Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 89-92 (Adhikar 1),93 (Adhikar 1) Bhedagyanani Mukhyatathi Aatmanu Kathan,94 (Adhikar 1),95 (Adhikar 1),96 (Adhikar 1),97 (Adhikar 1),98 (Adhikar 1),99 (Adhikar 1),100 (Adhikar 1).

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अधिकार-१ः दोहा-८९ ]परमात्मप्रकाशः [ १४७
कथंभूतो भवति ज्ञानी तमात्मानं कोऽसौ जानाति योगी ध्यानीति तथाहियद्यप्यात्मा
व्यवहारेण वन्दकादिलिङ्गी भण्यते तथापि शुद्धनिश्चयनयेनैकोऽपि लिङ्गी न भवतीति अयमत्र
भावार्थः देहाश्रितं द्रव्यलिङ्गमुपचरितासद्भूतव्यवहारेण जीवस्वरूपं भण्यते, वीतरागनिर्विकल्प-
समाधिरूपं भावलिङ्गं तु यद्यपि शुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वादुपचारेण शुद्धजीवस्वरूपं भण्यते, तथापि
सूक्ष्मशुद्धनिश्चयेन न भण्यत इति
।।८८।। अथ
८९) अप्पा गुरु णवि सिस्सु णवि णवि सामिउ णवि भिच्चु
सूरउ कायरु होइ णवि णवि उत्तमु णवि णिच्चु ।।८९।।
आत्मा गुरुः नैव शिष्यः नैव नैव स्वामी नैव भृत्यः
शूरः कातरः भवति नैव नैव उत्तमः नैव नीचः ।।८९।।
है, वह उपचरितासद्भूतव्यवहारनयकर जीवका स्वरूप कहा जाता है, तो भी निश्चयनयकर
जीवका स्वरूप नहीं है
क्योंकि जब देह ही जीवकी नहीं, तो भेष कैसे हो सकता है ? इसलिये
द्रव्यलिंग तो सर्वथा ही नहीं है, और वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप भावलिंग यद्यपि
शुद्धात्मस्वरूपका साधक है, इसलिये उपचारनयकर जीवका स्वरूप कहा जाता है, तो भी
परमसूक्ष्म शुद्धनिश्चयनयकर भावलिंग भी जीवका नहीं है
भावलिंग साधनरूप है, वह भी परम
अवस्थाका साधक नहीं है ।।८८।।
आगे यह गुरु शिष्यादिक भी नहीं है
गाथा८९
अन्वयार्थ :[आत्मा ] आत्मा [गुरुः नैव ] गुरु नहीं है, [शिष्य नैव ] शिष्य भी
नहीं है, [स्वामी नैव ] स्वामी भी नहीं है, [भृत्यः नैव ] नौकर नहीं है, [शूरः कातरः नैव ]
शूरवीर नहीं है, कायर नहीं है, [उत्तमः नैव ] उच्चकुली नहीं है, [नीचः नैव भवति ] और
नीचकुली भी नहीं है
साधक होवाथी उपचारथी शुद्ध जीवनुं स्वरूप कहेवामां आवे छे तोपण तेने सूक्ष्मशुद्धनिश्चयनयथी
शुद्ध जीवनुं स्वरूप कहेवामां आवतुं नथी. ८८.
हवे (आत्मा, गुरु, शिष्यादिक पण नथी एम कहे छे)ः
भावार्थगुरुशिष्यादि संबंधो जो के व्यवहारनयथी जीवना स्वरूपो छे तोपण
२. पाठान्तरःलिंगमु=लिंगमनु

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१४८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-९०
आत्मा गुरुर्नैव भवति शिष्योऽपि न भवति नैव स्वामी नैव भृत्यः शूरो न भवति
कातरो हीनसत्त्वो नैव भवति नैवोत्तमः उत्तमकुलप्रसूतः नैव नीचो नीचकुलप्रसूत इति
तद्यथा गुरुशिष्यादिसंबन्धान् यद्यपि व्यवहारेण जीवस्वरूपांस्तथापि शुद्धनिश्चयेन
परमात्मद्रव्याद्भिन्नान् हेयभूतान् वीतरागपरमानन्दैकस्वशुद्धात्मोपलब्धेश्च्युतो बहिरात्मा
स्वात्मसंबद्धान् करोति तानेव वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थो अन्तरात्मा परस्वरूपान् जानातीति
भावार्थः
।।८९।। अथ
९०) अप्पा माणुसु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ
अप्पा णारउ कहिँ वि णवि णाणिउ जाणइ जोइ ।।९०।।
आत्मा मनुष्यः देवः नापि आत्मा तिर्यग् न भवति
आत्मा नारकः क्वापि नैव ज्ञानी जानाति योगी ।।९०।।
भावार्थ :ये सब गुरु, शिष्य, स्वामी, सेवकादि संबंध यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके
स्वरूप हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयसे शुद्ध आत्मासे जुदे हैं, आत्माके नहीं हैं, त्यागने योग्य हैं,
इन भेदोंको वीतरागपरमानंद निज शुद्धात्माकी प्राप्तिसे रहित बहिरात्मा मिथ्यादृष्टिजीव अपने
समझता है, और इन्हीं भेदोंको वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें रहता हुआ अंतरात्मा सम्यग्दृष्टिजीव
पर रूप (दूसरे) जानता है
।।८९।।
आगे आत्माका स्वरूप कहते हैं
गाथा९०
अन्वयार्थ :[आत्मा ] जीव पदार्थ [मनुष्यः देवः नापि ] न तो मनुष्य है, न तो
देव है, [आत्मा ] आत्मा [तिर्यग् न भवति ] तिर्यंच पशु भी नहीं है, [आत्मा ] आत्मा
[नारकः ] नारकी भी [क्वापि नैव ] कभी नहीं, अर्थात् किसी प्रकार भी पररूप नहीं है, परन्तु
[ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, उसको [योगी ] मुनिराज तीन गुप्तिके धारक और निर्विकल्पसमाधिमें
लीन हुए [जानाति ] जानते हैं
शुद्धनिश्चयनयथी परमात्मद्रव्यथी भिन्न अने हेयभूत छे, तेमने पोताना आत्मामां संबद्ध करे
छे अने तेमने ज वीतराग निर्विकल्प समाधिस्थ अन्तरात्मा परस्वरूप जाणे छे, ए भावार्थ
छे. ८९.
हवे (आत्मानुं स्वरूप कहे छे)ः

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अधिकार-१ः दोहा-९१ ]परमात्मप्रकाशः [ १४९
अप्पा माणुसु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ अप्पा णारउ कहिं वि णवि आत्मा
मनुष्यो न भवति देवो नैव भवति आत्मा तिर्यग्योनिर्न भवति आत्मा नारकः क्वापि काले
न भवति
तर्हि किंविशिष्टो भवति णाणिउ जाणइ जोइ ज्ञानी ज्ञानरूपो भवति तमात्मानं
कोऽसो जानाति योगी कोऽर्थः त्रिगुप्तिनिर्विकल्पसमाधिस्थ इति तथाहि विशुद्धज्ञानदर्शन-
स्वभावपरमात्मतत्त्वभावनाप्रतिपक्षभूतैः रागद्वेषादिविभावपरिणामजालैर्यान्युपार्जितानि कर्माणि
तदुदयजनितान् मनुष्यादिविभावपर्यायान् भेदाभेदरत्नत्रयभावनाच्युतो बहिरात्मा स्वात्मतत्त्वे
योजयति
तद्विपरीतोऽन्तरात्मशब्दवाच्यो ज्ञानी पृथक् जानातीत्यभिप्रायः ।।९०।। अथ
९१) अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु
तरुणउ बूढउ बालु णवि अण्णु वि कम्म-विसेसु ।।९१।।
भावार्थ :निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव जो परमात्मतत्त्व उसकी भावनासे उलटे राग-
द्वेषादि विभाव-परिणामोंसे उपार्जन किये जो शुभाशुभ कर्म हैं, उनके उदयसे उत्पन्न हुई
मनुष्यादि विभाव-पर्यायोंको भेदाभेदस्वरूप रत्नत्रयकी भावनासे रहित हुआ मिथ्यादृष्टि जीव
अपने जानता है, और इस अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव उन मनुष्यादि पर्यायोंको अपनेसे
जुदा जानता है
।।९०।।
आगे फि र आत्माका स्वरूप कहते हैं
गाथा९१
अन्वयार्थ :[आत्मा ] चिद्रूप आत्मा [पंडितः ] विद्यावान् व [मूर्खः ] मूर्ख [नैव ]
नहीं है, [ईश्वरः ] धनवान् सब बातोंमें समर्थ भी [नैव ] नहीं है [निःस्वः ] दरिद्री भी [नैव ] नहीं
है, [तरुणः वृद्धः बालः नैव ] जवान, बूढ़ा और बालक भी नहीं है, [अन्यः अपि कर्म विशेषः ]
ये सब पर्यायें आत्मासे जुदे कर्मके विशेष हैं, अर्थात् क र्ममें उत्पन्न हुए विभाव-पर्याय हैं
भावार्थभेदाभेदरत्नत्रयनी भावनाथी च्युत एवो बहिरात्मा, विशुद्धज्ञान,
विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा परमात्मतत्त्वनी भावनाथी प्रतिपक्षभूत रागद्वेषादि
विभावपरिणामनी जाळथी उपार्जन करवामां आवेलां कर्मोना उदयथी थयेल मनुष्यादि
विभावपर्यायोने स्वात्मतत्त्वमां योजे छे-जोडे छे, तेनाथी विपरीत ‘अन्तरात्मा’ शब्दथी वाच्य
एवो ज्ञानी तेमने पृथक् जाणे छे. ए अभिप्राय छे. ९०.
हवे (फरी आत्मानुं स्वरूप कहे छे)ः

