह्यमाने जगत्यस्मिन्महता मोहवह्निना विमुक्त विषयासंगा सुखायन्ते तपोधनः ।।
[अर्थमहामोहरूपी अग्निथी बळता आ जगतमां (बधा जीवो दुःखी छे, मात्र) जेमणे सर्व
विषयनो संग छोडी दीधो छे एवा मुनिओ ज सुखी छे.] ११७.
हवे, वैरागी मुनि ज निज आत्माने जाणतो थको निर्विकल्प सुखने पामे छे, एम हवे
कहे छेः

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१९० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-११८
११८) अप्पादंसणि जिणवरहँ जं सुहु होइ अणंतु
तं सुहु लहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु ।।११८।।
आत्मदर्शने जिनवराणां यत् सुखं भवति अनन्तम्
तत् सुखं लभते विरागः जीवः जानन् शिवं शान्तम् ।।११८।।
अप्पा इत्यादि अप्पादंसणि निजशुद्धात्मदर्शने जिणवरहं छद्मस्थावस्थायां जिनवराणां
जं सुहु होइ अणंतु यत्सुखं भवत्यनन्तं तं सुहु तत्पूर्वोक्त सुखं लहइ लभते कोऽसौ विराउ
जिउ वीतरागभावनापरिणतो जीवः किं कुर्वन् सन् जाणंतउ जानन्ननुभवन् सन् कम् सिउ
शिवशब्दवाच्यं निजशुद्धात्मस्वभावम् कथंभूतम् संतु शान्तं रागादिविभावरहितमिति अयमत्र
भावार्थः दीक्षाकाले शिवशब्दवाच्यस्वशुद्धात्मानुभवने यत्सुखं भवति जिनवराणां
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतो जीवस्तत्सुखं लभत इति ।।११८।।
अथ कामक्रोधादिपरिहारेण शिवशब्दवाच्यः परमात्मा द्रश्यत इत्यभिप्रायं मनसि संप्रधार्य
गाथा११८
अन्वयार्थ :[आत्म दर्शने ] निज शुद्धात्माके दर्शनमें [यत् अनन्तम् सुखं ] जो
अनंत अद्भुत सुख [जिनवराणां ] मुनि-अवस्थामें जिनेश्वरदेवोंके [भवति ] होता है, [तत् सुखं ]
वह सुख [विरागः जीवः ] वीतरागभावनाको परिणत हुआ मुनिराज [शिवं शांतं जानन् ] निज
शुद्धात्मस्वभावको तथा रागादि रहित शांत भावको जानता हुआ [लभते ] पाता है
भावार्थ :निज शुद्धात्माके दर्शनमें जो अनंत अद्भुत सुख मुनि-अवस्थामें
जिनेश्वरदेवोंके होता है, वह सुख वीतरागभावनाको परिणत हुआ मुनिराज निज शुद्धात्मस्वभावको
तथा रागादि रहित शांत भावको जानता हुआ पाता है
दीक्षाके समय तीर्थंकरदेव निज शुद्ध
आत्माको अनुभवते हुए जो निर्विकल्प सुख पाते हैं, वही सुख रागादि रहित निर्विकल्प-
समाधिमें लीन विरक्त मुनि पाते हैं
।।११८।।
आगे काम क्रोधादिके त्यागनेसे शिव शब्दसे कहा गया परमात्मा दीख जाता है, ऐसा
भावार्थदीक्षा समये ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवा स्वशुद्धात्माना अनुभवमां
जिनवरोने जे सुख थाय छे ते सुख वीतराग निर्विकल्प समाधिमां रत जीव (विरक्त मुनि) पामे
छे. ११८.
हवे, कामक्रोधादिना परिहार वडे ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवो परमात्मा देखाय छे, एवो

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अधिकार-१ः दोहा-११९ ]परमात्मप्रकाशः [ १९१
सूत्रमिदं कथयन्ति
११९) जोइय णिय-मणि णिम्मलए पर दीसइ सिउ संतु
अंबरि णिम्मलि घणरहिए भाणु जि जेम फु रंतु ।।११९।।
योगिन् निजमनसि निर्मले परं द्रश्यते शिवः शान्तः
अम्बरे निर्मले घनरहिते भानुः इव यथा स्फु रन् ।।११९।।
जोइय इत्यादि जोइय हे योगिन् णियमणि निजमनसि कथंभूते णिम्मलए निर्मले
परं नियमेन दीसइ द्रश्यते कोऽसौ कर्मतापन्नः सिउ शिवशब्दवाच्यो निजपरमात्मा
कथंभूतः संतु शान्तः रागादिरहितः द्रष्टान्तमाह अम्बरे आकाशे कथंभूते णिम्मलि
निर्मले पुनरपि कथंभूते घणरहिए घनरहिते क इव भाणु जि भानुरिव यथा किं कुर्वन्
फु रंतु स्फु रन् प्रकाशमान इति अयमत्र तात्पर्यार्थः यथा घनघटाटोपविघटने सति
निर्मलाकाशे दिनकरः प्रकाशते तथा शुद्धात्मानुभूतिप्रतिपक्षभूतानां कामक्रोधादि-
विकल्परुपघनानां विनाशे सति निर्मलचित्ताकाशे केवलज्ञानाद्यनन्तगुणकरकलितः
अभिप्राय मनमें रखकर यह गाथा-सूत्र कहते हैं
गाथा११९
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [निर्मले निजमनसि ] निर्मल अपने मनमें [शिवः
शांतः ] निज परमात्मा रागादि रहित [परं ] नियमसे [दृश्यते ] दिखता है, [यथा ] जैसे
[धनरिहते निर्मले ] बादल रहित निर्मल [अंबरे ] आकाशमें [भानुः इव ] सूर्यके समान
[स्फु रन् ] भासमान (प्रकाशमान) है
भावार्थ :जैसे मेघमालाके आडंबरसे सूर्य नहीं भासतादिखता और मेघके
आडंबरके दूर होने पर निर्मल आकाशमें सूर्य स्पष्ट दिखता है, उसी तरह शुद्ध आत्माकी
अनुभूतिके शत्रु जो काम-क्रोधादि विकल्परूप मेघ हैं, उनके नाश होने पर निर्मल
अभिप्राय मनमां राखीने आ गाथासूत्र कहे छेः
भावार्थजेवी रीते घटाटोप वादळां वीखराई जतां, निर्मळ आकाशमां सूर्य प्रकाशे
छे तेवी रीते शुद्धात्मानी अनुभूतिथी प्रतिपक्षभूत कामक्रोधादि विकल्परूप वादळांओनो नाश थतां,
१ पाठान्तरःकथयन्ति = प्रतिपादयति

