Page 147 of 565
PDF/HTML Page 161 of 579
single page version
सूक्ष्मशुद्धनिश्चयेन न भण्यत इति
जीवका स्वरूप नहीं है
शुद्धात्मस्वरूपका साधक है, इसलिये उपचारनयकर जीवका स्वरूप कहा जाता है, तो भी
परमसूक्ष्म शुद्धनिश्चयनयकर भावलिंग भी जीवका नहीं है
शूरवीर नहीं है, कायर नहीं है, [उत्तमः नैव ] उच्चकुली नहीं है, [नीचः नैव भवति ] और
नीचकुली भी नहीं है
शुद्ध जीवनुं स्वरूप कहेवामां आवतुं नथी. ८८.
Page 148 of 565
PDF/HTML Page 162 of 579
single page version
स्वात्मसंबद्धान् करोति तानेव वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थो अन्तरात्मा परस्वरूपान् जानातीति
भावार्थः
इन भेदोंको वीतरागपरमानंद निज शुद्धात्माकी प्राप्तिसे रहित बहिरात्मा मिथ्यादृष्टिजीव अपने
समझता है, और इन्हीं भेदोंको वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें रहता हुआ अंतरात्मा सम्यग्दृष्टिजीव
पर रूप (दूसरे) जानता है
[नारकः ] नारकी भी [क्वापि नैव ] कभी नहीं, अर्थात् किसी प्रकार भी पररूप नहीं है, परन्तु
[ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, उसको [योगी ] मुनिराज तीन गुप्तिके धारक और निर्विकल्पसमाधिमें
लीन हुए [जानाति ] जानते हैं
छे अने तेमने ज वीतराग निर्विकल्प समाधिस्थ अन्तरात्मा परस्वरूप जाणे छे, ए भावार्थ
छे. ८९.
Page 149 of 565
PDF/HTML Page 163 of 579
single page version
न भवति
तदुदयजनितान् मनुष्यादिविभावपर्यायान् भेदाभेदरत्नत्रयभावनाच्युतो बहिरात्मा स्वात्मतत्त्वे
योजयति
मनुष्यादि विभाव-पर्यायोंको भेदाभेदस्वरूप रत्नत्रयकी भावनासे रहित हुआ मिथ्यादृष्टि जीव
अपने जानता है, और इस अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव उन मनुष्यादि पर्यायोंको अपनेसे
जुदा जानता है
है, [तरुणः वृद्धः बालः नैव ] जवान, बूढ़ा और बालक भी नहीं है, [अन्यः अपि कर्म विशेषः ]
ये सब पर्यायें आत्मासे जुदे कर्मके विशेष हैं, अर्थात् क र्ममें उत्पन्न हुए विभाव-पर्याय हैं
विभावपरिणामनी जाळथी उपार्जन करवामां आवेलां कर्मोना उदयथी थयेल मनुष्यादि
विभावपर्यायोने स्वात्मतत्त्वमां योजे छे-जोडे छे, तेनाथी विपरीत ‘अन्तरात्मा’ शब्दथी वाच्य
एवो ज्ञानी तेमने पृथक् जाणे छे. ए अभिप्राय छे. ९०.
Page 150 of 565
PDF/HTML Page 164 of 579
single page version
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानभावनारहितोऽपि बहिरात्मा स्वस्मिन्नियोजयति तानेव पण्डितादि-
विभावपर्यायांस्तद्विपरीतो योऽसौ चान्तरात्मा परस्मिन् कर्माणि नियोजयतीति तात्पर्यार्थः
पंडितादि विभावपर्यायोंको अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपनेसे जुदे कर्मजनित जानता
है
शुद्धात्मद्रव्यथी भिन्न अने सर्वप्रकारे हेयभूत छे तेमने पोतामां योजे छे
(तेमने पोताथी जुदा कर्मजनित जाणे छे.) ए तात्पयार्थ छे. ९१.
Page 151 of 565
PDF/HTML Page 165 of 579
single page version
पूर्वोक्त मेकमप्यात्मा न भवति
पापादिधर्माधर्मान्मिथ्यात्वरागादिपरिणतो बहिरात्मा स्वात्मनि योजयति तानेव पुण्यपापादि
समस्तसंकल्पविकल्पपरिहारभावनारूपे स्वशुद्धात्मद्रव्ये सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेद-
रत्नत्रयात्मके परमसमाधौ स्थितोऽन्तरात्मा शुद्धात्मनः सकाशात् पृथग् जानातीति
तात्पर्यार्थः
[कायः ] शरीर, इनमेंसे [एक अपि ] एक भी [आत्मा ] आत्मा [नैव भवति ] नहीं है,
[चेतनभावम् मुक्तवा ] चेतनभावको छोड़कर अर्थात् एक चेतनभाव ही अपना है
हुआ बहिरात्मा जानता है, और उन्हींको पुण्य, पापादि समस्त संकल्प, विकल्परहित निज
शुद्धात्मद्रव्यमें सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेदरत्नत्रयस्वरूप परमसमाधिमें तिष्ठता
सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धात्मासे जुदे जानता है
धर्माधर्मादि द्रव्योने पोतामां योजे छे अने तेमने ज, पुण्यपापादि समस्त संकल्प-विकल्पना
त्यागनी भावनारूप, निजशुद्धात्मद्रव्यनां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्आचरणरूप
अभेदरत्नत्रयात्मक परमसमाधिमां स्थित एवो अंतरात्मा शुद्धात्माथी पृथक् जाणे छे. ९२.
