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है
[परं ] पर पदार्थोंको [प्रकाशयति ] प्रकाशता है, सो [योगिन् ] हे योगी [अत्र ] इसमें [भ्रान्तिं
मा कुरु ] भ्रम मत कर
समूहका नाश करके यह आत्मा मुनि अवस्थामें वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकर अपनेको और परको
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कारणसमयसारे स्थित्वा मोहमेघपटले विनष्टे सति परमात्मा छद्मस्थावस्थायां
वीतरागभेदभावनाज्ञानेन स्वं परं च प्रकाशयतीत्येष पश्चादर्हदवस्थारूपकार्यसमयसाररूपेण
परिणम्य केवलज्ञानेन स्वं परं च प्रकाशयतीत्येष आत्मवस्तुस्वभावः संदेहो नास्तीति
केवलज्ञानसे निज और परको सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे प्रकाशता है
आत्मनि ] मिथ्यात्व रागादि विकल्पोंसे रहित स्वच्छ आत्मामें [लोकालोकं अपि ] समस्त
लोक-अलोक भासते हैं
वडे स्व अने परने प्रकाशे छे, पछी अर्हंत-अवस्थारूप कार्यसमयसाररूपे परिणमीने
केवळज्ञानथी स्व अने परने प्रकाशे छे. एवो आत्मवस्तुनो स्वभाव छे एमां संदेह नथी.
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तात्पर्यार्थ छे. १०२.
आत्माको [योगिन् ] हे योगी [त्वं ] तू [ज्ञानबलेन ] आत्मज्ञानके बलसे [जानीहि ] जान
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समुत्पन्नपरमानन्दसुखरसास्वादेन जानीहि तन्मयो भूत्वा सम्यगनुभवेति भावार्थः
तू उस आत्माको वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानकी भावनासे उत्पन्न परमानंद सुखरसके
आस्वादसे जान, अर्थात् तन्मयी होकर अनुभव कर
[मम ] मेरे [प्रकाशय ] प्रकाशित करो, [अन्येन बहुना ] और बहुत विकल्प-जालोंसे [किं ]
क्या फायदा ? कुछ भी नहीं
उत्पन्न परमानंदरूप सुखरसना आस्वाद वडे तुं जाण-तन्मय थईने सम्यग् अनुभव ए भावार्थ
छे. १०३.
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कथय किमन्येन रागादिप्रवर्धकेन विकल्पजालेनेति
तात्पर्यार्थः
ज्ञान मुझको प्रकाशित करो, दूसरे विकल्प-जालोंसे कुछ फायदा नहीं है, क्योंकि ये रागादिक
विभावोंके बढ़ानेवाले हैं
है
छे ते ज ज्ञाननो उपदेश करो, अन्य रागादिवर्धक विकल्पजाळथी शुं प्रयोजन छे?
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रूपावलोकनविषये
लोक-प्रमाण [ज्ञानेन गगनप्रमाणम् ] ज्ञानसे व्यवहारनयकर आकाश-प्रमाण [जानाति ] जानता
है
अलोकको जानता है, देखता है, तो भी उन स्वरूप नहीं होता, अपने स्वरूप ही रहता है,
ज्ञानकर ज्ञेय प्रमाण है, यद्यपि निश्चयसे प्रदेशोंकर लोक-प्रमाण है, असंख्यात प्रदेशी है, तो भी
व्यवहारनयकर अपने देह-प्रमाण है, ऐसे आत्माको जो पुरुष आहार, भय, मैथुन परिग्रहरूप
चार वांछाओं स्वरूप आदि समस्त विकल्पकी तरंगोंको छोड़कर जानता है, वही पुरुष ज्ञानसे
अभिन्न होनेसे ज्ञान कहा जाता है
(व्यवहारनयथी) व्यापक कहेवाय छे तेवी रीते, व्यवहारनयथी ज्ञाननी अपेक्षाए लोकालोक व्यापक
छे, निश्चयथी लोक जेटलो असंख्यात प्रदेशी छे, व्यवहारथी स्वदेहप्रमाण छे
ते पुरुष ज ज्ञानथी अभिन्न होवाथी ज्ञान कहेवाय छे.
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आत्मा ही परम अर्थ है, जिसको पाकर वह जीव निर्वाणको पाता है
हैं, [तान् ] उन [त्रीणि अपि ] धर्म, अर्थ, कामरूप तीनों भावोंको [परिहृत्य ] छोड़कर
[नियमेन ] निश्चयसे [आत्मानं ] आत्माको [त्वं ] तू [विजानीहि ] जान
ज्ञानसामान्य ज आ परमार्थ छे-) के जेने पामीने आत्मा निर्वाणने प्राप्त थाय छे.] १०५.