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१९२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१२०
निजशुद्धात्मादित्यः प्रकाशं करोतीति ।।११९।।
अथ यथा मलिने दर्पणे रूपं न द्रश्यते तथा रागादिमलिनचित्ते शुद्धात्मस्वरूपं न द्रश्यत
इति निरूपयति
१२०) राएँ रंगिए हियवडए देउ ण दीसइ संतु
दप्पणि मइलए बिंबु जिम एहउ जाणि णिभंतु ।।१२०।।
रागेन रञ्जिते हृदये देवः न द्रश्यते शान्तः
दर्पणे मलिने बिम्बं यथा एतत् जानीहि निर्भ्रान्तम् ।।१२०।।
राएं इत्यादि राएं रंगिए हियवडए रागेन रज्जिते हृदये देउ ण दीसइ देवो न द्रश्यते
किंविशिष्टः संतु शान्तो रागादिरहितः द्रष्टांतमाह दप्पणि मइलए दर्पणे मलिने बिंबु जिम
मनरूपी आकाशमें केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप किरणोंकर सहित निज शुद्धात्मारूपी सूर्य
प्रकाश करता है
।।११९।।
आगे जैसे मैले दर्पणमें रूप नहीं दीखता, उसी तरह रागादिकर मलिन चित्तमें शुद्ध
आत्मस्वरूप नहीं दिखता, ऐसा कहते हैं
गाथा१२०
अन्वयार्थ :[रागेन रंजिते ] रागकरके रंजित [हृदये ] मनमें [शांतः देवः ] रागादि
रहित आत्म देव [न दृश्यते ] नहीं दीखता, [यथा ] जैसे कि [मलिने दर्पणे ] मैले दर्पणमें
[बिंबं ] मुख नहीं भासता [एतत् ] यह बात हे प्रभाकर भट्ट, तू [निर्भ्रान्तम् ] संदेह रहित
[जानीहि ] जान
भावार्थ :ऐसा श्री योगीन्द्राचार्यने उपदेश दिया है कि जैसे सहस्र किरणोंसे शोभित
सूर्य आकाशमें प्रत्यक्ष दिखता है, लेकिन मेघसमूहकर ढँका हुआ नहीं दिखता, उसी तरह
निर्मळ चित्तरूपी आकाशमां केवळज्ञानादि अनंतगुणरूपी किरणोथी युक्त निजशुद्धात्मारूपी सूर्य
प्रकाश करे छे, ए तात्पर्यार्थ छे. ११९.
हवे, जेवी रीते मलिन दर्पणमां रूप देखातुं नथी तेवी रीते रागादिथी मलिन चित्तमां
शुद्धात्मस्वरूप देखातुं नथी, एम कहे छेः
भावार्थजेवी रीते मेघपटलथी आच्छादित थयेलो, (सहस्र किरणोथी) शोभित सूर्य
विद्यमान होवा छतां पण, देखातो नथी तेवी रीते कामक्रोधादि विकल्परूप वादळांथी आच्छादित

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अधिकार-१ः दोहा-१२१ ]परमात्मप्रकाशः [ १९३
बिम्बं यथा एहउ एतत् जाणि जानीहि हे प्रभाकरभट्ट णिभंतु निर्भ्रान्तं यथा भवतीति
अयमत्राभिप्रायः यथा मेघपटलप्रच्छादितो विद्यमानोऽपि सहस्रकरो न द्रश्यते तथा
केवलज्ञानकिरणैर्लोकालोकप्रकाशकोऽपि कामक्रोधादिविकल्पमेघप्रच्छादितः सन् देहमध्ये
शक्ति रूपेण विद्यमानोऽपि निजशुद्धात्मा दिनकरो न
द्रश्यते इति ।।१२०।।
अथानन्तरं विषयासक्तानां परमात्मा न द्रश्यत इति दर्शयति
१२१) जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि
ऐक्कहिँ केम समंति वढ बे खंडा पडियारि ।।१२१।।
यस्य हरिणाक्षी हृदये तस्य नैव ब्रह्म विचारय
एकस्मिन् कथं समायातौ वत्स द्वौ खंडौ प्रत्याकारे (?) ।।१२१।।
जसु इत्यादि जसु यस्य पुरुषस्य हरिणच्छि हरिणाक्षी स्त्री हियवडए हृदये
केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप किरणोंकर लोक-अलोकका प्रकाशनेवाला भी इस देह (घट) के
बीचमें शक्तिरूपसे विद्यमान निज शुद्धात्मस्वरूप (परमज्योति चिद्रूप) सूर्य काम-क्रोधादि राग
-द्वेष भावोंस्वरूप विकल्प-जालरूप मेघसे ढँका हुआ नहीं दिखता
।।१२०।।
आगे जो विषयोंमें लीन हैं, उनको परमात्माका दर्शन नहीं होता, ऐसा दिखलाते हैं
गाथा१२१
अन्वयार्थ :[यस्य हृदये ] जिस पुरुषके चित्तमें [हरियाक्षी ] मृगके समान
नेत्रवाली स्त्री [वसति ] बस रही है [तस्य ] उसके [ब्रह्म ] अपना शुद्धात्मा [नैव ] नहीं है,
अर्थात् उसके शुद्धात्माका विचार नहीं होता, ऐसा हे प्रभाकर भट्ट, तू अपने मनमें [विचारय ]
विचार कर
बड़े [बत ] खेदकी बात है कि [इकस्मिन् ] एक [प्रतिकारे ] म्यानमें [द्वौ
खङ्गो ] दो तलवारें [कथं समायातौ ] कैसे आ सकती हैं ? कभी नहीं समा सकतीं
भावार्थ :वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकर उत्पन्न हुआ अनाकुलतारूप परम आनंद
थयो थको, केवळज्ञानरूप किरणोथी लोकालोकनो प्रकाशक निजशुद्धात्मारूप सूर्य शरीरमां शक्तिरूपे
विद्यमान होवा छतां पण देखातो नथी, ए अभिप्राय छे. १२०.
त्यार पछी ‘विषयासक्त’ जीवोने (जेओ विषयोमां आसक्त छे तेमने) परमात्मा देखातो
नथी, एम दर्शावे छेः
भावार्थवीतराग निर्विकल्प परम समाधिथी उत्पन्न, अनाकुळता जेनुं लक्षण छे