Page 152 of 565
PDF/HTML Page 166 of 579
single page version
सूत्र कहे
किया कि यदि पुण्य-पापादिरूप आत्मा नहीं है, तो कैसा है ? ऐसे प्रश्नका श्रीगुरु समाधान
करते हैं
[आत्मानम् जानन् ] अपनेको जानता अनुभवता हुआ [आत्मा ] आत्मा [शाश्वतमोक्षपदं ]
अविनाशी सुखका स्थान मोक्षका मार्ग है
आ प्रमाणेः
Page 153 of 565
PDF/HTML Page 167 of 579
single page version
च भवति
स्थितिकरणात् संयमो भवति, बहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन कामक्रोधविवर्जनलक्षणेन व्रतपरिरक्षण-
शीलेन निश्चयेनाभ्यन्तरे स्वशुद्धात्मद्रव्यनिर्मलानुभवनेन शीलं भवति
शुद्धात्मस्वरूपमें स्थिर होनेसे आत्माको संयम कहा गया है, बहिरंग सहकारी निश्चय शीलका
कारणरूप जो काल क्रोधादिके त्यागरूप व्रतकी रक्षा वह व्यवहार शील है, और निश्चयनयकर
अंतरंगमें अपने शुद्धात्मद्रव्यका निर्मल अनुभव वह शील कहा जाता है, सो शीलरूप आत्मा
ही कहा गया है, बाह्य सहकारी कारणभूत जो अनशनादि बारह प्रकारका तप है, उससे तथा
निश्चयकर अंतरंगमें सब परद्रव्यकी इच्छाके रोकनेसे परमात्मस्वभाव (निजस्वभाव) में
प्रतापरूप तिष्ठ रहा है, इस कारण और समस्त विभावपरिणामोंके जीतनेसे आत्मा ही ‘तपश्चरण
है, और आत्मा ही निजस्वरूपकी रुचिरूप सम्यक्त्व है, वह सर्वथा उपादेयरूप है, इससे
सम्यग्दर्शन आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं है, वीतराग स्वसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही
है, अन्य कोई नहीं है, वीतरागसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही निश्चयज्ञानरूप है, और
ते तपश्चरण छे.
करीने परमात्मतत्त्वमां परमसमरसीभावनुं परिणमन ते मोक्षमार्ग छे.
Page 154 of 565
PDF/HTML Page 168 of 579
single page version
प्रतपनाद्विजयनात्तपश्चरणं भवति
इति तात्पर्यार्थः
आत्मा ही मोक्षमार्ग है
साधकपनेसे आत्मा ही उपादेय है
एवो तात्पर्यार्थ छे. ९३.
Page 155 of 565
PDF/HTML Page 169 of 579
single page version
सम्यक्त्वं भवति, तथापि निश्चयेन वीतरागपरमानन्दैकस्वभावः शुद्धात्मोपादेय इति
रुचिरूपपरिणामपरिणतशुद्धात्मैव निश्चयसम्यक्त्वं भवति
निश्चयज्ञानं भवति
[जानीहि ] तू जान, अर्थात् आत्मा ही दर्शन ज्ञान चारित्र है, ऐसा संदेह रहित जानो
व्यवहार साधक है, निश्चय साध्य है, तो भी निश्चयनयकर एक वीतराग परमानंदस्वभाववाला
शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप परिणामसे परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है,
यद्यपि निश्चयस्वसंवेदनज्ञानका साधक होनेसे व्यवहारनयकर शास्त्रका ज्ञान भी ज्ञान है, तो भी
निश्चयनयकर वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरूप परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयज्ञान है
कहे जाते हैं, तो भी शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग-चारित्रको परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही
निश्चयनयथी वीतराग परमानंद जेनो एक स्वभाव छे एवो शुद्ध आत्मा उपादेय छे , एवी
रुचिरूप परिणामे परिणमेलो शुद्ध आत्मा ज निश्चयसम्यक्त्व छे; जो के शास्त्रज्ञान
निश्चयस्वसंवेदनज्ञाननुं साधक होवाथी व्यवहारथी ज्ञान छे, तोपण निश्चयनयथी
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरूपे परिणमेलो शुद्ध आत्मा ज निश्चयज्ञान छे; जो के व्यवहारनयथी मूळ
-उत्तर गुणो (अठ्ठावीस मूळ गुणो, चोरासीलाख उत्तर गुणो) निश्चयचारित्रना साधक होवाथी
चारित्र छे तोपण निश्चयनयथी शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतरागचारित्ररूपे परिणमेलो स्वशुद्धात्मा ज
चारित्र छे.
