Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 73-75 (Adhikar 1),76 (Adhikar 1) Nishchay Samyakdrashtinu Swaroop,77 (Adhikar 1) Mithyadrashtinu Lakshan,78 (Adhikar 1),79 (Adhikar 1),80 (Adhikar 1),81 (Adhikar 1),82 (Adhikar 1),83 (Adhikar 1),84 (Adhikar 1),85 (Adhikar 1) Samyakdrashtini Bhavana,86 (Adhikar 1),87 (Adhikar 1),88 (Adhikar 1).

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अधिकार-१ः दोहा-७३ ]परमात्मप्रकाशः [ १२७
द्रव्यकर्म, नोकर्म रहित अपने आत्माका चिंतवन कर, [येन ] जिस परमात्माके ध्यानसे तू
[भवतीरम् ] भवसागरका पार [प्राप्नोषि ] पायेगा
।। जो देहके छेदनादि कार्य होते भी राग-
द्वेषादि विकल्प नहीं करता, निर्विकल्पभावको प्राप्त हुआ शुद्ध आत्माको ध्याता है, वह थोड़े
ही समयमें मोक्षको पाता है
।।७२।।
आगे ऐसा कहते हैं, जो कर्मजनित रागादिभाव और शरीरादि परवस्तु हैं, वे चेतन द्रव्य
न होनेसे निश्चयनयकर जीवसे भिन्न हैं, ऐसा जानो
गाथा७३
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [कर्मणः संबन्धिनः भावाः ] कर्मोंकर जन्य
रागादिक भाव और [अन्यत् ] दूसरा [अचेतनं द्रव्यम् ] शरीरादिक अचेतन पदार्थ [सर्वम् ]
जे शुद्ध आत्माने भावे छे ते जीव शीघ्र मोक्षने पामे छे. ७२.
हवे, तुं कर्मकृत (रागादि) भावोने अने अचेतन द्रव्यने निश्चयनयथी जीवथी जुदा जाण,
एम कहे छेः
भावार्थःअहीं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योगनी निवृत्तिना परिणाम
रहितम् येन किं भवति जिं पावहि भवतीरु येन परमात्मध्यानेन प्राप्नोषि लभसे त्वं हे जीव
किम् भवतीरं संसारसागरावसानमिति अत्र योऽसौ देहस्य छेदनादिव्यापारेऽपि
रागद्वेषादिक्षोभमकुर्वन् सन् शुद्धात्मानं भावयतीति संपादनादर्वाङ्मोक्षं स गच्छतीति
भावार्थः
।।७२।।
अथ कर्मकृतभावानचेतनं द्रव्यं च निश्चयनयेन जीवाद्भिन्नं जानीहीति कथयति
७३) कम्महँ केरा भावडा अण्णु अचेयणु दव्वु
जीव - सहावहँ भिण्णु जिय णियमिं बुज्झहि सव्वु ।।७३।।
कर्मणः संबन्धिनः भावा अन्यत् अचेतनं द्रव्यम्
जीवस्वभावात् भिन्नं जीव नियमेन बुध्यस्व सर्वम् ।।७३।।
कम्महं केरा भावडा अण्णु अचेयणु दव्वु कर्मसम्बन्धिनो रागादिभावा अन्यत् अचेतनं
देहादिद्रव्यं एतत्पूर्वोक्तं अप्पसहावहं भिण्णु जिय विशुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपादात्म-
स्वभावान्निश्चयेन भिन्नं पृथग्भूतं हे जीव
णियमिं बुज्झहि सव्वु नियमेन निश्चयेन बुध्यस्व जानीहि

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१२८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-७४
इन सबको [नियमेन ] निश्चयसे [जीवस्वभावात् ] जीवके स्वभावसे [भिन्नं ] जुदे [बुध्यस्व ]
जानो, अर्थात् ये सब कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए हैं, आत्माका स्वभाव निर्मल ज्ञान दर्शनमयी
है
जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योगोंकी निवृत्तिरूप परिणाम हैं, उस समय शुद्ध
आत्मा ही उपादेय है ।।७३।।
आगे ज्ञानमयी परमात्मासे भिन्न परद्रव्यको छोड़कर तू शुद्धात्माका ध्यान कर, ऐसा
कहते हैं
गाथा७४
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव [त्वं ] तू [ज्ञानमयं ] ज्ञानमयी [आत्मानं ] आत्माको
[मुक्तवा ] छोड़कर [अन्यः परः भावः ] अन्य जो दूसरे भाव हैं, [तं ] उनको [छंडयित्वा ]
छोड़कर [आत्मस्वभावम् ] अपने शुद्धात्म स्वभावको [भावय ] चितंवन कर
भावार्थ :केवलज्ञानादि अनंतगुणोंकी राशि आत्मासे जुदे जो मिथ्यात्व रागादि
वखते शुद्ध आत्मा उपादेय छे. एवो तात्पर्यार्थ छे. ७३.