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१९४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१२१
वसतीति क्रियाध्याहारः, तसु तस्य णवि नैवास्ति कोऽसौ बंभु ब्रह्मशब्दवाच्यो
निजपरमात्मा वियारी एवं विचारय त्वं हे प्रभाकरभट्ट अत्रार्थे द्रष्टांतमाह एक्कहिं केम
एकस्मिन् कथं समंति सम्यग्मिमाते सम्यगवकाशं कथं लभेते वढ बत बे खंडा द्वो
खड्गौ असी
क्वाधिकरणभूते पडियारी प्रतिकारे (?) कोशशब्दवाच्ये इति तथाहि
वीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधिसंजातानाकुलत्वलक्षणपरमानन्दसुखामृतप्रतिबन्धकैराकुलत्वोत्पादकैः
स्त्रीरूपावलोकनचिन्तादिसमुत्पन्नहावभावविभ्रमविलासविकल्पजालैर्मूर्च्छिते वासिते रञ्जिते परिणते
चित्ते त्वेकस्मिन् प्रतिहारे (?) खड्गद्वयवत्परमब्रह्मशब्दवाच्यनिजशुद्धात्मा कथमवकाशं लभते
न कथमपीति भावार्थः
हावभावविभ्रमविलासलक्षणं कथ्यते ‘‘हावो मुखविकारः
स्याद्भावश्चित्तोत्थ उच्यते विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रूयुगान्तयोः ।।’’ ।।१२१।।
अतीन्द्रिय-सुखरूप अमृत है, उसके रोकनेवाले तथा आकुलताको उत्पन्न करनेवाले जो
स्त्रीरूपके देखनेकी अभिलाषादिसे उत्पन्न हुए हाव (सुख-विकार) भाव अर्थात् चित्तका
विकार, विभ्रम अर्थात् मुँहका टेढ़ा करना, विलास अर्थात् नेत्रोंके कटाक्ष इन स्वरूप
विकल्पजालोंकर, मूर्छित रंजित परिणाम चित्तमें ब्रह्मका (निज शुद्धात्माका) रहना कैसे
हो सकता है ? जैसे कि एक म्यानमें दो तलवारें कैसे आ सकती हैं ? नहीं आ सकतीं
उसी तरह एक चित्तमें ब्रह्म-विद्या और विषय-विनोद ये दोनों नहीं समा सकते जहाँ
ब्रह्म-विचार हे, वहाँ विषय-विकार नहीं है, जहाँ विषय-विकार हैं वहाँ ब्रह्म-विचार नहीं
है
इन दोनोंमें आपसमें विरोध है हाव भाव विभ्रम विलास इन चारोंका लक्षण दूसरी
जगह भी कहा है ‘‘हावो मुखविकारः’’ इत्यादि, उसका अर्थ ऊ पर कर चुके हैं, इससे
दूसरी बार नहीं करा ।।१२१।।
एवा परमानंदरूप जे सुखामृतने प्रतिबंधक, आकुळताना उत्पादक एवा स्त्रीरूपने देखवानी
अभिलाषाथी उत्पन्न हाव, भाव, विभ्रम, विलासना विकल्पजाळथी मूर्छित-वासित-रंजित
-परिणत-चित्तमां, एक म्यानमां बे तलवार न समाय तेनी जेम, ‘ब्रह्म’ शब्दथी वाच्य एवो
निजशुद्धात्मा केवी रीते अवकाश मेळवे? ए भावार्थ छे. (अर्थात् न मेळवे.)
हाव, भाव, विभ्रम, विलासनुं स्वरूप कहे छे.
‘‘हावो मुखविकारः स्याद्भावश्चित्तोत्थ उच्यते विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रूयुगान्तयोः ।।’’
(अर्थमुखविकार ते हाव छे, चित्तविकार ते भाव छे, नेत्रनो विकार ते विलास छे, बन्ने
भम्मरना छेडानो विकार ते विभ्रम छे.) १२१.

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अधिकार-१ः दोहा-१२२ ]परमात्मप्रकाशः [ १९५
अथ रागादिरहिते निजमनसि परमात्मा निवसतीति दर्शयति
१२२) णिय-मणि णिम्मलि णाणियहँ णिवसइ देउ अणाइ
हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ पडिहाइ ।।१२२।।
निजमनसि निर्मले ज्ञानिनां निवसति देवः अनादिः
हंसः सरोवरे लीनः यथा मम ईद्रशः प्रतिभाति ।।१२२।।
णियमणि इत्यादि णियमणि निजमनसि किंविशिष्टे णिम्मलि निर्मले
रागादिमलरहिते केषां मनसि णाणियहं ज्ञानिनां णिवसइ निवसति कोऽसौ देउ देवः
आराध्यः किंविशिष्टः अणाइ अनादिः क इव कुत्र हंसा सरवरि लीणु जिम हंसः सरोवरे
लीनो यथा हे प्रभाकरभट्ट महु एहउ पडिहाइ ममैवं प्रतिभातीति तथाहि पूर्वसूत्रकथितेन
आगे रागादि रहित निज मनमें परमात्मा निवास करता है, ऐसा दिखाते हैं
गाथा१२२
अन्वयार्थ :[ज्ञानिनां ] ज्ञानियोंके [निर्मले ] रागादि मल रहित [निजमनसि ] निज
मनमें [अनादिः देवः ] अनादि देव आराधने योग्य शुद्धात्मा [निवसति ] निवास कर रहा है,
[यथा ] जैसे [सरोवरे ] मानस सरोवरमें [लीनः हंसः ] लीन हुआ हंस बसता है
सो हे
प्रभाकर भट्ट [मम ] मुझे [एवं ] ऐसा [प्रतिभाति ] मालूम पड़ता है ऐसा वचन श्री
योगीन्द्रदेवने प्रभाकरभट्टसे कहा
भावार्थ :पहले दोहेमें जो कहा था कि चित्तकी आकुलताके उपजानेवाले
स्त्रीरूपका देखना सेवना चिंतादिकोंसे उत्पन्न हुए रागादितरंगोंके समूह हैं, उनकर रहित निज
शुद्धात्मद्रव्यका सम्यक् श्रद्धान स्वाभाविक ज्ञान उससे वीतराग परमसुखरूप अमृतरस उस
स्वरूप निर्मल नीरसे भरे हुए ज्ञानियोंके मानससरोवरमें परमात्मादेवरूपी हंस निरंतर रहता है
हवे, रागादि रहित निजमनमां परमात्मा वसे छे, एम दर्शावे छेः
भावार्थपूर्व सूत्रमां कहेली, चित्तनी आकुळतानी उत्पादक एवी, स्त्रीरूपने
देखवानी, सेववानी अभिलाषादिथी उत्पन्न रागादि कल्लोलमाळानी जाळथी रहित,
निजशुद्धात्मद्रव्यनी सम्यक्श्रद्धाथी सहज उत्पन्न वीतराग परमसुखसुधारसस्वरूप निर्मळ
नीरथी पूर्ण, वीतराग स्वसंवेदनजनित मानससरोवरमां परमात्मा लीन रहे छे. ते परमात्मा