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१५० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-९२
आत्मा पण्डितः मूर्खः नैव नैव ईश्वरः नैव निःस्वः
तरुणः वृद्धः बालः नैव अन्यः अपि कर्मविशेषः ।।९१।।
अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु तरुणउ बूढउ बालु णवि आत्मा
पण्डितो न भवति मूर्खो नैव ईश्वरः समर्थो नैव निःस्वो दरिद्रः तरुणो वृद्धो बालोऽपि नैव
पण्डितादिस्वरूपं यद्यात्मस्वभावो न भवति तर्हि किं भवति अण्णु वि कम्मविसेसु अन्य एव
कर्मजनितोऽयं विभावपर्यायविशेष इति तद्यथा पण्डितादिसंबन्धान् यद्यपि व्यवहारनयेन
जीवस्वभावान् तथापि शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धात्मद्रव्याद्भिन्नान् सर्वप्रकारेण हेयभूतान्
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानभावनारहितोऽपि बहिरात्मा स्वस्मिन्नियोजयति तानेव पण्डितादि-
विभावपर्यायांस्तद्विपरीतो योऽसौ चान्तरात्मा परस्मिन् कर्माणि नियोजयतीति तात्पर्यार्थः
।।९१।।
अथ
९२) पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ
एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयणभाउ ।।९२।।
भावार्थ :यद्यपि शरीरके सम्बन्धसे पंडित वगैरह भेद व्यवहारनयसे जीवके कहे
जाते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर शुद्धात्मद्रव्यसे भिन्न हैं, और सर्वथा त्यागने योग्य हैं इन
भेदोंको वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी भावनासे रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने जानता है, और इन्हींको
पंडितादि विभावपर्यायोंको अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपनेसे जुदे कर्मजनित जानता
है
।।९१।।
आगे आत्माका चेतनभाव वर्णन करते हैं
जो पंडितादिस्वरूप आत्मानो स्वभाव नथी तो ते शुं छे? [अन्यः अपि कर्म विशेषः]
पंडितादि स्वरूप आत्माथी भिन्न कर्मविशेष छेअर्थात् कर्मजनित विभाव पर्याय विशेष छे.
भावार्थवीतरागस्वसंवेदनरूप ज्ञाननी भावनाथी रहित एवो बहिरात्मा,
पंडितादि संबंधो जो के व्यवहारनयथी जीवना स्वभावो छे तोपण शुद्धनिश्चयनयथी
शुद्धात्मद्रव्यथी भिन्न अने सर्वप्रकारे हेयभूत छे तेमने पोतामां योजे छे
जोडे छे अने तेनाथी
विपरीत जे अन्तरात्मा छे ते, ते ज पंडितादि विभावपर्यायोने पर एवा कर्ममां योजे छे.
(तेमने पोताथी जुदा कर्मजनित जाणे छे.) ए तात्पयार्थ छे. ९१.
हवे (आत्माना चेतनभावनुं वर्णन करे छे)ः

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अधिकार-१ः दोहा-९२ ]परमात्मप्रकाशः [ १५१
पुण्यमपि पापमपि कालः नभः धर्माधर्ममपि कायः
एकमपि आत्मा भवति नैव मुक्त्वा चेतनभावम् ।।९२।।
पुएणु वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ पुण्यमपि पापमपि कालः नभः
आकाशं धर्माधर्ममपि कायः शरीरं, एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयणभाउ इदं
पूर्वोक्त मेकमप्यात्मा न भवति
किं कृत्वा मुक्त्वा किं चेतनभावमिति तथाहि
व्यवहारनयेनात्मनः सकाशादभिन्नान् शुद्धनिश्चयेन भिन्नान् हेयभूतान् पुण्य-
पापादिधर्माधर्मान्मिथ्यात्वरागादिपरिणतो बहिरात्मा स्वात्मनि योजयति तानेव पुण्यपापादि
समस्तसंकल्पविकल्पपरिहारभावनारूपे स्वशुद्धात्मद्रव्ये सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेद-
रत्नत्रयात्मके परमसमाधौ स्थितोऽन्तरात्मा शुद्धात्मनः सकाशात् पृथग् जानातीति
तात्पर्यार्थः
।।९२।। एवं त्रिविधात्मप्रतिपादकमहाधिकारमध्ये मिथ्याद्रष्टिभावनाविपरीतेन
गाथा९२
अन्वयार्थ :[पुण्यमपि ] पुण्यरूप शुभकर्म [पापमपि ] पापरूप अशुभकर्म
[कालः ] अतीत अनागत वर्तमान काल [नभः ] आकाश [धर्माधर्ममपि ] धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य
[कायः ] शरीर, इनमेंसे [एक अपि ] एक भी [आत्मा ] आत्मा [नैव भवति ] नहीं है,
[चेतनभावम् मुक्तवा ] चेतनभावको छोड़कर अर्थात् एक चेतनभाव ही अपना है
।।
भावार्थ :व्यवहारनयकर यद्यपि पुण्य, पापादि आत्मासे अभिन्न हैं, तो भी
शुद्धनिश्चयनयकर भिन्न हैं, और त्यागने योग्य हैं, उन परभावोंको मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत
हुआ बहिरात्मा जानता है, और उन्हींको पुण्य, पापादि समस्त संकल्प, विकल्परहित निज
शुद्धात्मद्रव्यमें सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेदरत्नत्रयस्वरूप परमसमाधिमें तिष्ठता
सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धात्मासे जुदे जानता है
।।९२।।
ऐसे बहिरात्मा परमात्मारूप तीन प्रकारके आत्माका जिसमें कथन है, ऐसे पहले
भावार्थमिथ्यात्व, रागादिरूपे परिणमेलो बहिरात्मा व्यवहारनयथी आत्माथी
अभिन्न अने शुद्धनिश्चयनयथी आत्माथी भिन्न, हेयभूत एवा ते पुण्य, पाप अने
धर्माधर्मादि द्रव्योने पोतामां योजे छे अने तेमने ज, पुण्यपापादि समस्त संकल्प-विकल्पना
त्यागनी भावनारूप, निजशुद्धात्मद्रव्यनां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्आचरणरूप
अभेदरत्नत्रयात्मक परमसमाधिमां स्थित एवो अंतरात्मा शुद्धात्माथी पृथक् जाणे छे. ९२.
ए प्रमाणे त्रण प्रकारना आत्माना प्रतिपादक महाधिकारमां मिथ्याद्रष्टिनी भावनाथी