हवे, ज्ञानमय परमात्माथी भिन्न एवा परद्रव्यने छोडीने तुं शुद्ध आत्माने भाव, एम
कहे छेः
भावार्थःजेमां अनंत गुणोनी राशि अन्तर्भूत छे एवा केवळज्ञानमय आत्माने
छोडीने आत्माथी जुदा अभ्यंतरमां जे मिथ्यात्वरागादि अने बाह्यमां देहादिपरभावो छे एवा
सर्वं समस्तमिति अत्र मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगनिवृत्तिपरिणामकाले शुद्धात्मोपादेय इति
तात्पर्यार्थः ।।७३।।
अथ ज्ञानमयपरमात्मनः सकाशादन्यत्परद्रव्यं मुक्त्वा शुद्धात्मानं भावयेति निरूपयति
७४) अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ
सो छंडेविणु जीव तुहुँ भावहि अप्प-सहाउ ।।७४।।
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं अन्यः परः भावः
तं त्यक्त्वा जीव त्वं भावय आत्मस्वभावम् ।।७४।।
अप्पा मिल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ आत्मानं मुक्त्वा किंविशिष्टम् ज्ञानमयं
केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणराशिं निश्चयात् अन्यो भिन्नोऽभ्यन्तरे मिथ्यात्वरागादिबहिर्विषये
देहादिपरभावः
सो छंडेविणु जीव तुहुं भावहि अप्पसहाउ तं पूर्वोक्तं शुद्धात्मनो विलक्षणं परभावं

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अधिकार-१ः दोहा-७५ ]परमात्मप्रकाशः [ १२९
अंदरके भाव तथा देहादि बाहिरके परभाव ऐसे जो शुद्धात्मासे विलक्षण परभाव हैं, उनको
छोड़कर केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयरूप कार्यसमयसारका साधक जो अभेदरत्नत्रयरूप
कारणसमयसार है, उस रूप परिणत हुए अपने शुद्धात्म स्वभावको चिंतवन कर और उसीको
उपादेय समझ
।।७४।।
आगे निश्चयनयकर आठ कर्म और सब दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी
आत्माको तू जान, ऐसा कहते हैं
गाथा७५
अन्वयार्थ :[अष्टभ्यः कर्मभ्यः ] शुद्धनिश्चयनयकर ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंसे
[बाह्यं ] रहित [सकलैः दोषैः ] मिथ्यात्व रागादि सब विकारोंसे [त्यक्त म् ] रहित
[दर्शनज्ञानचारित्रमयं ] शुद्धोपयोगके साथ रहनेवाले अपने सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप
[आत्मानं ] आत्माको [निश्चितम् ] निश्चयकर [भावय ] चिंतवन कर
पूर्वोक्त शुद्ध आत्माथी विलक्षण परभावने छोडीने हे जीव! तुं केवळज्ञानादि अनंतचतुष्टयनी
व्यक्तिरूप कार्यसमयसारना साधक अभेदरत्नत्रयात्मक कारणसमयसाररूपे परिणत
शुद्धात्मस्वभावने भाव.
अहीं, ते शुद्धात्मस्वभावने उपादेय जाणो एवो अभिप्राय छे. ७४.