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१९६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१२३
चित्ताकुलत्वोत्पादकेन स्त्रीरूपावलोकनसेवनचिन्तादिसमुत्पन्नेन रागादिकल्लोलमालाजालेन रहिते
निजशुद्धात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानसहजसमुत्पन्नवीतरागपरमसुखसुधारसस्वरूपेण निर्मलनीरेण पूर्णे
वीतरागस्वसंवेदनजनितमानससरोवरे परमात्मा लीनस्तिष्ठति
कथंभूतः निर्मलगुणसाद्रश्येन
हंस इव हंसपक्षी इव कुत्र प्रसिद्धः सरोवरे हंस इवेत्यभिप्रायो भगवतां
श्रीयोगीन्द्रदेवानाम् ।।१२२।।
उक्तं च
१२३) देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति
अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ सम - चित्ति ।।१२३।।
देवः न देवकुले नैव शिलायां नैव लेप्ये नैव चित्रे
अक्षयः निरञ्जनः ज्ञानमयः शिवः संस्थितः समचित्ते ।।१२३।।
वह आत्मदेव निर्मल गुणोंकी उज्ज्वलताकर हंसके समान है जैसे हंसोंका निवास-स्थान
मानसरोवर है, वैसे ब्रह्मका निवास-स्थान ज्ञानियोंका निर्मल चित्त है ऐसा श्रीयोगीन्द्रदेवका
अभिप्राय है ।।१२२।।
आगे इसी बातको दृढ़ करते हैं
गाथा१२३
अन्वयार्थ :[देवः ] आत्मदेव [देवकुले ] देवालयमें (मंदिरमें) [न ] नहीं है,
[शिलायां नैव ] पाषाणकी प्रतिमामें भी नहीं है, [लेपे नैव ] लेपमें भी नहीं है, [चित्रे नैव ]
चित्रामकी मूर्तिमें भी नहीं है
लेप और चित्रामकी मूर्ति लौकिकजन बनाते हैं, पंडितजन तो
धातु पाषाणकी ही प्रतिमा मानते हैं, सो लौकिक दृष्टांतके लिये दोहामें लेप चित्रामका भी नाम
आ गया
वह देव किसी जगह नहीं रहता वह देव [अक्षयः ] अविनाशी है, [निरंजनः ]
कर्माञ्जनसे रहित है, [ज्ञानमयः ] केवलज्ञानकर पूर्ण है, [शिवः ] ऐसा निज परमात्मा
[समचित्ते संस्थितः ] समभावमें तिष्ठ रहा है, अर्थात् समभावको परिणत हुए साधुओंके मनमें
निर्मळगुणनी समानताथी हंस जेवा (-हंस पक्षी जेवा-) छे. जेम हंसनुं निवासस्थान
मानसरोवर छे तेम ब्रह्मनुं निवासस्थान निर्मळ चित्त छे, एवो श्री भगवान योगीन्द्रदेवनो
अभिप्राय छे. १२२.
वळी, कह्युं छे केः

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अधिकार-१ः दोहा-१२३ ]परमात्मप्रकाशः [ १९७
देउ इत्यादि देउ देवः परमाराध्यः नास्ति कस्मिन् कस्मिन् नास्ति देउल
देवकुले देवतागृहे णवि सिलए नैव शिलाप्रतिमायां, णवि लिप्पइ नैव लेपप्रतिमायां, णवि
चित्ति नैव चित्रप्रतिमायाम्
तर्हि क्व तिष्ठति निश्चयेन अखउ अक्षयः णिरंजण
कर्माञ्जनरहितः पुनरपि किंविशिष्टः णाणमउ ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निर्वृत्तः सिउ
शिवशब्द वाच्यो निजपरमात्मा एवंगुणविशिष्टः परमात्मा देव इति संठिउ संस्थितः
समचित्ति समभावे समभावपरिणतमनसि इति तद्यथा यद्यपि व्यवहारेण धर्मवर्तनानिमित्तं
स्थापनारूपेण पूर्वोक्त गुणलक्षणो देवो देवगृहादौ तिष्ठति तथापिनिश्चयेन शत्रुमित्र-
सुखदुःखजीवितमरणादिसमतारूपे वीतरागसहजानन्दैकरूपपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभूति-
रूपाभेदरत्नत्रयात्मकसमचित्ते शिवशब्दवाच्यः परमात्मा तिष्ठतीति भावार्थः
।। तथा चोक्तं
समचित्तपरिणतश्रमणलक्षणम्‘‘समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो समलोह-
कंचणो वि य जीविदमरणे समो समणो ।।’’ ।।१२३।। इत्येकत्रिंशत्सूत्रैश्चूलिकास्थलं गतम्
विराज रहा है, अन्य जगह नहीं है
भावार्थ :यद्यपि व्यवहारनयकर धर्मकी प्रवृत्तिके लिये स्थापनारूप अरहंतदेव
देवालयमें तिष्ठते हैं, धातु पाषाणकी प्रतिमाको देव कहते हैं तो भी निश्चयनयकर शत्रु मित्र सुख
-दुःख जीवित-मरण जिसके समान हैं, तथा वीतराग सहजानंदस्वरूप परमात्मतत्त्वके सम्यक्
श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमें लीन ऐसे ज्ञानियोंके सम चित्तमें परमात्मा तिष्ठता है
ऐसा ही अन्य जगह भी समचित्तको परिणत हुए मुनियोंका लक्षण कहा है ‘‘समस्तु’’ इत्यादि
इसका अर्थ ऐसा है कि जिसके सब दुःख समान हैं, शत्रु-मित्रोंका वर्ग समान हैं, प्रशंसा निंदा
समान हैं, पत्थर और सोना समान है, और जीवन-मरण जिसके समान हैं, ऐसा समभावका
भावार्थजो के व्यवहारनयथी धर्मनी वर्तना माटे स्थापनारूपे पूर्वोक्त गुणना
लक्षणवाळा देव देवालयमां रहे छे तोपण, निश्चयनयथी जे शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, जीवित-मरण
आदिमां समतारूप छे अने जे वीतराग सहजानंद ज जेनुं एक रूप छे एवा परमात्मतत्त्वनां
सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्अनुभूतिरूप अभेद रत्नत्रयात्मक समचित्तमां ‘शिव’ शब्दथी
वाच्य एवो परमात्मा रहे छे. समचित्तमां परिणत श्रमणनुं स्वरूप (श्री प्रवचनसारना त्रीजा
अधिकारनी २४१ गाथामां) कह्युं छे के
‘‘समसत्तु बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो ।
समलोट्ठुकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।।
(अर्थशत्रु अने बंधुवर्ग जेने समान छे, सुख अने दुःख जेने समान छे, प्रशंसा
अने निंदा प्रत्ये जेने समता छे, लोष्ट (माटीनुं ढेफुं) अने कांचन जेने समान छे तेम ज जीवित
अने मरण प्रत्ये जेने समता छे, ते श्रमण छे.) १२३.