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१५२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-९३
सम्यग्द्रष्टिभावनास्थितेन सूत्राष्टकं समाप्तम् ।।
अथानन्तरं सामान्यभेदभावनामुख्यत्वेन ‘अप्पा संजमु’ इत्यादि प्रक्षेपकान्
विहायैकत्रिंशत्सूत्रपर्यन्तमुपसंहाररूपा चूलिका कथ्यते तद्यथा
यदि पुण्यपापादिरूपः परमात्मा न भवति तर्हि कीद्रशो भवतीति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह
९३) अप्पा संजमु सीलु तउ अप्पा दंसणु णाणु
अप्पा सासय-मोक्ख-पउ जाणंतउ अप्पाणु ।।९३।।
आत्मा संयमः शीलं तपः आत्मा दर्शनं ज्ञानम्
आत्मा शाश्वतमोक्षपदं जानन् आत्मानम् ।।९३।।
अधिकारमें मिथ्यादृष्टिकी भावनासे रहित जो सम्यग्दृष्टिकी भावना उसकी मुख्यतासे आठ दोहा-
सूत्र कहे
आगे भेदविज्ञानकी मुख्यतासे ‘‘अप्पा संजमु’’ इत्यादि इकतीस दोहापर्यन्त क्षेपक-
सूत्रोंको छोड़कर पहला अधिकार पूर्ण करते हुए व्याख्यान करते हैं, उसमें भी जो शिष्यने प्रश्न
किया कि यदि पुण्य-पापादिरूप आत्मा नहीं है, तो कैसा है ? ऐसे प्रश्नका श्रीगुरु समाधान
करते हैं
गाथा९३
अन्वयार्थ :[आत्मा ] निज गुण-पर्यायका धारक ज्ञानस्वरूप चिदानंद ही [संयमः ]
संयम है, [शीलं तपः ] शील है, तप है, [आत्मा ] आत्मा [दर्शनं ज्ञानम् ] दर्शनज्ञान है, और
[आत्मानम् जानन् ] अपनेको जानता अनुभवता हुआ [आत्मा ] आत्मा [शाश्वतमोक्षपदं ]
अविनाशी सुखका स्थान मोक्षका मार्ग है
इस कथनको विशेषतर कहते हैं
विपरीत सम्यग्द्रष्टिनी भावनानी मुख्यताथी आठ गाथासूत्रो समाप्त थयां.
त्यार पछी हवे सामान्य भेदभावनानी मुख्यताथी ‘अप्पा संजमु’ इत्यादि प्रक्षेपकोने
छोडीने एकत्रीस सूत्रो सुधी (पहेलो अधिकार पूर्ण करतां) उपसंहाररूपे चूलिका कहे छे. ते
आ प्रमाणेः
जो पुण्य पापादिरूप परमात्मा नथी तो ते केवो छे?
एवा प्रश्नना उत्तररूपे श्रीगुरु समाधान करे छेः

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अधिकार-१ः दोहा-९३ ]परमात्मप्रकाशः [ १५३
अप्पा संजमु सीलु तउ अप्पा दंसणु णाणु अप्पा सासयमोक्खपउ आत्मा संयमो भवति
शीलं भवति तपश्चरणं भवति आत्मा दर्शनं भवति शाश्वतमोक्षपदं च भवति अथवा पाठान्तरं
‘सासयमुक्खपहुं’ शाश्वतमोक्षस्य पन्था मार्गः, अथवा ‘सासयसुक्खपउ’ शाश्वतसौख्यपदं स्वरूपं
च भवति
किं कुर्वन् सन् जाणंतउ अप्पाणु जानन्ननुभवन् कम् आत्मानमिति तद्यथा
बहिरङ्गेन्द्रियसंयमप्राणसंयमबलेन साध्यसाधकभावेन निश्चयेन स्वशुद्धात्मनि संयमनात्
स्थितिकरणात् संयमो भवति, बहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन कामक्रोधविवर्जनलक्षणेन व्रतपरिरक्षण-
शीलेन निश्चयेनाभ्यन्तरे स्वशुद्धात्मद्रव्यनिर्मलानुभवनेन शीलं भवति
बहिरङ्गेन सहकारिकारण-
भावार्थ :पाँच इन्द्रियाँ और मनका रोकना व छह कायके जीवोंकी दयास्वरूप ऐसे
इन्द्रियसंयम तथा प्राणसंयम इन दोनोंके बलसे साध्य-साधक भावकर निश्चयसे अपने
शुद्धात्मस्वरूपमें स्थिर होनेसे आत्माको संयम कहा गया है, बहिरंग सहकारी निश्चय शीलका
कारणरूप जो काल क्रोधादिके त्यागरूप व्रतकी रक्षा वह व्यवहार शील है, और निश्चयनयकर
अंतरंगमें अपने शुद्धात्मद्रव्यका निर्मल अनुभव वह शील कहा जाता है, सो शीलरूप आत्मा
ही कहा गया है, बाह्य सहकारी कारणभूत जो अनशनादि बारह प्रकारका तप है, उससे तथा
निश्चयकर अंतरंगमें सब परद्रव्यकी इच्छाके रोकनेसे परमात्मस्वभाव (निजस्वभाव) में
प्रतापरूप तिष्ठ रहा है, इस कारण और समस्त विभावपरिणामोंके जीतनेसे आत्मा ही ‘तपश्चरण
है, और आत्मा ही निजस्वरूपकी रुचिरूप सम्यक्त्व है, वह सर्वथा उपादेयरूप है, इससे
सम्यग्दर्शन आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं है, वीतराग स्वसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही
है, अन्य कोई नहीं है, वीतरागसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही निश्चयज्ञानरूप है, और
भावार्थसाध्यसाधक भाव वडे बहिरंग इन्द्रिय संयम अने प्राणसंयमना बळथी
निश्चये स्वशुद्धात्मामां संयमित रहेवुंस्थिति करवीते संयम छे.
बहिरंग सहकारीकारणभूत कामक्रोधादिना त्यागस्वरूप व्रतरक्षणरूप शील वडे निश्चयथी
अभ्यंतरमां स्वशुद्धात्मद्रव्यनो निर्मळ अनुभव करवो ते शील छे.
बहिरंग सहकारीकारणभूत अनशनादि बार प्रकारना तपश्चरण वडे निश्चयनयथी
अभ्यंतरमां समस्त परद्रव्यनी इच्छानो निरोध करीने परमात्मस्वभावमां प्रतपवुं-विजयवंत वर्तवुं,
ते तपश्चरण छे.
‘स्वशुद्धात्मा’ ज उपादेय छे एवी रुचि करवी ते निश्चयसम्यक्त्व छे. वीतराग-
स्वसंवेदनरूप ज्ञाननुं अनुभवन ते निश्चयज्ञान छे. मिथ्यात्व, रागादि समस्त विकल्पजाळनो त्याग
करीने परमात्मतत्त्वमां परमसमरसीभावनुं परिणमन ते मोक्षमार्ग छे.

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१५४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-९४
भूतानशनादिद्वादशविधतपश्चरणेन निश्चयनयेनाभ्यन्तरे समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधेन परमात्मस्वभावे
प्रतपनाद्विजयनात्तपश्चरणं भवति
स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिकरणान्निश्चयसम्यक्त्वं भवति
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानानुभवनान्निश्चयज्ञानं भवति मिथ्यात्वरागादिसमस्तविकल्पजालत्यागेन
परमात्मतत्त्वे परमसमरसीभावपरिणमनाच्च मोक्षमार्गो भवतीति अत्र बहिरङ्गद्रव्येन्द्रियसंयमादि-
प्रतिपालनादभ्यन्तरे शुद्धात्मानुभूतिरूपभावसंयमादिपरिणमनादुपादेयसुखसाधकत्वादात्मैवोपादेय
इति तात्पर्यार्थः
।।९३।।
अथ स्वशुद्धात्मसंवित्तिं विहाय निश्चयनयेनान्यदर्शनज्ञानचारित्रं नास्तीत्यभिप्रायं
मनसि संप्रधार्य सूत्रं कथयति
९४) अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु
अण्णु जि चरणु ण अत्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु ।।९४।।
अन्यद् एव दर्शनं अस्ति नापि अन्यदेव अस्ति न ज्ञानं
अन्यद् एव चरणं न अस्ति जीव मुक्त्वा आत्मानं जानीहि ।।९४।।
मिथ्यात्व रागादि समस्त विकल्पजालको त्यागकर परमात्मतत्त्वमें परमसमरसीभावके परिणमनसे
आत्मा ही मोक्षमार्ग है
तात्पर्य यह है, कि बहिरंग द्रव्येन्द्रिय-संयमादिके पालनेसे अंतरंगमें
शुद्धात्माके अनुभवरूप भावसंयमादिकके परिणमनसे उपादेयसुख जो अतीन्द्रियसुख उसके
साधकपनेसे आत्मा ही उपादेय है
।।९३।।
आगे निज शुद्धात्मस्वरूपको छोड़कर निश्चयनयसे दूसरा कोई दर्शन ज्ञान चारित्र नहीं
है, इस अभिप्रायको मनमें रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं
गाथा९४
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव [आत्मानं ] आत्माको [मुक्तवा ] छोड़कर
[अन्यदपि ] दूसरा कोई भी [दर्शनं ] दर्शन [न एव ] नहीं है, [अन्यदपि ] अन्य कोई [ज्ञानं
अहीं, बहिरंगथी द्रव्येन्द्रियना संयमादिना प्रतिपालनथी अभ्यंतरमां शुद्धात्मानुभूतिरूप
भावसंयमादिरूपे परिणमन द्वारा उपादेय एवा सुखनो साधक होवाथी ‘आत्मा’ ज उपादेय छे,
एवो तात्पर्यार्थ छे. ९३.
हवे, स्वशुद्धात्मानी संवित्ति सिवाय निश्चयनयथी अन्य कोई दर्शन, ज्ञान, चारित्र नथी
एवो अभिप्राय मनमां राखीने सूत्र कहे छेः