Page 156 of 565
PDF/HTML Page 170 of 579
single page version
अन्य [देवं ] देवको [मा चिन्तय ] मत ध्यावे, [आत्मानं विमलं ] रागादि मल रहित आत्माको
[मुक्तवा ] छोड़कर अर्थात् अपना आत्मा ही तीर्थ है, वहाँ रमण कर, आत्मा ही गुरु है, उसकी
सेवा कर और आत्मा ही देव है उसीकी आराधना कर
Page 157 of 565
PDF/HTML Page 171 of 579
single page version
संसारसमुद्रतरणसमर्थत्वान्निश्चयनयेन स्वात्मतत्त्वमेव तीर्थं भवति
स्वशुद्धात्मैव गुरुः
वीतराग निर्विकल्पसमाधिरूप छेद रहित जहाजकर संसाररूपी समुद्रके तरनेको समर्थ जो निज
आत्मतत्त्व है, वही निश्चयकर तीर्थ है, उसके उपदेश-परम्परासे परमात्मतत्त्वका लाभ होता है
कषाय आदिक समस्त विभावपरिणामोंके त्यागनेके समय निज शुद्धात्मा ही गुरु है, उसीसे
संसारकी निवृत्ति होती है
परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्पपरमसमाधिके समय निज शुद्धात्मभाव ही देव हैं, अन्य
नहीं
छिद्र रहित जहाज वडे संसारसमुद्रने तरवाने समर्थ होवाथी निश्चयनयथी स्वआत्मतत्त्व ज तीर्थ
छे
होवाथी ‘स्वशुद्धात्मा’ ज गुरु छे.
कहेवाय छे तोपण, निश्चयनयथी परम आराध्य होवाथी वीतराग निर्विकल्प त्रिगुप्तियुक्त
परमसमाधिकाळे ‘स्वशुद्धात्मस्वभाव’ ज देव छे.
Page 158 of 565
PDF/HTML Page 172 of 579
single page version
स्वशुद्धात्मस्वभाव एव देव इति
ये सब निश्चयके साधक हैं, इसलिये प्रथम अवस्थामें आराधने योग्य हैं
ऐसा सारांश हुआ
[एक एव ध्यायते ] एक आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, [यः त्रैलोक्यस्य सारः ] जो कि
तीन लोकमें सार है
Page 159 of 565
PDF/HTML Page 173 of 579
single page version
अन्यः सर्वोऽपि व्यवहारस्तेन कारणेन स एव ध्यातव्य इति
त्मानुभूतिलक्षणैर्निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्बहुभिः परिणतो अनेकोऽप्यात्मात्वभेदविवक्षया
एकोऽपि भण्यत इति भावार्थः
समाधिमें लीन निश्चयनयसे निज आत्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है, अन्य सब व्यवहार है
उसी तरह शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि अनेक भावोंसे परिणत हुआ
आत्मा अनेकरूप है, तो भी अभेदनयकी विवक्षासे आत्मा एक ही वस्तु है
निर्विकल्प त्रिगुप्तियुक्त समाधिमां परिणमेलो स्वात्मा ज सम्यक्त्व छे, बाकीनो बधोय व्यवहार
छे, तेथी ते ज (स्वात्मा ज) ध्याववा योग्य छे.
ज्ञानचारित्रात्मक अनेक भावोरूपे परिणमेलो आत्मा अनेक होवा छतां अभेदविवक्षाथी एक ज
कहेवाय छे, एवो भावार्थ छे. (श्री अमृतचंद्राचार्य कृत पुरुषार्थसिद्ध्युपाय गाथा २१६मां)
अभेदरत्नत्रयनुं स्वरूप ए ज प्रमाणे कह्युं छे केः
Page 160 of 565
PDF/HTML Page 174 of 579
single page version
बंध कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता
स्वरूपको ध्यावो, [यं ] जिस परमात्माके [ध्यायमानानां ] ध्यान करनेवालोंको [एकक्षणेन ]
क्षणमात्रमें [परमपदं ] मोक्षपद [लभ्यते ] मिलता है
रीते थई शके? (अर्थात् थई शकतो नथी, ते निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मोक्षनुं कारण छे.) ९६.