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१९८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१२३
अथ स्थलखंख्याबाह्यं प्रक्षेपकद्वयं कथ्यते
१२३) मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स
बीहि वि समरसि हूवाहँ पुज्ज चडावउँ कस्स ।।१२३“२।।
मनः मिलितं परमेश्वरस्य परमेश्वरः अपि मनसः
द्वयोरपि समरसीभूतयोः पूजां समारोपयामि कस्य ।।१२३“२।।
मणु इत्यादि मणु मनो विकल्परूपं मिलियउ मिलितं तन्मयं जातम् कस्य
संबन्धित्वेन परमेसरहं परमेश्वरस्य परमेसरु वि मणस्स परमेश्वरोऽपि मनः संबन्धित्वेन लीनो
धारण करनेवाला मुनि होता है अर्थात् ऐसे समभावके धारक शांतचित्त योगीश्वरोंके चित्तमें
चिदानंददेव तिष्ठता है ।।१२३।।
इसप्रकार इकतीस दोहा-सूत्रोंका-चूलिका स्थल कहा चूलिका नाम अंतका है, सो
पहले स्थलका अंत यहाँ तक हुआ आगे स्थलकी संख्यासे सिवाय दो प्रक्षेपक दोहा कहते
हैं
गाथा१२३
अन्वयार्थ :[मनः ] विकल्परूप मन [परमेश्वरस्य मिलितं ] भगवान् आत्मारामसे
मिल गयातन्मयी हो गया [परमेश्वरः अपि ] और परमेश्वर भी [मनसः ] मनसे मिल गया
तो [द्वयोः अपि ] दोनों ही को [समरसीभूतयोः ] समरस (आपसमें एकमएक) होने पर
[कस्य ] किसकी अब मैं [पूजां समारोपयामि ] पूजा करूँ
अर्थात् निश्चयनयकर किसीको
पूजना, सामग्री चढ़ाना नहीं रहा
भावार्थ :जब तक मन भगवानसे नहीं मिला था, तब तक पूजा करता था, और
जब मन प्रभुसे मिल गया, तब पूजाका प्रयोजन नहीं है यद्यपि व्यवहारनयकर गृहस्थ-
ए प्रमाणे एकत्रीस सूत्रोथी चूलिकास्थळ समाप्त थयुं.
(चूलिका नाम अंतनुं छे, ते पहेला स्थळनो अंत अहीं सुधी थयो.)
हवे, स्थळसंख्याथी बाह्य एवा बे प्रक्षेपको कहे छेः
भावार्थजो के व्यवहारनयथी गृहस्थावस्थामां विषयकषायरूप दुर्ध्याननी वंचना अर्थे
अने धर्मनी वृद्धि अर्थे पूजा, अभिषेक, दानादि व्यवहार होय छे तोपण वीतराग निर्विकल्प
१ पाठान्तरःपरमेश्वरस्य = परमोश्वरस्य परमात्मा

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अधिकार-२ः दोहा-१२३३ ]परमात्मप्रकाशः [ १९९
जातः बीहि वि समरसिहूवाहं एवं द्वयोरपि समरसीभूतयोः पुज्ज पूजां चडावउं समारोपयामि
कस्स कस्य निश्चयनयेन न कस्यापीति अयमत्र भावार्थः यद्यपि व्यवहारनयेन गृहस्थावस्थायां
विषयकषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं धर्मवर्धनार्थं च पूजाभिषेकदानादिव्यवहारोऽस्ति तथापि वीतराग-
निर्विकल्पसमाधिरतानां तत्काले बहिरङ्गव्यापाराभावात् स्वयमेव नास्तीति
।।१२३“२।।
१२३-३) जेण णिरंजणि मणु धरिउ विषय-कसायहिँ जंतु
मोक्खहँ कारणु एत्तडउ अण्णु ण तनु ण मंतु ।।१२३“३।।
येन निरञ्जने मनः धृतं विषयकषायेषु गच्छत्
मोक्षस्य कारणं एतावदेव अन्यः न तन्त्रं न मन्त्रः ।।१२३“३।।
जेण इत्यादि येन येन पुरुषेण कर्तृभूतेन णिरंजणि कर्माञ्जनरहिते परमात्मनि मण
मनः धरिउ धृतम् किं कुर्वत् सत् विसयकसायहिं जंतु विषयकषायेषु गच्छत् सत्
अवस्थामें विषय कषायरूप खोटे ध्यानको हटानेके लिये और धर्मको बढ़ानेके लिये पूजा,
अभिषेक, दान आदिका व्यवहार है, तो भी वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें लीन हुए योगीश्वरोंको
उस समयमें बाह्य व्यापारका अभाव होनेसे स्वयं ही द्रव्य-पूजाका प्रसंग नहीं आता, भाव-
पूजामें ही तन्मय हैं
।।१२३।।
आगे इसी कथनको दृढ़ करते हैं
गाथा१२३
अन्वयार्थ :[येन ] जिस पुरुषने [विषयकषायेषु गच्छत् ] विषय कषायोंमें जाता
हुआ [मनः ] मन [निरंजने धृतं ] कर्मरूपी अंजनसे रहित भगवान्में रक्खा [एतावदेव ] और
ये ही [मोक्षस्य कारणं ] मोक्षके कारण हैं, [अन्यः ] दूसरा कोई भी [तन्त्रं न ] तंत्र नहीं हैं,
[मन्त्रः न ] और न मंत्र है
तंत्र नाम शास्त्र व औषधका है, मंत्र नाम मंत्राक्षरोंका है विषय
कषायादि पर पदार्थोंसे मनको रोककर परमात्मामें मनको लगाना, यही मोक्षका कारण है
भावार्थ :जो कोई निकट-संसारी जीव शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे उलटे विषय
समाधिमां रत योगीश्वरोने ते काळे बहिरंग व्यापारनो अभाव होवाथी स्वयं ज होतां
नथी. १२३*२.
हवे, आ कथनने द्रढ करे छेः
‘‘विसयकसायहिं जंतु’’‘‘विषयकषाय’’ शब्दने त्रीजी विभक्तिनो प्रत्यय होवा छतां तमे

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२०० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१२३
विसयकसायहिं तृतीयान्तं पदं सप्तम्यन्तं कथं जातमिति चेत् परिहारमाह प्राकृते
क्वचित्कारकव्यभिचारो भवति लिङ्गव्यभिचारश्च इदं सर्वत्र ज्ञातव्यम् मोक्खहं कारण
मोक्षस्य कारणं एत्तडउ एतावदेव विषयकषायरतचित्तस्य व्यावर्तनेन स्वात्मनि स्थापनं अण्णु
ण अन्यत् किमपि न मोक्षकारणम् अन्यत् किम् तन्तु तन्त्रं शास्त्रमौषधं वा मंतु मन्त्राक्षरं
चेति तथाहि शुद्धात्मतत्त्वभावनाप्रतिकूलेषु विषयकषायेषु गच्छत् सत् मनो
वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानबलेन व्यावर्त्य निजशुद्धात्मद्रव्ये स्थापयति यः स एव मोक्षं
लभते नान्यो मन्त्रतन्त्रादिबलिष्ठोऽपीति भावार्थः
।।१२३“३।।
एवं परमात्मप्रकाशवृत्तौ प्रक्षेपकत्रयं विहाय त्र्यधिकविंशत्युत्तरशतदोहक-
सूत्रैस्त्रिविधात्मप्रतिपादकनामा प्रथममहाधिकारः समाप्तः ।।१।।
कषायोंमें जाते हुए मनको वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके बलसे पीछे हटाकर निज
शुद्धात्मद्रव्यमें स्थापन करता है, वही मोक्षको पाता है, दूसरा कोई मंत्र-तंत्रादि चतुर होने पर
भी मोक्ष नहीं पाता
।।१२३।।
इस तरह परमात्मप्रकाशकी टीकामें तीन क्षेपकोंके सिवाय एकसौ तेईस दोहा-सूत्रोंमें
बहिरात्मा अंतरात्मारूप परमात्मारूप तीन प्रकारसे आत्माको कहनेवाला पहला महाधिकार
पूर्ण किया ।।१।।
इति प्रथम महाधिकार
सातमीना प्रत्यय तरीके केम लीधो?
तेनुं समाधाान :प्राकृतमां कोई वार कारक व्यभिचार अने लिंगव्यभिचार थाय छे.
आ बधेय जाणवुं.
भावार्थजे (जे कोई आसन्न भव्य जीव) शुद्धात्मतत्त्वनी भावनाथी प्रतिकूळ
विषयकषायमां जतां मनने वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानना बळ वडे व्यावृत्त करीने (पाछुं
वाळीने) निजशुद्धात्मद्रव्यमां स्थापे छे ते ज मोक्ष पामे छे. बीजो मंत्र, तंत्र आदिमां बलिष्ठ
होवा छतां पण मोक्ष पामतो नथी. १२३*३.
आ प्रमाणे परमात्मप्रकाशनी वृत्तिमां त्रण प्रक्षेपकोने छोडीने एकसो त्रेवीस दोहकसूत्रोथी
त्रण प्रकारना आत्मानो प्रतिपादक नामनो प्रथम महाधिकार समाप्त थयो.
इति प्रथम महाधिकार.
✲ ✲ ✲