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अधिकार-१ः दोहा-९४ ]परमात्मप्रकाशः [ १५५
अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु अण्णु जि चरणु ण अत्थि
जिय अन्यदेव दर्शनं नास्ति अन्यदेव ज्ञानं नास्ति अन्यदेव चरणं नास्ति हे जीव किं कृत्वा
मेल्लिवि अप्पा जाणु मुक्त्वा कम् आत्मानं जानीहीति तथाहि यद्यपि
षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थाः साध्यसाधकभावेन निश्चयसम्यक्त्वहेतुत्वाद्व्यवहारेण
सम्यक्त्वं भवति, तथापि निश्चयेन वीतरागपरमानन्दैकस्वभावः शुद्धात्मोपादेय इति
रुचिरूपपरिणामपरिणतशुद्धात्मैव निश्चयसम्यक्त्वं भवति
यद्यपि निश्चयस्वसंवेदनज्ञानसाधकत्वात्तु
व्यवहारेण शास्त्रज्ञानं भवति, तथापि निश्चयनयेन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानपरिणतः शुद्धात्मैव
निश्चयज्ञानं भवति
यद्यपि निश्चयचारित्रसाधकत्वान्मूलोत्तरगुणा व्यवहारेण चारित्रं भवति,
तथापि शुद्धात्मानुभूतिरूपवीतरागचारित्रपरिणतः स्वशुद्धात्मैव निश्चयनयेन चारित्रं भवतीति
न अस्ति ] ज्ञान नहीं है, [अन्यद् एव चरणं नास्ति ] अन्य कोई चरित्र नहीं है, ऐसा
[जानीहि ] तू जान, अर्थात् आत्मा ही दर्शन ज्ञान चारित्र है, ऐसा संदेह रहित जानो
भावार्थ :यद्यपि छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व, नौ पदार्थका श्रद्धान
कार्य-कारणभावसे निश्चयसम्यक्त्वका कारण होनेसे व्यवहारसम्यक्त्व कहा जाता है, अर्थात्
व्यवहार साधक है, निश्चय साध्य है, तो भी निश्चयनयकर एक वीतराग परमानंदस्वभाववाला
शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप परिणामसे परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है,
यद्यपि निश्चयस्वसंवेदनज्ञानका साधक होनेसे व्यवहारनयकर शास्त्रका ज्ञान भी ज्ञान है, तो भी
निश्चयनयकर वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरूप परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयज्ञान है
यद्यपि
निश्चयचारित्रके साधक होनेसे अट्ठाईस मूलगुण, चौरासी लाख उत्तरगुण, व्यवहारनयकर चारित्र
कहे जाते हैं, तो भी शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग-चारित्रको परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही
भावार्थजो के छ द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्त्व, अने नव पदार्थ
साध्यसाधकभाव वडे निश्चयसम्यक्त्वना हेतु होवाथी व्यवहारनयथी सम्यक्त्व छे, तोपण
निश्चयनयथी वीतराग परमानंद जेनो एक स्वभाव छे एवो शुद्ध आत्मा उपादेय छे , एवी
रुचिरूप परिणामे परिणमेलो शुद्ध आत्मा ज निश्चयसम्यक्त्व छे; जो के शास्त्रज्ञान
निश्चयस्वसंवेदनज्ञाननुं साधक होवाथी व्यवहारथी ज्ञान छे, तोपण निश्चयनयथी
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरूपे परिणमेलो शुद्ध आत्मा ज निश्चयज्ञान छे; जो के व्यवहारनयथी मूळ
-उत्तर गुणो (अठ्ठावीस मूळ गुणो, चोरासीलाख उत्तर गुणो) निश्चयचारित्रना साधक होवाथी
चारित्र छे तोपण निश्चयनयथी शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतरागचारित्ररूपे परिणमेलो स्वशुद्धात्मा ज
चारित्र छे.

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१५६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-९५
अत्रोक्त लक्षणेऽभेदरत्नत्रयपरिणतः परमात्मैवोपादेय इति भावार्थः ।।९४।।
अथ निश्चयेन वीतरागभावपरिणतः स्वशुद्धात्मैव निश्चयतीर्थः निश्चयगुरुर्निश्चयदेव इति
कथयति
९५) अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि
अण्णु जि देउ म चिंति तुहुँ अप्पा विमलु मुएवि ।।९५।।
अन्यद् एव तीर्थ मा याहि जीव अन्यद् एव गुरुं मा सेवस्व
अन्यद् एव देवं मा चिन्तय त्वं आत्मानं विमलं मुक्त्वा ।।९५।।
अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि अण्णु जि देउ म चिंति
तुहुं अन्यदेव तीर्थं मा गच्छ हे जीव अन्यदेव गुरुं मा सेवस्व अन्यदेव देवं मा चिन्तय त्वम्
निश्चयनयकर चारित्र है तात्पर्य यह है कि अभेदरूप परिणत हुआ परमात्मा ही ध्यान करने
योग्य है ।।९४।।
आगे निश्चयनयकर वीतरागभावरूप परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही निश्चयतीर्थ,
निश्चयगुरु, निश्चयदेव है, ऐसा कहते हैं
गाथा९५
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव [त्वं ] तू [अन्यद् एव ] दूसरे [तीर्थं ] तीर्थको [मा
याहि ] मत जावे, [अन्यद् एव ] दूसरे [गुरुं ] गुरुको [मा सेवस्व ] मत सेवे, [अन्यद् एव ]
अन्य [देवं ] देवको [मा चिन्तय ] मत ध्यावे, [आत्मानं विमलं ] रागादि मल रहित आत्माको
[मुक्तवा ] छोड़कर अर्थात् अपना आत्मा ही तीर्थ है, वहाँ रमण कर, आत्मा ही गुरु है, उसकी
सेवा कर और आत्मा ही देव है उसीकी आराधना कर
भावार्थ :यद्यपि व्यवहारनयसे मोक्षके स्थानक सम्मेदशिखर आदि व जिनप्रतिमा
अहीं, उक्त लक्षणवाळो अभेदरत्नत्रयरूपे परिणमेलो परमात्मा ज उपादेय छे, एवो
भावार्थ छे. ९४.
हवे, निश्चयनयथी वीतरागभावरूपे परिणमेलो स्वशुद्धात्मा ज निश्चयतीर्थ छे, निश्चयगुरु
छे, निश्चयदेव छे एम कहे छेः
भावार्थजो के व्यवहारनयथी निर्वाणस्थान, चैत्य (जिन प्रतिमा), चैत्यालय
अत्रोक्त लक्षणेऽ तेने बदले अत्रोक्त लक्षणोऽ एम होवुं जोईए.