हवे परभावनो निषेध करे छे.
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तत्र हे प्रभाकरभट्ट त्रीण्यपि परिहृत्य
जानीहीति भावार्थः
वीतरागस्वसंवेदनस्वरूप शुद्धात्मानुरूपज्ञानमें रहकर आत्माको जान
हे प्रभाकर भट्ट तू [त्रीणि अपि मुक्तवा ] धर्म, अर्थ, काम इन तीनों ही भावोंको छोड़कर
[ज्ञानेन ] ज्ञानसे [आत्मानं ] निज आत्माको [जानीहि ] जान
शुद्धात्मानी अनुभूतिरूप ज्ञानमां स्थित थईने आत्माने जाण, ए भावार्थ छे. १०६.
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कुर्वाणाअपि बहवोऽपि न लभन्ते यतः कारणात्
निःपरिग्रहो भण्यते स एवात्मानं जानातीति भावार्थः
स्वरूप परमात्माको वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानके बिना दुर्धर तपके करनेवाले भी बहुतसे
प्राणी नहीं पाते
जो महान दुर्धर तप करो तो भी नहीं मिलता
तृप्त हुआ सिद्धांतमें परिग्रह रहित कहा जाता है, और निर्ग्रंथ कहा जाता है, और वही अपने
आत्माको जानता है
वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनरूप ज्ञानगुण विना दुर्धर अनुष्ठान करवा छतां पण घणा पुरुषो
पामता नथी. श्री समयसार (गाथा २०५)मां कह्युं पण छे के
तो आ नियत एवा आने (ज्ञानने) ग्रहण कर.]
भावार्थ छे. (श्री समयसार गाथा २१०मां) कह्युं पण छे के
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चाहता है, अर्थात् जिसके व्यवहारधर्मकी भी कामना नहीं है, उसके अर्थ तथा कामकी इच्छा
कहाँसे होवे ? वह आत्मज्ञानी सब अभिलाषाओंसे रहित है, जिसके धर्मका भी परिग्रह नहीं
है, तो अन्य परिग्रह कहाँसे हो ? इसलिये वह ज्ञानी परिग्रही नहीं है, केवल निजस्वरूपका
जाननेवाला ही होता है
[जानासि ] जानता, [तावद् ] तब तक [अज्ञानेन ] अज्ञानी होनेसे [ज्ञानमयं ] ज्ञानमय [परं
ब्रह्म ] अपने स्वरूपको [किं लभसे ] क्या पा सकता है ? कभी नहीं पा सकता
ज छे.] १०७.
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स्थितं समस्तरागादिविकल्पजालं मुक्त्वा न जानासि तावत्कालं परमब्रह्मशब्दवाच्यं
निर्दोषिपरमात्मानं किं लभसे नैवेति भावार्थः
नहीं पा सकता
हैं
जाणतो नथी; त्यां सुधी ‘परब्रह्म’ शब्दथी वाच्य एवा निर्दोष परमात्माने शुं पामी शके?
न पामी शके, ए भावार्थ छे. १०८.
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ज्ञात्वा पश्चात् गम्मिज्जइ परलोइ तेनैव पूर्वोक्ते न ब्रह्मस्वरूपपरिज्ञानपुरुषेण तेनैव कारणेन वा
गम्यते
पृथग्रूपेण तिष्ठति स एव परमब्रह्मा स एव परमविष्णुः स एव परमशिवः इति, व्यक्ति रूपेण
पुनर्भगवानर्हन्नैव मुक्ति गतसिद्धात्मा वा परमब्रह्मा विष्णुः शिवो वा भण्यते
जाना जाता है, [येन ] जो पुरुष जिस कारण [ब्रह्म मत्वा ] अपना स्वरूप जानकर [परलोके
लघु गम्यते ] परमात्मतत्त्वमें शीघ्र ही प्राप्त होता है
है, तब सिद्ध कहलाता है
परम विष्णु छे अने ते ज परमशिव छे, अने व्यक्तिरूपे भगवान अर्हंत ज अथवा मुक्तिगत
सिद्धात्मा ज परमब्रह्मा छे, विष्णु छे, शिव छे, तेनाथी बीजो कोई कल्पित जगद्व्यापी तेम
ज एक परब्रह्म, विष्णु, शिव नथी.