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द्वितीयमहाधिकारः
अत ऊर्ध्वं स्थलसंख्याबहिर्भूतान् प्रक्षेपकान् विहाय चतुर्दशाधिकशतद्वय प्रमितैर्दोहक-
सूत्रैर्मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गप्रतिपादनमुख्यत्वेन द्वितीयमहाधिकारः प्रारभ्यते तत्रादौ सूत्रदशक-
पर्यन्तं मोक्षमुख्यतया व्याख्यानं करोति तद्यथा
१२७) सिरिगुरु अक्खहि मोक्खु महु मोक्खहँ कारणु तत्थु
मोक्खहँ केरउ अण्णु फलु जेँ जाणउँ परमत्थु ।।१।।
श्रीगुरो आख्याहि मोक्षं मम मोक्षस्य कारणं तथ्यम्
मोक्षस्य संबन्धि अन्यत् फलं येन जानामि परमार्थम् ।।१।।
द्वितीय महाधिकार
इसके बाद प्रकरणको संख्याके बाहर अर्थात् क्षेपकोंके सिवाय दोसौ चौदह दोहा
सूत्रोंसे मोक्ष, मोक्षफल और मोक्ष-मार्गके कथनकी मुख्यतासे दूसरा महा अधिकार आरंभ
करते हैं उसमें भी पहले दस दोहों तक मोक्षकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं
गाथा
अन्वयार्थ :[श्रीगुरो ] हे श्रीगुरु, [मम ] मुझे [मोक्षं ] मोक्ष [तथ्यम् मोक्षस्य
कारणं ] सत्यार्थ मोक्षका कारण, [अन्यत् ] और [मोक्षस्य संबंधि ] मोक्षका [फलं ] फल
[आख्याहि ] कृपाकर कहो [येन ] जिससे कि मैं [परमार्थं ] परमार्थको [जानामि ] जानूँ
।।
द्वितीय महाधिाकार
त्यार पछी स्थळ संख्याथी बहिर्भूत (प्रकरणनी संख्याथी बहार) प्रक्षेपकोने छोडीने बसो
चौद दोहकसूत्रोथी मोक्ष, मोक्षफळ अने मोक्षमार्गना कथननी मुख्यताथी बीजो महाधिकार शरू
करवामां आवे छेः
तेमां पण पहेलां दस दोहकसूत्रो सुधी मोक्षनी मुख्यताथी व्याख्यान करे छे. ते आ
प्रमाणेः
अधिकार-२ः दोहा-१ ]परमात्मप्रकाशः [ २०१

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सिरिगुरु इत्यादि सिरिगुरु हे श्रीगुरो योगीन्द्रदेव अक्खहि कथय मोक्खु मोक्षं
महु मम, न केवलं मोक्षं मोक्खहकारणु मोक्षस्य कारणम् कथंभूतम् तत्थु तथ्यम्
मोक्खहं केरउ मोक्षस्य संबन्धि अण्णु अन्यत् किम् फलु फलम् एतत्त्रयेन ज्ञातेन
किं भवति जें जाणउं येन त्रयस्य व्याख्यानेन जानाम्यहं कर्ता कम् परमत्थ
परमार्थमिति तद्यथा प्रभाकरभट्टः श्रीयोगीन्द्रदेवान् विज्ञाप्य मोक्षं मोक्षफलं
मोक्षकारणमिति त्रयं पृच्छतीति भावार्थः ।।१।।
अथ तदेव त्रयं क्रमेण भगवान् कथयति
१२८) जोइय मोक्खु वि मोक्ख-फलु पुच्छिउ मोक्खहँ हेउ
सो जिण-भासिउ णिसुणि तुहुँ जेण वियाणहि भेउ ।।२।।
योगिन् मोक्षोऽपि मोक्षफलं पृष्टं मोक्षस्य हेतुः
तत् जिनभाषितं निशृणु त्वं येन विजानासि भेदम् ।।२।।
जोइय इत्यादि जोइय हे योगिन् मोक्खु वि मोक्षोऽपि मोक्ख-फलु मोक्षफलं पुच्छिउ
भावार्थ :प्रभाकरभट्ट श्री योगींद्रदेवसे बिनती करके मोक्ष, मोक्षका कारण और
मोक्षका फल इन तीनोंको पूँछते हैं ।।१।।
अब श्रीगुरु उन्हीं तीनोंको क्रमसे कहते हैं
गाथा
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, तूने [मोक्षोऽपि ] मोक्ष और [मोक्षफलं ] मोक्षका
फल तथा [मोक्षस्य ] मोक्षका [हेतुः ] कारण [पुष्टं ] पूँछा, [तत् ] उसको [जिनभाषितं ]
जिनेश्वरदेवके कहे प्रमाण [त्वं ] तू [निशृणु ] निश्चयकर सुन, [येन ] जिससे कि [भेदम् ]
भेद [विजानासि ] अच्छीतरह जान जावे
।।
भावार्थ :श्रीयोगींद्रदेव गुरु, शिष्यसे कहते हैं कि हे प्रभाकरभट्ट; योगी शुद्धात्माकी
भावार्थप्रभाकरभट्ट श्री योगीन्द्रदेवने विनंती करीने मोक्ष, मोक्षफळ अने मोक्षनुं
कारण ए त्रणने पूछे छे. १.
भगवान श्री गुरु ए त्रणेयनुं कथन क्रमपूर्वक कहे छेः
भावार्थश्री योगीन्द्रदेव कहे छे के हे प्रभाकरभट्ट! हुं शुद्ध आत्मानी उपलब्धि
२०२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-२