हवे, निश्चयनयथी आठ कर्म अने सर्व दोषोथी रहित, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने
सम्यक्चारित्र सहित आत्माने जाण, एम कहे छेः
छंडयित्वा त्यक्त्वा हे जीव त्वं भावय कम् स्वशुद्धात्मस्वभावम् किंविशिष्टम्
केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्ति रूपकार्यसमयसारसाधक मभेदरत्नत्रयात्मककारणसमयसारपरिणतमिति
अत्र तमेवोपादेयं जानीहीत्यभिप्रायः ।।७४।।
अथ निश्चयेनाष्टकर्मसर्वदोषरहितं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसहितमात्मानं जानीहीति
कथयति
७५) अट्ठहँ कम्महँ बाहिरउ सयलहँ दोसहँ चत्तु
दंसण - णाण - चरित्तमउ अप्पा भावि णिरुत्तु ।।७५।।
अष्टभ्यः कर्मभ्यः बाह्यं सकलैः दोषैः त्यक्त म्
दर्शनज्ञानचारित्रमयं आत्मानं भावय निश्चितम् ।।७५।।
अट्ठहं कम्महं बाहिरउ सयलहं दोसहं चत्तु अष्टकर्मभ्यो बाह्यं शुद्धनिश्चयेन

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१३० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-७६
भावार्थ :देखे, सुने, अनुभवे भोगोंकी अभिलाषारूप सब विभाव-परिणामोंको
छोड़कर निजस्वरूपका ध्यान कर यहाँ उपादेयरूप अतीन्द्रियसुखसे तन्मयी और सब
भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मसे जुदा जो शुद्धात्मा है, वही अभेद रत्नत्रयको धारण करनेवाले
निकटभव्योंको उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ
।।७५।।
ऐसे तीन प्रकार आत्माके कहनेवाले प्रथम महाधिकारमें जुदे जुदे स्वतंत्र भेद भावनाके
स्थलमें नौ दोहा-सूत्र कहे आगे निश्चयकर सम्यग्दृष्टिकी मुख्यतासे स्वतन्त्र एक दोहासूत्र
कहते हैं
भावार्थःशुद्धनिश्चयनयथी ज्ञानावरणादि आठकर्मोथी बाह्य (भिन्न), मिथ्यात्व,
रागादि भावकर्मरूप सर्व दोषोथी रहित दर्शनज्ञानचारित्रमय शुद्धोपयोगनी साथे अविनाभूत,
स्वशुद्धात्मानां सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रथी रचायेल आत्माने निश्चयथी भाव अर्थात्
देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगाकांक्षारूप निदानबंधादि समस्त विभावपरिणामोने
छोडीने शुद्धात्मने भाव.
अहीं, उपादेयभूत एवा निर्वाणसुखथी अभिन्न अने समस्त भावकर्म तेम ज द्रव्यकर्मथी
भिन्न एवो जे शुद्ध आत्मा छे ते ज अभेदरत्नत्रयरूपे परिणमेला भव्य जीवोने उपादेय छे,
एवो भावार्थ छे. ७५.
ए प्रमाणे त्रण प्रकारना आत्माना प्रतिपादक प्रथम महाधिकारमां पृथक् पृथक् स्वतंत्र
भेदभावनारूपे नवमा स्थळमां नव गाथासूत्रो समाप्त थयां.