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अधिकार-१ः दोहा-९५ ]परमात्मप्रकाशः [ १५७
किं कृत्वा अप्पा विमलु मुएवि मुक्त्वा त्यक्त्वा कम् आत्मानम् कथंभूतम् विमलं
रागादिरहितमिति तथाहि यद्यपि व्यवहारनयेन निर्वाणस्थानचैत्यचैत्यालयादिकं
तीर्थभूतपुरुषगुणस्मरणार्थं तीर्थं भवति, तथापि वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपनिश्छिद्रपोतेन
संसारसमुद्रतरणसमर्थत्वान्निश्चयनयेन स्वात्मतत्त्वमेव तीर्थं भवति
यदुपदेशात्पारंपर्येण
परमात्मतत्त्वलाभो भवतीति व्यवहारेण शिक्षादीक्षादायको यद्यपि गुरुर्भवति, तथापि
निश्चयनयेन पञ्चेन्द्रियविषयप्रभृतिसमस्तविभावपरिणामपरित्यागकाले संसारविच्छित्तिकारणत्वात्
स्वशुद्धात्मैव गुरुः
यद्यपि प्राथमिकापेक्षया सविकल्पापेक्षया चित्तस्थितिकरणार्थं
तीर्थंकरपुण्यहेतुभूतं साध्यसाधकभावेन परंपरया निर्वाणकारणं च जिनप्रतिमादिकं व्यवहारेण देवो
जिनमंदिर आदि तीर्थ हैं, क्योंकि वहाँसे गये महान् पुरुषोंके गुणोंकी याद होती है, तो भी
वीतराग निर्विकल्पसमाधिरूप छेद रहित जहाजकर संसाररूपी समुद्रके तरनेको समर्थ जो निज
आत्मतत्त्व है, वही निश्चयकर तीर्थ है, उसके उपदेश-परम्परासे परमात्मतत्त्वका लाभ होता है
यद्यपि व्यवहारनयकर दीक्षा शिक्षाका देनेवाला दिगंबर गुरु होता है, तो भी निश्चयनयकर विषय
कषाय आदिक समस्त विभावपरिणामोंके त्यागनेके समय निज शुद्धात्मा ही गुरु है, उसीसे
संसारकी निवृत्ति होती है
यद्यपि प्रथम अवस्थामें चित्तकी स्थिरताके लिये व्यवहारनयकर
जिनप्रतिमादिक देव कहे जाते हैं, और वे परंपरासे निर्वाणके कारण हैं, तो भी निश्चयनयकर
परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्पपरमसमाधिके समय निज शुद्धात्मभाव ही देव हैं, अन्य
नहीं
इसप्रकार निश्चय व्यवहारनयकर साध्य-साधक-भावसे तीर्थ गुरु देवका स्वरूप जानना
चाहिये निश्चयदेव, निश्चयगुरु, निश्चयतीर्थ निज आत्मा ही है, वही साधने योग्य है, और
(मंदिर) वगेरे तीर्थरूप पुरुषना गुणना स्मरणार्थे तीर्थ छे तोपण, वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप
छिद्र रहित जहाज वडे संसारसमुद्रने तरवाने समर्थ होवाथी निश्चयनयथी स्वआत्मतत्त्व ज तीर्थ
छे
के जेना उपदेशथी परंपराए परमात्मानी प्राप्ति थाय छे.
जो के व्यवहारनयथी शिक्षा, दीक्षाना देनार गुरु छे तोपण, निश्चयनयथी पंचेन्द्रियना
विषय (कषाय) आदिथी मांडीने समस्त विभावपरिणामना त्याग समये संसारना नाशनुं कारण
होवाथी ‘स्वशुद्धात्मा’ ज गुरु छे.
जो के प्राथमिक अपेक्षाए-सविकल्प अपेक्षाएचित्तने स्थिर करवा माटे तीर्थंकरना पुण्यना
हेतुरूप अने साध्यसाधक भावथी परंपराए निर्वाणनुं कारण एवी जिनप्रतिमादिक व्यवहारथी देव
कहेवाय छे तोपण, निश्चयनयथी परम आराध्य होवाथी वीतराग निर्विकल्प त्रिगुप्तियुक्त
परमसमाधिकाळे ‘स्वशुद्धात्मस्वभाव’ ज देव छे.
१ पाठान्तरःय = त

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१५८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-९६
भण्यते, तथापि निश्चयनयेन परमाराध्यत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिपरमसमाधिकाले
स्वशुद्धात्मस्वभाव एव देव इति
एवं निश्चयव्यवहाराभ्यां साध्यसाधकभावेन तीर्थगुरुदेवतास्वरूपं
ज्ञातव्यमिति भावार्थः ।।९५।।
अथ निश्चयेनात्मसंवित्तिरेव दर्शनमिति प्रतिपादयति
९६) अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सव्वु ववहारु
एक्कु जि जोइय झाइयइ जो तइलोयहँ सारु ।।९६।।
आत्मा दर्शनं केवलोऽपि अन्यः सर्वः व्यवहारः
एक एव योगिन् ध्यायते यः त्रैलोक्यस्य सारः ।।९६।।
अप्पा दंसणु केवलु वि आत्मा दर्शनं सम्यक्त्वं भवति कथंभूतोऽपि केवलोऽपि
व्यवहारदेव जिनेन्द्र तथा उनकी प्रतिमा, व्यवहारगुरु महामुनिराज, व्यवहारतीर्थ सिद्धक्षेत्रादिक
ये सब निश्चयके साधक हैं, इसलिये प्रथम अवस्थामें आराधने योग्य हैं
तथा निश्चयनयकर
ये सब पदार्थ हैं, उनसे साक्षात् सिद्धि नहीं है, परम्परासे है यहाँ श्रीपरमात्मप्रकाश अध्यात्म-
ग्रंथमें निश्चयदेव गुरु तीर्थ अपना आत्मा ही है, उसे आराधनाकर अनंत सिद्ध हुए और होवेंगे,
ऐसा सारांश हुआ
।।९५।।
आगे निश्चयनयकर आत्मस्वरूप ही सम्यग्दर्शन है
गाथा९६
अन्वयार्थ :[केवलः आत्मा अपि ] केवल (एक) आत्मा ही [दर्शनं ]
सम्यग्दर्शन है, [अन्यः सर्वः व्यवहारः ] दूसरा सब व्यवहार है, इसलिये [योगिन् ] हे योगी
[एक एव ध्यायते ] एक आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, [यः त्रैलोक्यस्य सारः ] जो कि
तीन लोकमें सार है
भावार्थ :वीतराग चिदानंद अखंड स्वभाव, आत्मतत्त्वका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान
ए प्रमाणे साध्यसाधकभावथी निश्चय व्यवहारनयथी तीर्थ, गुरु अने देवनुं स्वरूप
जाणवुं, एवो भावार्थ छे. ९५.
हवे, निश्चयथी आत्मसंवित्ति ज (आत्मानुं संवेदन ज) दर्शन (सम्यक्त्व) छे, एम कहे
छेः
१ साध्यसाधकभावनां स्पष्टीकरण माटे श्रीपंचास्तिकाय गुजराती गाथा १६६ थी १७२ सुधीनी
फूटनोट जुओ.

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अधिकार-१ः दोहा-९६ ]परमात्मप्रकाशः [ १५९
अण्णु सव्वु ववहारु अन्यः शेषः सर्वोऽपि व्यवहारः तेन कारणेन एक्कु जि जोइय झाइयइ
हे योगिन्, एक एव ध्यायते यः आत्मा कथंभूतः जो तइलोयहं सारु यः परमात्मा
त्रैलोक्यस्य सारभूत इति तद्यथा वीतरागचिदानन्दैकस्वभावात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धान-
ज्ञानानुभूतिरूपाभेदरत्नत्रयलक्षणनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिपरिणतो निश्चयनयेन स्वात्मैव सम्यक्त्वं
अन्यः सर्वोऽपि व्यवहारस्तेन कारणेन स एव ध्यातव्य इति
अत्र यथा द्राक्षा-
कर्पूरश्रीखण्डादिबहुद्रव्यैर्निष्पन्नमपि पानकमभेदविवक्षया कृत्वैकं भण्यते, तथा शुद्धा-
त्मानुभूतिलक्षणैर्निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्बहुभिः परिणतो अनेकोऽप्यात्मात्वभेदविवक्षया
एकोऽपि भण्यत इति भावार्थः
तथा चोक्तं अभेदरत्नत्रयलक्षणम्‘‘दर्शनमात्म-
विनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः स्थितिरात्मन चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति
बन्धः ।।’’ ।।९६।।
अनुभवरूप जो अभेदरत्नत्रय वही जिसका लक्षण है, तथा मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तिरूप
समाधिमें लीन निश्चयनयसे निज आत्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है, अन्य सब व्यवहार है
इस
कारण आत्मा ही ध्यावने योग्य है जैसे दाख, कपूर, चन्दन इत्यादि बहुत द्रव्योंसे बनाया गया
जो पीनेका रस यद्यपि अनेक रसरूप है, तो भी अभेदनयकर एक पानवस्तु कही जाती है,
उसी तरह शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि अनेक भावोंसे परिणत हुआ
आत्मा अनेकरूप है, तो भी अभेदनयकी विवक्षासे आत्मा एक ही वस्तु है
यही
अभेदरत्नत्रयका स्वरूप जैन सिद्धान्तोंमें हरएक जगह कहा है‘‘दर्शनमित्यादि’’ इसका अर्थ
ऐसा है, कि आत्माका निश्चय वह सम्यग्दर्शन है, आत्माका जानना वह सम्यग्ज्ञान है, और
भावार्थनिश्चयनयथी वीतराग चिदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा
आत्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्अनुभूतिरूप अभेदरत्नत्रयस्वरूप अने
निर्विकल्प त्रिगुप्तियुक्त समाधिमां परिणमेलो स्वात्मा ज सम्यक्त्व छे, बाकीनो बधोय व्यवहार
छे, तेथी ते ज (स्वात्मा ज) ध्याववा योग्य छे.
अहीं जेवी रीते द्राक्ष, कपूर, चंदनादि अनेक द्रव्योथी बनेल पानक अभेद विवक्षाए
करीने एक ज कहेवाय छे, तेवी रीते शुद्धआत्मानी अनुभूतिस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन-
ज्ञानचारित्रात्मक अनेक भावोरूपे परिणमेलो आत्मा अनेक होवा छतां अभेदविवक्षाथी एक ज
कहेवाय छे, एवो भावार्थ छे. (श्री अमृतचंद्राचार्य कृत पुरुषार्थसिद्ध्युपाय गाथा २१६मां)
अभेदरत्नत्रयनुं स्वरूप ए ज प्रमाणे कह्युं छे केः
‘‘दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बंधः ।।’’ अर्थआत्माना स्वरूपनो निश्चय थवो ते
सम्यग्दर्शन छे, आत्माना स्वरूपनुं परिज्ञान थवुं ते सम्यग्ज्ञान छे अने आत्मस्वरूपमां लीन