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पृष्टं त्वया कर्तृभूतेन पुनरपि कः पृष्टः मोक्खहं हेउ मोक्षस्य हेतुः कारणम् तत् जिण-
भासिउ जिनभाषितं णिसुणि निश्चयेन शृणु समाकर्णय तुहुं त्वं जेण येन त्रयेण ज्ञानेन
वियाणहि भेउ विजानासि भेदं त्रयाणां सम्बन्धिनमिति
अयमत्र तात्पर्यार्थः श्रीयोगीन्द्रदेवाः
कथयन्ति हे प्रभाकरभट्ट शुद्धात्मोपलम्भलक्षणं मोक्षं केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्ति रूपं मोक्षफलं
भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं मोक्षमार्गं च क्रमेण प्रतिपादयाम्यहं त्वं शृण्विति
।।२।।
अथ धर्मार्थकाममोक्षाणां मध्ये सुखकारणत्वान्मोक्ष एवोत्तम इति अभिप्रायं मनसि
संप्रधार्य सूत्रमिदं प्रतिपादयति
१२९) धम्मह अत्थहँ कामहँ वि एयहँ सयलहँ मोक्खु
उत्तमु पभणहिँ णाणि जिय अण्णेँ जेण ण सोक्खु ।।३।।
धर्मस्य अर्थस्य कामस्यापि एतेषां सकलानां मोक्षम्
उत्तमं प्रभणन्ति ज्ञानिनः जीव अन्येन येन न सौख्यम् ।।३।।
प्राप्तिरूप मोक्ष, केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयका प्रगटपना स्वरूप मोक्ष-फल, और निश्चय
व्यवहाररत्नत्रयरूप मोक्षका मार्ग, इन तीनोंको क्रमसे जिनआज्ञाप्रमाण तुझको कहूँगा
उनको
तू अच्छी तरह चित्तमें धारण कर, जिससे सब भेद मालूम हो जावेगा ।।२।।
अब धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारोंमें सुखका मूलकारण मोक्ष ही सबसे उत्तम
है, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर इस गाथासूत्रको कहते हैं
गाथा
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [धर्मस्य ] धर्म, [अर्थस्य ] अर्थ [कामस्य अपि ]
और काम [एतेषां सकलानां ] इन सब पुरुषार्थोंमेंसे [मोक्षम् उत्तमं ] मोक्षको उत्तम
[ज्ञानिनः ] ज्ञानी पुरुष [प्रभणंति ] कहते हैं, [येन ] क्योंकि [अन्येन ] अन्य धर्म, अर्थ,
कामादि पदार्थोंमें [सौख्यम् ] परमसुख [न ] नहीं है
जेनुं लक्षण छे एवा मोक्षने, केवळज्ञानादि अनंतचतुष्टयनी व्यक्तिरूप मोक्षफळने अने
भेदाभेदरत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गने क्रमपूर्वक (जिन-आज्ञा प्रमाणे) तने कहुं छुं, तेने तुं (बराबर)
सांभळ. २.
हवे धर्म, अर्थ, काम अने मोक्षमांथी मोक्ष ज सुखनुं कारण होवाथी उत्तम छे एवो
अभिप्राय मनमां राखीने आ सूत्र कहे छेः
अधिकार-२ः दोहा-३ ]परमात्मप्रकाशः [ २०३

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धम्महं इत्यादि धम्महं धर्मस्य धर्माद्वा अत्थहं अर्थस्य अर्थाद्वा कामहवि कामस्यापि
कामाद्वा एयहं सयलहं एतेषां सकलानां संबन्धित्वेन एतेभ्यो वा सकाशात् मोक्खु मोक्षं उत्तमु
पभणहिं उत्तमं विशिष्टं प्रभणन्ति
के कथयन्ति णाणि ज्ञानिनः जिय हे जीव कस्मादुत्तमं
प्रभणन्ति मोक्षम् अण्णें अन्येन धर्मार्थकामादिना जेण येन कारणेन ण सोक्खु नास्ति
परमसुखम् इति तद्यथाधर्मशब्देनात्र पुण्यं कथ्यते अर्थशब्देन तु पुण्यफलभूतार्थो राज्यादि-
विभूतिविशेषः, कामशब्देन तु तस्यैव राज्यस्य मुख्यफलभूतः स्त्रीवस्त्रगंध माल्यादिसंभोगः
एतेभ्यस्त्रिभ्यः सकाशान्मोक्षमुत्तमं कथयन्ति के ते वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानिनः
कस्मात् आकुलत्वोत्पादकेन वीतरागपरमानन्दसुखामृतरसास्वादविपरीतेन धर्मार्थकामादिना
मोक्षादन्येन येन कारणेन सुखं नास्तीति भावार्थः ।।३।।
अथ धर्मार्थकामेभ्यो यद्युत्तमो न भवति मोक्षस्तर्हि तत्त्रयं मुक्त्वा परलोकशब्दवाच्यं मोक्षं
किमिति जिना गच्छन्तीति प्रकटयन्ति
भावार्थ :धर्म शब्दसे यहाँ पुण्य समझना, अर्थ शब्दसे पुण्यका फल राज्य वगैरह
संपदा जानना, और काम शब्दसे उस राज्यका मुख्यफल स्त्री, कपड़े, सुगंधितमाला आदि
वस्तुरूप भोग जानना
इन तीनोंसे परमसुख नहीं हैं, क्लेशरूप दुःख ही है, इसलिये इन सबसे
उत्तम मोक्षको ही वीतरागसर्वज्ञदेव कहते हैं, क्योंकि मोक्षसे जुदा जो धर्म, अर्थ, काम हैं, वे
आकुलताके उत्पन्न करनेवाले हैं, तथा वीतराग, परमानन्दसुखरूप अमृतरसके आस्वादसे
विपरीत हैं, इसलिये सुखके करनेवाले नहीं हैं, ऐसा जानना
।।३।।
आगे धर्म, अर्थ, काम इन तीनोंसे जो मोक्ष उत्तम नहीं होता तो इन तीनोंको छोड़कर
जिनेश्वरदेव मोक्षको क्यों जाते ? ऐसा दिखाते हैं
भावार्थअत्रे ‘धर्म’ शब्दथी पुण्य समजवुं, ‘अर्थ’ शब्दथी पुण्यना फळरूप राज्यादि
विभूति विशेष संपदा समजवी अने ‘काम’ शब्दथी ते राज्यना मुख्य फळरूप स्त्री, वस्त्र, गंध,
माळा आदिनो भोग समजवो. आ त्रण करतां मोक्ष उत्तम छे, एम वीतराग निर्विकल्प
स्वसंवेदनवाळा ज्ञानीओ कहे छे. कारण के आकुळताना उत्पादक, वीतराग-परमानंदरूप
सुखामृतरसना आस्वादथी विपरीत अने मोक्षथी अन्य एवा धर्म, अर्थ अने कामथी सुख थतुं
नथी. ३.
हवे जो धर्म, अर्थ अने कामथी मोक्ष उत्तम न होय तो ते त्रणेयने छोडीने ‘परलोक’
शब्दथी वाच्य एवा मोक्षमां जिनदेवो शा माटे जाय? एम दर्शावे छेः
अहीं, ‘परलोक’ शब्दथी वाच्य एवुं परमात्मध्यान (परमात्मानुं अवलोकन) समजवुं,
पण कायमोक्ष न समजवो.
२०४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३