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कोऽपीति भावार्थः
विष्णु, शिव ये सब सिद्धपरमेष्ठीके नाम हैं
अपि परतरः ] उत्कृष्टसे भी उत्कृष्ट [ज्ञानमयः ] ज्ञानमयी [परलोकः ] परलोक [उच्यते ]
कहा जाता है
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स्वसंवेदन
छे-जणाय छे ते लोक छे परम लोक (परमात्मा) परलोक छे, अने व्यवहारनयथी स्वर्गमोक्षने
परलोक कह्यो छे.
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स्थिरीभवतीति
प्राप्नोति इति ज्ञात्वा सर्वरागादिविकल्पत्यागेन तत्रैव भावनां कर्तव्येति
ही [जीवस्य ] जीवकी [गतिः ] गति [नियमेन ] निश्चयनयकर [भवति ] होती है, ऐसा
जिनवरदेवने कहा है
नहीं है
जो निश्चयरत्नत्रयस्वरूप परमात्मतत्त्वमें भावना करता है, तो वह मोक्ष पाता है
चाहिये
नियमथी परलोक-उत्कृष्ट जन-कहेवामां आवे छे. कारण के जे स्वशुद्धात्मस्वरूपमां जीवनी अथवा
जीवोनी मति होय छे त्यां गति निश्चयथी थाय छे.
परमात्मतत्त्वमां भावना करे छे ते निर्वाण पामे छे एम जाणीने सर्व रागादि विकल्पजाळनो त्याग
करीने तेमां ज (परमात्म-तत्त्वमां ज) भावना करवी जोईए. १११.
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परब्रह्मशब्दवाच्यं शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं वीतरागसदानन्दैक-
सुखामृतरसपरिणतं निजशुद्धात्मतत्त्वं मुक्त्वा मतिं चित्तं परद्रव्ये देहसंगादिषु मा कार्षीरिति
तात्पर्यार्थः
इसलिये तू [परब्रह्म ] परब्रह्मको [मुक्तवा ] छोड़कर [परद्रव्ये ] परद्रव्यमें [मतिं ] बुद्धिको
[मा कार्षीः ] मत कर
रसकर तृप्त ऐसे निज शुद्धात्मतत्त्वको छोड़कर द्रव्यकर्म- भावकर्म-नोकर्ममें या देहादि परिग्रहमें
मनको मत लगा
निजशुद्धात्मतत्त्वने छोडीने परद्रव्यमां
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जानीहीति
धर्माधर्मः नभः कालं अपि पंचमं ] पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और पाँचवाँ कालद्रव्य
[जानीहि ] ये सब परद्रव्य जानो
हैं, उन सबको अपनेसे भिन्न जानो
छेः
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अपने मत मान
[अग्निकणिका ] अग्निकी कणी [काष्ठगिरिं ] काठके पहाड़को [दहति ] भस्म करती है,
उसी तरह [अशेषम् अपि पापम् ] सब ही पापोंको भस्म कर डाले
छे. ११३.
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शब्द-गौरव-स्वरूप इत्यादि अनेक विकल्प-जालोंका त्यागरूप प्रचंड पवन उससे
प्रज्वलित हुई (दहकती हुई) जो निज शुद्धात्मतत्त्वके ध्यानरूप अग्निकी कणी है, जैसे
वह अग्निकी कणी काठके पर्वतको भस्म कर देती है, उसी तरह यह समस्त पापोंको
भस्म कर डालती है, अर्थात् जन्म-जन्मके इकट्ठे किये हुए कर्मोंको आधे निमेषमें नष्ट
कर देती है, ऐसी शुद्ध आत्म-ध्यानकी सामर्थ्य जानकर उसी ध्यानकी ही भावना सदा
करनी चाहिये
मद, शास्त्रनी टीका बनाववानो मद, शास्त्रनुं व्याख्यान करवानो मद आ चार शब्दगौरव
आत्मतत्त्वना ध्यानरूप अग्निकणिका, जेवी रीते अग्निनी नानी कणी इन्धनना पहाडने भस्मिभूत
करी नाखे छे, तेवी रीते, दीर्घकाळथी संचित करेला (अनेक भवोमां संचित करेला) कर्मराशिने
अन्तर्मुहूर्तमां भस्म करी नाखे छे
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देवं परमाराध्यं निजशुद्धात्मानं ध्यायेति भावार्थः
परमपदमें [निवेशय ] धारण कर, और [निरंजनं देवं ] निरंजनदेवको [पश्य ] देख
कर
अपध्यान कहते हैं, जो द्वेषसे परके मारनेका बाँधनेका अथवा छेदनेका चिंतवन करे, और
अने भावकर्म, द्रव्यकर्म, अने नोकर्मरूप अंजन रहित परम आराध्य एवो देव जे निज शुद्धात्मा
छे तेनुं ध्यान कर.