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१६० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-९७
अथ निर्मलमात्मानं ध्यायस्व येन ध्यातेनान्तर्मुहूर्तेनैव मोक्षपदं लभ्यत इति
निरूपयति
९७) अप्पा झायहि णिम्मलउ किं बहुएँ अण्णेण
जो झायंतहँ परम-पउ लब्भइ एक्क-खणेण ।।९७।।
आत्मानं ध्यायस्व निर्मलं किं बहुना अन्येन
यं ध्यायमानानां परमपदं लभ्यते एकक्षणेन ।।९७।।
अप्पा झायहि णिम्मलउ आत्मानं ध्यायस्व कथंभूतं निर्मलम् किं बहुएं अण्णेण
किं बहुनान्येन शुद्धात्मबहिर्भूतेन रागादिविकल्पजालमालाप्रपञ्चेन जो झायंतहं परमपउ
आत्मामें निश्चल होना वह सम्यक्चारित्र है, यह निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मोक्षका कारण है, इनसे
बंध कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता
।।९६।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि निर्मल आत्माको ही ध्यावो, जिसके ध्यान करनेसे अंतर्मुहूर्तमें
(तात्काल) मोक्षपदकी प्राप्ति हो
गाथा९७
अन्वयार्थ :हे योगी तू [निर्मलं आत्मानं ] निर्मल आत्माका ही [ध्यायस्व ] ध्यान
कर, [अन्येन बहुना किं ] और बहुत पदार्थोंसे क्या देश काल पदार्थ आत्मासे भिन्न हैं, उनसे
कुछ प्रयोजन नहीं है, रागादि-विकल्पजालके समूहोंके प्रपंचसे क्या फायदा, एक निज
स्वरूपको ध्यावो, [यं ] जिस परमात्माके [ध्यायमानानां ] ध्यान करनेवालोंको [एकक्षणेन ]
क्षणमात्रमें [परमपदं ] मोक्षपद [लभ्यते ] मिलता है
भावार्थ :सब शुभाशुभ संकल्प-विकल्प रहित निजशुद्ध आत्मस्वरूपके ध्यान
करनेसे शीघ्र ही मोक्ष मिलता है, इसलिये वही हमेशा ध्यान करने योग्य है ऐसा ही
थवुं ते सम्यग्चारित्र छे. ज्यारे आ त्रणेय गुण आत्मस्वरूप छे तो एनाथी कर्मोनो बंध केवी
रीते थई शके? (अर्थात् थई शकतो नथी, ते निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मोक्षनुं कारण छे.) ९६.
हवे, कहे छे के तुं निर्मळ आत्मानुं ध्यान कर के जेनुं ध्यान करवाथी तुं अंतर्मुहूर्तमां
ज मोक्षपद पामीशः
भावार्थसमस्त शुभाशुभ संकल्पविकल्परहित स्वशुद्धात्मतत्त्वना ध्यानथी

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अधिकार-१ः दोहा-९७ ]परमात्मप्रकाशः [ १६१
लब्भइ यं परमात्मानं ध्यायमानानां परमपदं लभ्यते केन कारणभूतेन एक्कखणेण
एकक्षणेनान्तर्मुहूर्तेनापि तथाहि समस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्परहितेन स्वशुद्धात्म-
तत्त्वध्यानेनान्तर्मुहूर्तेन मोक्षो लभ्यते तेन कारणेन तदेव निरन्तरं ध्यातव्यमिति तथा चोक्तं
बृहदाराधनाशास्त्रे षोडशतीर्थंकराणां एकक्षणे तीर्थकरोत्पत्तिवासरे प्रथमे श्रामण्यबोधसिद्धिः
अन्तर्मुहूर्तेन निर्वृत्ता अत्राह शिष्यः यद्यन्तर्मुहूर्तपरमात्मध्यानेन मोक्षो भवति तर्हि
इदानीमस्माकं तद्धयानं कुर्वाणानां किं न भवति परिहारमाह याद्रशं तेषां
प्रथमसंहननसहितानां शुक्लध्यानं भवति ताद्रशमिदानीं नास्तीति तथा चोक्त म्‘‘अत्रेदानीं
निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां प्राग्विवर्तिनम् ।।’’ अत्र
बृहदाराधना-शास्त्रमें कहा है सोलह तीर्थंकरोंके एक ही समय तीर्थंकरोंके उत्पत्तिके दिन
पहले चारित्र ज्ञानकी सिद्धि हुई, फि र अंतर्मुहूर्तमें मोक्ष हो गया यहाँ पर शिष्य प्रश्न करता
है कि यदि परमात्माके ध्यानसे अंतर्मुहूर्तमें मोक्ष होता है, तो इस समय ध्यान करनेवाले हम
लोगोंको क्यों नहीं होता ? उसका समाधान इस तरह है
कि जैसा निर्विकल्प शुक्लध्यान
वज्रवृषभनाराचसंहननवालोंको चौथे कालमें होता है, वैसा अब नहीं हो सकता ऐसा ही दूसरे
ग्रंथोंमें कहा है‘‘अत्रेत्यादि’’ इसका अर्थ यह है, कि श्रीसर्वज्ञवीतरागदेव इस भरतक्षेत्रमें
इस पंचमकालमें शुक्लध्यानका निषेध करते हैं, इस समय धर्मध्यान हो सकता है, शुक्लध्यान
नहीं हो सकता
उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों ही इस समय नहीं हैं, सातवाँ गुणस्थान
अन्तर्मुहूर्तमां मोक्ष मळे छे तेथी ते ज निरंतर ध्याववा योग्य छे. बृहदाराधना शास्त्रमां पण
कह्युं छे केः‘‘षोडशतीर्थंकराणां एकक्षणे तीर्थकरोत्पत्तिवासरे प्रथमे श्रामण्यबोधसिद्धिः अन्तर्मुहूर्तेन
निवृता (अर्थ :ॠषभनाथथी मांडीने शांतिनाथ तीर्थंकर सुधी सोळ तीर्थंकरोने जे दिवसे
दिव्यध्वनिनी उत्पत्ति थई हती ते प्रथम दिवसे बहु मुनिओने श्रामण्यबोधसिद्धि (चारित्र अने
केवळज्ञाननी सिद्धि) एक क्षणे-अन्तर्मुहूर्तमां-थई).
अहीं, शिष्य प्रश्न करे छे केजो परमात्माना ध्यानथी अन्तर्मुहूर्तमां मोक्ष थाय छे तो
अत्यारे तेनुं ध्यान करनारा अमने केम मोक्ष थतो नथी?
तेनुं समाधानःप्रथम संहननवाळाने (वज्रवृषभनाराचसंहननवाळा जीवोने) जेवुं
शुक्लध्यान थाय छे तेवुं शुक्लध्यान अत्यारे थतुं नथी, (श्री रामसेनकृत तत्त्वानुशासन गाथा
८३मां) कह्युं पण छे के
‘‘अत्रेदानीं निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां
प्राग्विवर्तिनाम् ।।’’ अर्थसर्वज्ञवीतरागजिनवरदेवे आ भरतक्षेत्रमां अत्यारे (आ पंचमकाळमां)
१. पाठान्तरःकारणभूतेन=करणभूतेन
२. आ गाथा संस्कृत टीकावाळी भगवती आराधनामां पान १७७१, गाथा २२२८मां छे.