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१३०) जइ जिय उत्तमु होइ णवि एयहँ सयलहँ सोइ
तो किं तिण्णि वि परिहरवि जिण वच्चहिँ पर-लोइ ।।४।।
यदि जीव उत्तमो भवति नैव एतेभ्यः सकलेभ्यः स एव
ततः किं त्रीण्यपि परिहृत्य जिनाः व्रजन्ति परलोके ।।४।।
जइ इत्यादि जइ यदि चेत् जिय हे ज्ाीव उत्तमु होइ णवि उत्तमो भवति नैव केभ्यः
एयहं सयलहं एतेभ्यः पूर्वोक्ते भ्यो धर्मादिभ्यः कतिसंख्योपेतेभ्यः सकलेभ्यः सो वि स एव
पूर्वोक्तो मोक्षः तो ततः कारणात् किं किमर्थं तिण्णि वि परिहरवि त्रीण्यपि परिहृत्य त्यक्त्वा जिण
जिनाः कर्तारः वच्चहिं व्रजन्ति गच्छन्ति
कुत्र गच्छन्ति पर-लोइ परलोकशब्दवाच्ये परमात्मध्याने
न तु कायमोक्षे चेति तथाहिपरलोकशब्दस्य व्युत्पत्त्यर्थः कथ्यते परः उत्कृष्टो
मिथ्यात्वरागादिरहितः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणसहितः परमात्मा परशब्देनोच्यते तस्यैवंगुणविशिष्टस्य
गाथा
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [यदि ] जो [एतेभ्यः सकलेभ्यः ] इन सबोंसे [सः ]
मोक्ष [उत्तमः ] उत्तम [एव ] ही [नैव ] नहीं [भवति ] होता [ततः ] तो [जिनाः ]
श्रीजिनवरदेव [त्रीण्यपि ] धर्म, अर्थ, काम इन तीनोंको [परिहृत्य ] छोड़कर [परलोके ]
मोक्षमें [किं ] क्यों [व्रजंति ] जाते ? इसलिये जाते हैं कि मोक्ष सबसे उत्कृष्ट है
।।
भावार्थ :पर अर्थात् उत्कृष्ट मिथ्यात्व रागादि रहित केवलज्ञानादि अनंत गुण सहित
परमात्मा वह पर है, उस परमात्माका लोक अर्थात् अवलोकन वीतराग परमानंद समरसीभावका
अनुभव वह परलोक कहा जाता है, अथवा परमात्माको परमशिव कहते हैं, उसका जो
अवलोकन वह शिवलोक है, अथवा परमात्माका ही नाम परमब्रह्म है, उसका लोक वह
भावार्थ‘परलोक’ शब्दनो व्युत्पत्ति अर्थ कहे छे. पर अर्थात् उत्कृष्ट, ‘पर’ शब्दथी
मिथ्यात्व रागादि रहित केवळज्ञानादि अनंत गुण सहित परमात्मा समजवो, ते गुणविशिष्ट
परमात्मानुं लोकन-अवलोकन-वीतरागपरमानंदरूप समरसीभावनुं अनुभवन ते लोक छे. ए
प्रमाणे ‘परलोक’ शब्दनो अर्थ छे. अथवा ‘पर’ शब्दथी पूर्वोक्त लक्षणवाळो परमात्मा समजवो.
निश्चयथी ‘परमशिव’ शब्दथी वाच्य एवो मुक्तात्मा ‘शिव’ समजवो, तेनो लोक ते
शिवलोक छे. अथवा ‘परमब्रह्म’ शब्दथी वाच्य एवो मुक्तात्मा परमब्रह्म समजवो, तेनो लोक
ते ब्रह्मलोक छे. अथवा ‘परमविष्णु’ शब्दथी वाच्य एवो मुक्तात्मा विष्णु समजवो, तेनो लोक
ते विष्णुलोक छे. ए प्रमाणे ‘परलोक’ शब्दथी मोक्ष कह्यो छे.
अधिकार-२ः दोहा-४ ]परमात्मप्रकाशः [ २०५

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परमात्मनो लोको लोकनमवलोकनं वीतरागपरमानन्दसमरसीभावानुभवनं लोक इति परलोक-
शब्दस्यार्थः
अथवा पूर्वोक्त लक्षणः परमात्मा परशब्देनोच्यते निश्चयेन परमशिवशब्दवाच्यो मुक्तात्मा
शिव इत्युच्यते तस्य लोकः शिवलोक इति अथवा परमब्रह्मशब्दवाच्यो मुक्तात्मा परमब्रह्म इति
तस्य लोको ब्रह्मलोक इति अथवा परम विष्णुशब्दवाच्यो मुक्तात्मा विष्णुरिति तस्य लोको
विष्णुलोक इति परलोकशब्देन मोक्षो भण्यते परश्चासौ लोकश्च परलोक इति परलोकशब्दस्य
व्युत्पत्त्यर्थो ज्ञातव्यः न चान्यः कोऽपि परकल्पितः शिवलोकादिरस्तीति अत्र स एव
परलोकशब्दवाच्यः परमात्मोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।४।।
अथ तमेव मोक्षं सुखदायकं दृष्टान्तद्वारेण दृढयति
१३१) उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ
तो किं इच्छहिँ बंधणहिँ बद्धा पसुय वि सोइ ।।५।।
उत्तमं सुखं न ददाति यदि उत्तमो मोक्षो न भवति
ततः किं इच्छन्ति बन्धनै बद्धा पशवोऽपि तमेव ।।५।।
ब्रह्मलोक है, अथवा उसीका नाम परमविष्णु है, उसका लोक अर्थात् स्थान वह विष्णुलोक
है, ये सब मोक्षके नाम हैं, यानी जितने परमात्माके नाम हैं, उनके आगे लोक लगानेसे मोक्षके
नाम हो जाते हैं, दूसरा कोई कल्पना किया हुआ शिवलोक, ब्रह्मलोक या विष्णुलोक नहीं है
यहाँ पर सारांश यह हुआ कि परलोकके नामसे कहा गया परमात्मा ही उपादेय है, ध्यान करने
योग्य है, अन्य कोई नहीं
।।४।।
आगे मोक्ष अनंत सुख देनेवाला है, इसको दृष्टांतके द्वारा दृढ़ करते हैं
गाथा
अन्वयार्थ :[यदि ] जो [मोक्षः ] मोक्ष [उत्तमं सुखं ] उत्तम सुखको [न ददाति ]
पर लोक ते परलोक छे ए प्रमाणे ‘परलोक’ शब्दनो व्युत्पत्ति-अर्थ समजवो; पर कल्पित
(परे कल्पेलो) एवो बीजो कोई शिवलोकादि (शिवलोक, ब्रह्मलोक, विष्णुलोक) नथी. (परलोक
शब्दनो अर्थ न समजवो.)
अहीं, ते ज ‘परलोक’ शब्दथी वाच्य एवो परमात्मा उपादेय छे, एवुं तात्पर्य छे. ४.
हवे, ते ज मोक्ष सुखनो देनार छे एम द्रष्टान्त द्वारा द्रढ करे छेः
२०६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-५