Page 161 of 565
PDF/HTML Page 175 of 579
single page version
लोगोंको क्यों नहीं होता ? उसका समाधान इस तरह है
नहीं हो सकता
केवळज्ञाननी सिद्धि) एक क्षणे-अन्तर्मुहूर्तमां-थई).
८३मां) कह्युं पण छे के
Page 162 of 565
PDF/HTML Page 176 of 579
single page version
च्छेदनार्थमिदानीमपि तदेव ध्यातव्यमिति भावार्थः
भी धर्मध्यानका आराधन करना चाहिये, जिससे परम्परया मोक्ष भी मिल सकता है
कह्युं छे.) उपशम अने क्षपकश्रेणीथी नीचेना गुणस्थानमां वर्तता जीवोने धर्मध्यान होई शके
छे तेवी भगवाननी आज्ञा छे.
छे, एवो भावार्थ छे. ९७
Page 163 of 565
PDF/HTML Page 177 of 579
single page version
तपश्चरणं च मोक्षमपि किं कुर्वन्ति तस्येति
भर्गपुरुषादिवदिति भावार्थः
हैं ? कभी नहीं कर सकते
वीतरागसम्यक्त्वके अभावरूप हों, तो पुण्यबंधके कारण हैं, और जो मिथ्यात्वरागादि सहित हों,
तो पापबंधके कारण है, जैसे कि रुद्र वगैरह विद्यानुवादनामा दशवें पूर्व तक शास्त्र पढ़कर भ्रष्ट
हो जाते हैं
छे, तेना अभावमां तेओ पुण्यबंधनां कारण छे. मिथ्यात्व, रागादि सहित होय तो, तेओ
पापबंधनां कारण छे, जेम रुद्रपुरुषने विद्यानुवाद नामना दशमा पूर्व सुधी शास्त्र भणवा छतां
पापबंधनां कारण थयां हतां. ए भावार्थ छे. ९८.
Page 164 of 565
PDF/HTML Page 178 of 579
single page version
आत्माके भावरूप केवलज्ञानमें [बिम्बितं ] यह लोक प्रतिबिम्बित हुआ [वसति ] बस रहा हैं
स्वरूप जो शुद्धपरमात्मा उसके ध्यानमें लीन हुए तिष्ठे थे
कारण जिन्होंने अपनी आत्मा जानी उन्होंने सबको जाना
बार अंग भणीने बार अंगना अध्ययनना फळरूप, निश्चयरत्नत्रयात्मक परमात्मध्यानमां लीन
रहे छे तेथी वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञान वडे निज आत्माने जाणतां सर्व जणायुं छे. (२) अथवा
निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न परमानंदरूप सुखरसनो आस्वाद उत्पन्न थतां ज, पुरुष एम जाणे
के ‘‘मारुं स्वरूप अन्य छे, देह-रागादि पर छे’’ तेथी आत्माने जाणतां, सर्व जणायुं. (३) अथवा
कर्तारूप आत्मा करणभूत श्रुतज्ञानरूप व्याप्तिज्ञानथी सर्व लोकालोकने जाणे छे तेथी आत्माने
जाणतां सर्व जणायुं. (४) अथवा केवळज्ञाननी उत्पत्तिना बीजरूप वीतराग, निर्विकल्प
Page 165 of 565
PDF/HTML Page 179 of 579
single page version
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन निजात्मनि ज्ञाते सति सर्वं ज्ञातं भवतीति
सर्वं ज्ञातं भवतीति
सर्वं ज्ञातं भवतीति अत्रेदं व्याख्यानचतुष्टयं ज्ञात्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहत्यागं कृत्वा सर्वतात्पर्येण
निजशुद्धात्मभावना कर्तव्येति तात्पर्यम्
जुदा है, और देह रागादिक मेरेसे दूसरे हैं, मेरे नहीं हैं, इसलिये आत्माके (अपने) जाननेसे
सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपनेको जान लिया, उसने अपनेसे भिन्न सब पदार्थ जाने
जाना गया
भासते हैं
तरहसे अपने शुद्धात्माकी भावना करनी चाहिये
देखता है, ऐसा जिनसूत्रमें कहा है
थाय छे तेवी रीते सर्वलोकनुं स्वरूप जणाय छे. ए कारणे आत्माने जाणतां, सर्व जणायुं.
पण कह्युं छे के
Page 166 of 565
PDF/HTML Page 180 of 579
single page version
इत्यादि सब भेदोंसे रहित है
आत्मस्वभावमें उनको [अशेषः लोकालोकः ] समस्त लोकालोक [लघु ] शीघ्र ही
[दृश्यते ] दिख जाता है
हवे, आ ज अर्थने द्रष्टांत द्रार्ष्टांतथी द्रढ करे छेः