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१६२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-९८
येन कारणेन परमात्मध्यानेनान्तर्मुहूर्तेन मोक्षो लभ्यते तेन कारणेन संसारस्थिति-
च्छेदनार्थमिदानीमपि तदेव ध्यातव्यमिति भावार्थः
।।९७।।
अथ अस्य वीतरागमनसि शुद्धात्मभावना नास्ति तस्य शास्त्रपुराणतपश्चरणानि किं
कुर्वन्तीति कथयति
९८) अप्पा णियमणि णिम्मलउ णियमेँ वसइ ण जासु
सत्थपुराणइँ तवचरणु मुक्खु वि करहिँ कि तासु ।।९८।।
आत्मा निजमनसि निर्मलः नियमेन वसति न यस्य
शास्त्रपुराणानि तपश्चरणं मोक्षं अपि कुर्वन्ति किं तस्य ।।९८।।
तक गुणस्थान है, ऊ परके गुणस्थान नहीं हैं इस जगह तात्पर्य यह हैं कि जिस कारण
परमात्माके ध्यानसे अंतर्मुहूर्तमें मोक्ष होता है, इसलिये संसारकी स्थिति घटानेके वास्ते अब
भी धर्मध्यानका आराधन करना चाहिये, जिससे परम्परया मोक्ष भी मिल सकता है
।।९७।।
आगे ऐसा कहते हैं कि, जिसके राग रहित मनमें शुद्धात्माकी भावना नहीं है, उनके
शास्त्र, पुराण, तपश्चरण क्या कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकते
गाथा९८
अन्वयार्थ :[यस्य ] जिसके [निजमनसि ] निज मनमें [निर्मलः आत्मा ] निर्मल
आत्मा [नियमेन ] निश्चयसे [न वसति ] नहीं रहता, [तस्य ] उस जीवके [शास्त्रपुराणानि ]
शुक्लध्याननो निषेध कर्यो छे पण तेमणे आ काळमां धर्मध्यान कह्युं छे, (धर्मध्यान होय एम
कह्युं छे.) उपशम अने क्षपकश्रेणीथी नीचेना गुणस्थानमां वर्तता जीवोने धर्मध्यान होई शके
छे तेवी भगवाननी आज्ञा छे.
अहीं, जे कारणे परमात्माना ध्यानथी अन्तर्मुहूर्तमां मोक्ष मळे छे ते कारणे संसारनी
स्थिति छेदवा माटे अत्यारे पण (आ पंचमकाळमां पण) ते ज परमात्मानुं ध्यान करवा योग्य
छे, एवो भावार्थ छे. ९७
.
हवे, कहे छे के जेना रागरहित मनमां शुद्धात्मभावना नथी तेने शास्त्र, पुराण,
तपश्चरणादि शुं करे? ते कहे छे.
आ गाथा संस्कृत टीकावाळी भगवती आराधना आश्वास ७, गाथा २०२८ पाना
१७७२नी संस्कृत टीकामां आधाररूपे आपेल छे.

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अधिकार-१ः दोहा-९८ ]परमात्मप्रकाशः [ १६३
अप्पा णियमणि णिम्मलउ णियमें वसइ ण जासु आत्मा निजमनसि निर्मलो नियमेन
वसति तिष्ठति न यस्य सत्थपुराणइं तवचरणु मुक्खु वि करहिं किं तासु शास्त्रपुराणानि
तपश्चरणं च मोक्षमपि किं कुर्वन्ति तस्येति
तद्यथा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपा यस्य
शुद्धात्मभावना नास्ति तस्य शास्त्रपुराणतपश्चरणानि निरर्थकानि भवन्ति तर्हि किं सर्वथा
निष्फलानि नैवम् यदि वीतरागसम्यक्त्वरूपस्वशुद्धात्मोपादेयभावनासहितानि भवन्ति तदा
मोक्षस्यैव बहिरङ्गसहकारिकारणानि भवन्ति तदभावे पुण्यबन्धकारणानि भवन्ति
मिथ्यात्वरागादिसहितानि पापबन्धकारणानि च विद्यानुवादसंज्ञितदशमपूर्वश्रुतं पठित्वा
भर्गपुरुषादिवदिति भावार्थः
।।९८।।
अथात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवतीति दर्शयति
शास्त्रके पुराण [तपश्चरणमपि ] तपस्या भी [किं ] क्या [मोक्षं ] मोक्षको [कुर्वंति ] कर सकते
हैं ? कभी नहीं कर सकते
भावार्थ :वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप शुद्धभावना जिसके नहीं है, उसके शास्त्र,
पुराण, तपश्चरणादि सब व्यर्थ हैं यहाँ शिष्य प्रश्न करता है, कि क्या बिलकुल ही निरर्थक
हैं उसका समाधान ऐसा है, कि बिलकुल तो नहीं है, लेकिन वीतराग सम्यक्त्वरूप निज
शुद्धात्माकी भावना सहित हो, तब तो मोक्षके ही बाह्य सहकारीकारण है, यदि वे
वीतरागसम्यक्त्वके अभावरूप हों, तो पुण्यबंधके कारण हैं, और जो मिथ्यात्वरागादि सहित हों,
तो पापबंधके कारण है, जैसे कि रुद्र वगैरह विद्यानुवादनामा दशवें पूर्व तक शास्त्र पढ़कर भ्रष्ट
हो जाते हैं
।।९८।।
आगे जिन भव्यजीवोंने आत्माको जान लिया, उन्होंने सब जाना ऐसा दिखलाते हैं
भावार्थवीतराग निर्विकल्प समाधिरूप शुद्धात्मभावना जेने नथी तेने शास्त्र, पुराण
अने तपश्चरण निरर्थक छे.
प्रश्न :तो शुं तेओ सर्वथा (तद्दन) निष्फळ छे?
तेनुं समाधाान :सर्वथा नहि (तेओ सर्वथा निष्फळ नथी.) जो ‘वीतराग-सम्यक्त्वरूप
शुद्धात्मा ज उपादेय छे, एवी भावना सहित होय तो तेओ मोक्षनां बहिरंग सहकारी कारण
छे, तेना अभावमां तेओ पुण्यबंधनां कारण छे. मिथ्यात्व, रागादि सहित होय तो, तेओ
पापबंधनां कारण छे, जेम रुद्रपुरुषने विद्यानुवाद नामना दशमा पूर्व सुधी शास्त्र भणवा छतां
पापबंधनां कारण थयां हतां. ए भावार्थ छे. ९८.
हवे, आत्माने जाणतां सर्व जणायुं एम दर्शावे छेः

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१६४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-९९
९९) जोइय अप्पेँ जाणिएण जगु जाणियउ हवेइ
अप्पहँ केरइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ ।।९९।।
योगिन् आत्मना ज्ञातेन जगत् ज्ञातं भवति
आत्मनः संबन्धिनिर्भावे बिम्बितं येन वसति ।।९९।।
जोइय अप्पे जाणिएण हे योगिन् आत्मना ज्ञातेन किं भवति जगु जाणियउ हवेइ
जगत्त्रिभुवनं ज्ञातं भवति कस्मात् अप्पहं केरइ भावडइ बिंबिउ जेण बसेइ आत्मनः
संबन्धिनि भावे केवलज्ञानपर्याये बिम्बितं प्रतिबिम्बितं येन कारणेन वसति तिष्ठतीति
अयमर्थः वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मतत्त्वे ज्ञाते सति समस्तद्वादशाङ्गागमस्वरूपं
ज्ञातं भवति कस्मात् यस्माद्राघवपाण्डवादयो महापुरुषा जिनदीक्षां गृहीत्वा द्वादशाङ्गं पठित्वा
गाथा९९
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी [आत्मना ज्ञातेन ] एक अपने आत्माके जाननेसे
[जगत् ज्ञातं भवति ] यह तीन लोक जाना जाता है, [येन ] क्योंकि [आत्मनः संबन्धिनि भावे ]
आत्माके भावरूप केवलज्ञानमें [बिम्बितं ] यह लोक प्रतिबिम्बित हुआ [वसति ] बस रहा हैं
भावार्थ :वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानसे शुद्धात्मतत्त्वके जानने पर समस्त
द्वादशांग शास्त्र जाना जाता है क्योंकि जैसे रामचन्द्र, पांडव, भरत, सगर आदि महान् पुरुष
भी जिनराजकी दीक्षा लेकर फि र द्वादशांगको पढ़कर द्वादशांग पढ़नेका फल निश्चयरत्नत्रय-
स्वरूप जो शुद्धपरमात्मा उसके ध्यानमें लीन हुए तिष्ठे थे
इसलिये वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकर
अपने आत्माका जानना ही सार है, आत्माके जाननेसे सबका जानपना सफल होता है, इस
कारण जिन्होंने अपनी आत्मा जानी उन्होंने सबको जाना
अथवा निर्विकल्पसमाधिसे उत्पन्न
भावार्थवीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनरूप ज्ञान वडे परमात्मतत्त्व जाणतां, समस्त
बार अंगनुं स्वरूप जणायुं, कारण के (१) जेथी राम, पांडव आदि महापुरुषो जिनदीक्षा लईने
बार अंग भणीने बार अंगना अध्ययनना फळरूप, निश्चयरत्नत्रयात्मक परमात्मध्यानमां लीन
रहे छे तेथी वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञान वडे निज आत्माने जाणतां सर्व जणायुं छे. (२) अथवा
निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न परमानंदरूप सुखरसनो आस्वाद उत्पन्न थतां ज, पुरुष एम जाणे
के ‘‘मारुं स्वरूप अन्य छे, देह-रागादि पर छे’’ तेथी आत्माने जाणतां, सर्व जणायुं. (३) अथवा
कर्तारूप आत्मा करणभूत श्रुतज्ञानरूप व्याप्तिज्ञानथी सर्व लोकालोकने जाणे छे तेथी आत्माने
जाणतां सर्व जणायुं. (४) अथवा केवळज्ञाननी उत्पत्तिना बीजरूप वीतराग, निर्विकल्प