त्यार पछी निश्चयसम्यग्द्रष्टिनी मुख्यताथी एक स्वतंत्र दोहासूत्र कहे छेः
ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मभ्यो भिन्नं मिथ्यात्वरागादिभावकर्मरूपसर्वदोषैस्त्यक्त म् पुनश्च किंविशिष्टम्
दंसणणाणचरित्तमउ दर्शनज्ञानचारित्रमयं शुद्धोपयोगाविनाभूतैः स्वशुद्धात्मसम्यग्दर्शन-
ज्ञानचारित्रैर्निर्वृत्तं
अप्पा भावि णिरुत्तु तमित्थंभूतमात्मानं भावय
द्रष्टश्रुतानुभूतभोगा-
कांक्षारूपनिदानबन्धादिसमस्तविभावपरिणामान् त्यक्त्वा भावयेत्यर्थः णिरुतु निश्चितम् अत्र
निर्वाणसुखादुपादेयभूतादभिन्नः समस्तभावकर्मद्रव्यकर्मभ्यो भिन्नो योऽसौ शुद्धात्मा स
एवाभेदरत्नत्रयपरिणतानां भव्यानामुपादेय इति भावार्थः
।।७५।। एवं त्रिविधात्म-
प्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये पृथक् पृथक् स्वतन्त्रं भेदभावनास्थलसूत्रनवकं गतम्
तदनन्तरं निश्चयसम्यग्द्रष्टिमुख्यत्वेन स्वतन्त्रसूत्रमेकं कथयति
७६) अप्पिं अप्पु मुणंतु जिंउ सम्मादिट्ठि हवेइ
सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु कम्मइँ मुच्चेइ ।।७६।।

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अधिकार-१ः दोहा-७६ ]परमात्मप्रकाशः [ १३१
गाथा७६
अन्वयार्थ :[आत्मानं ] अपनेको [आत्मना ] अपनेसे [जानन् ] जानता हुआ यह
[जीवः ] जीव [सम्यग्दष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [भवति ] होता है, [सम्यग्दृष्टिः जीवः ] और सम्यग्दृष्टि
हुआ संता [लघु ] जल्दी [कर्मणा ] कर्मोंसे [मुच्यते ] छूट जाता है
भावार्थ :यह आत्मा वीतराग स्वसंवेदनज्ञानमें परिणत हुआ अंतरात्मा होकर अपनेको
अनुभवता हुआ वीतराग सम्यग्दृष्टि होता है, तब सम्यग्दृष्टि होनेके कारणसे ज्ञानावरणादि कर्मोंसे
शीघ्र ही छूट जाता है
रहित हो जाता है यहाँ जिस हेतु वीतराग सम्यग्दृष्टि होनेसे यह जीव
कर्मोंसे छूटकर सिद्ध हो जाता है, इसी कारण वीतराग चारित्रके अनुकूल जो शुद्धात्मानुभूतिरूप
वीतराग सम्यक्त्व है, वही ध्यावने योग्य है, ऐसा अभिप्राय हुआ
ऐसा ही कथन श्री
कुंदकुंदाचार्यने मोक्षपाहुड ग्रंथमें निश्चयसम्यक्त्वके लक्षणमें किया है ‘‘सद्दव्वरओ’’ इत्यादि
भावार्थःआत्माथी आत्माने जाणतो जीव-वीतराग स्वसंवेदनज्ञानरूपे परिणमेला
अन्तरात्मा वडे स्वशुद्धात्माने (पोताना शुद्ध स्वरूपने) अनुभवतो जीव वीतरागसम्यग्द्रष्टि होय
छे. निश्चयसम्यक्त्वनी भावनानुं फळ कहेवामां आवे छे. सम्यग्द्रष्टि जीव शीघ्र ज्ञानावरणादि
कर्मथी मुकाय छे.