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अधिकार-१ः दोहा-९९ ]परमात्मप्रकाशः [ १६५
द्वादशाङ्गाध्ययनफलभूते निश्चयरत्नत्रयात्मके परमात्मध्याने तिष्ठन्ति तेन कारणेन
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन निजात्मनि ज्ञाते सति सर्वं ज्ञातं भवतीति
अथवा
निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नपरमानन्दसुखरसास्वादे जाते सति पुरुषो जानाति किं जानाति वेत्ति
मम स्वरूपमन्यद्देहरागादिकं परमिति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवति अथवा आत्मा
कर्ता श्रुतज्ञानरूपेण व्याप्तिज्ञानेन करणभूतेन सर्वं लोकालोकं जानाति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते
सर्वं ज्ञातं भवतीति
अथवा वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिबलेन केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतेन
केवलज्ञाने जाते सति दर्पणे बिम्बवत् सर्वं लोकालोकस्वरूपं विज्ञायत इति हेतोरात्मनि ज्ञाते
सर्वं ज्ञातं भवतीति अत्रेदं व्याख्यानचतुष्टयं ज्ञात्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहत्यागं कृत्वा सर्वतात्पर्येण
निजशुद्धात्मभावना कर्तव्येति तात्पर्यम्
तथा चोक्तं समयसारे‘‘जो पस्सइ अप्पाणं
अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं अपदेससुत्तमज्झं पस्सइ जिणसासणं सव्वं ।।’’ ।।९९।।
हुआ जो परमानंद सुखरस उसके आस्वाद होने पर ज्ञानी पुरुष ऐसा जानता है, कि मेरा स्वरूप
जुदा है, और देह रागादिक मेरेसे दूसरे हैं, मेरे नहीं हैं, इसलिये आत्माके (अपने) जाननेसे
सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपनेको जान लिया, उसने अपनेसे भिन्न सब पदार्थ जाने
अथवा
आत्मा श्रुतज्ञानरूप व्याप्तिज्ञानसे सब लोकालोकको जानता है, इसलिये आत्माके जाननेसे सब
जाना गया
अथवा वीतरागनिर्विकल्प परमसमाधिके बलसे केवलज्ञानको उत्पन्न (प्रगट) करके
जैसे दर्पणमें घट पटादि पदार्थ झलकते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी दर्पणमें सब लोक-अलोक
भासते हैं
इससे यह बात निश्चय हुई, कि आत्माके जाननेसे सब जाना जाता है यहाँ पर सारांश
यह हुआ, कि इन चारों व्याख्यानोंका रहस्य जानकर बाह्य अभ्यंतर सब परिग्रह छोड़कर सब
तरहसे अपने शुद्धात्माकी भावना करनी चाहिये
ऐसा ही कथन समयसारमें श्रीकुंदकुंदाचार्यने
किया है ‘‘जो पस्सइ’’ इत्यादिइसका अर्थ यह है, कि जो निकट-संसारी जीव स्वसंवेदन-
ज्ञानकर अपने आत्माको अनुभवता, सम्यग्दृष्टिपनेसे अपनेको देखता है, वह सब जैनशासनको
देखता है, ऐसा जिनसूत्रमें कहा है
कैसा वह आत्मा है ? रागादिक ज्ञानावरणादिकसे रहित है,
त्रणगुप्तियुक्त समाधिना बळथी केवळज्ञान उत्पन्न थतां, जेवी रीते दर्पणमां पदार्थो प्रतिबिंबित
थाय छे तेवी रीते सर्वलोकनुं स्वरूप जणाय छे. ए कारणे आत्माने जाणतां, सर्व जणायुं.
अहीं, आ चार प्रकारनुं व्याख्यान जाणीने, बाह्य अभ्यंतर परिग्रहनो त्याग करीने, सर्व
तात्पर्यथी निज शुद्धात्मानी भावना कर्तव्य छे, एवो भावार्थ छे. श्री समयसार (गाथा १५)मां
पण कह्युं छे के
‘‘जो पस्सइ अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं अपदेससुत्तमज्झं पस्सइ जिणसासणं
सव्वं ।। अर्थजे पुरुष आत्माने अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष (तथा उपलक्षणथी नियत
अने असंयुक्त) देखे छे ते सर्व जिनशासनने देखे छे-के जे जिनशासन बाह्य द्रव्यश्रुत तेम ज

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१६६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-१००
अथैतदेव समर्थयति
१००) अप्पसहावि परिट्ठियह एहउ होइ विसेसु
दीसइ अप्पसहावि लहु लोयालोउ असेसु ।।१००।।
आत्मस्वभावे प्रतिष्ठितानां एष भवति विशेषः
द्रश्यते आत्मस्वभावे लघु लोकालोकः अशेषः ।।१००।।
अप्पसहावि परिट्ठियहं आत्मस्वभावे प्रतिष्ठितानां पुरुषाणां, एहउ होइ विसेसु एष
प्रत्यक्षीभूतो विशेषो भवति एष कः दीसइ अप्पसहावि लहु द्रश्यते परमात्मस्वभावे
स्थितानां लघु शीघ्रम् अथवा पाठान्तरं ‘दीसइ अप्पसहाउ लहु’ द्रश्यते, स कः,
अन्यभाव जो नर नारकादि पर्याय उनसे रहित है, विशेष अर्थात् गुणस्थान मार्गणा जीवसमास
इत्यादि सब भेदोंसे रहित है
ऐसे आत्माके स्वरूपको जो देखता है, जानता है, अनुभवता
है, वह सब जिनशासनका मर्म जाननेवाला है ।।९९।।
अब इसी बातका समर्थन (दृढ़) करते हैं
गाथा१००
अन्वयार्थ :[आत्मस्वभावे ] आत्माके स्वभावमें [प्रतिष्ठितानां ] लीन हुए
पुरुषोंके [एष विशेषः भवति ] प्रत्यक्षमें जो यह विशेषता होती है, कि [आत्मस्वभावे ]
आत्मस्वभावमें उनको [अशेषः लोकालोकः ] समस्त लोकालोक [लघु ] शीघ्र ही
[दृश्यते ] दिख जाता है
भावार्थ :अथवा इस जगह ऐसा भी पाठांतर है, ‘‘अप्पसहाव लहु’’ इसका अर्थ
अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाळुं छे. ९९.
हवे, आ वातनुं ज समर्थन करे छेः
भावार्थअहीं विशेषपणे पूर्व सूत्रमां कहेलां चारेय व्याख्यान जाणवा, कारण के ते
व्याख्यान प्रमाणे वृद्ध आचार्योनी साक्षी पण मळी आवे छे.
(कारण के ते व्याख्याननो, वृद्ध आचार्योना मतनी साथे पण मेळ खाय छे.) १००.
हवे, आ ज अर्थने द्रष्टांत द्रार्ष्टांतथी द्रढ करे छेः