अहीं, खरेखर जे कारणे वीतरागसम्यग्द्रष्टि कर्मथी शीघ्र छूटे छे ते कारणे ज वीतराग
चारित्रने अनुकूळ शुद्धात्मानी अनुभूति साथे अविनाभूत वीतरागसम्यक्त्व ज भाववा योग्य छे
एवो अभिप्राय छे. श्रीकुंदकुंदाचार्ये मोक्षप्राभृत (गाथा-१४)मां निश्चयसम्यक्त्वनुं लक्षण कह्युं छे
के
‘‘सद्दव्वरओ सवणो सम्मादिट्ठी हवेइ णियमेण सम्मतपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठ कम्माइं ।।’’ [अर्थ
आत्मना आत्मानं जानन् जीवः सम्यग्द्रष्टिः भवति
सम्यग्द्रष्टिः जीवः लघु कर्मणा मुच्यते ।।७६।।
अप्पिं अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिट्ठि हवेइ आत्मनात्मानं जानन् सन् जीवो
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानपरिणतेनान्तरात्मना स्वशुद्धात्मानं जानन्ननुभवन् सन् जीवः कर्ता सम्मदिट्ठि
हवेइ वीतरागसम्यग्
द्रष्टिर्भवति निश्चयसम्यक्त्वभावनायाः फलं कथ्यते सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु
कम्मइं मुच्चेइ सम्यग्द्रष्टिः जीवो लघु शीघ्रं ज्ञानावरणादिकर्मणा मुच्यते इति अत्र येनैव कारणेन
वीतरागसम्यग्द्रष्टिः किल कर्मणा शीघ्रं मुच्यते तेनैव कारणेन वीतरागचारित्रानुकूलं
शुद्धात्मानुभूत्यविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वमेव भावनीयमित्यभिप्रायः तथा चोक्तं
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यैर्मोक्षप्राभृते निश्चयसम्यक्त्वलक्षणम्‘‘सद्दव्वरओ सवणो सम्मादिट्ठी हवेइ
णियमेण सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माइं ।।’’ ।।७६।।

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१३२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-७७
उसका अर्थ यह है कि, आत्मस्वरूपमें मगन हुआ जो यति वह निश्चयकर सम्यग्दृष्टि होता है, फि र
वह सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट आठ कर्मोंको क्षय करता है
।।७६।।
इसके बाद मिथ्यादृष्टिके लक्षणके कथनकी मुख्यतासे आठ दोहा कहते हैं
गाथा७७
अन्वयार्थ :[पर्यायरक्तः जीवः ] शरीर आदि पर्यायमें लीन रहता हुआ जो अज्ञानी
जीव है, वह [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि [भवति ] होता है, और फि र वह [बहुविधकर्माणि ]
अनेक प्रकारके कर्मोंको [बध्नाति ] बाँधता है, [येन ] जिनसे कि [संसारं ] संसारमें [भ्रमति ]
भ्रमण करता है
भावार्थ :परमात्माकी अनुभूतिरूप श्रद्धासे विमुख जो आठ मद, आठ मल, छह
अनायतन, तीन मूढता, इन पच्चीस दोषोंकर सहित अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्व परिणाम जिसके
हैं, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है
वह मिथ्यादृष्टि नर नारकादि विभाव-पर्यायोंमें लीन रहता है
अत ऊर्ध्वं मिथ्याद्रष्टिलक्षणकथनमुख्यत्वेन सूत्राष्टकं कथ्यते तद्यथा
७७) पज्जयरत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ
बंधउ बहु - विह-कम्मडा जेँ संसारु भमेइ ।।७७।।
पर्यायरक्तो जीवः मिथ्याद्रष्टिः भवति
बध्नाति बहुविधकर्माणि येन संसारं भ्रमति ।।७७।।
पज्जयरत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ पर्यायरक्तो जीवो मिथ्याद्रष्टिर्भवति
परमात्मानुभूतिरुचिप्रतिपक्षभूताभिनिवेशरूपा व्यावहारिकमूढत्रयादिपञ्चविंशतिमलान्तर्भाविनी
मिथ्या वितथा व्यलीका च सा
द्रष्टिरभिप्रायो रुचिः प्रत्ययः श्रद्धानं यस्य स
भवति मिथ्याद्रष्टिः स च किंविशिष्टः नरनारकादिविभावपर्यायरतः तस्य मिथ्या-
निजद्रव्यमां रत (आत्मस्वरूपमां मग्न) श्रमण नियमथी सम्यग्द्रष्टि होय छे. वळी सम्यक्त्वरूपे
परिणमेलो ते श्रमण दुष्ट आठ कर्मनो क्षय करे छे.] ७६.
त्यार पछी मिथ्याद्रष्टिना लक्षणना कथननी मुख्यताथी आठ दोहासूत्रो कहेवामां आवे छे.
ते आ प्रमाणेः
भावार्थःनरनारकादि विभावपर्यायमां रत थयेलो जीव मिथ्याद्रष्टि होय छे
परमात्मानी अनुभूतिनी रुचिथी प्रतिपक्षभूत, अभिनिवेशरूप एवी, व्यावहारिक त्रण मूढता,

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अधिकार-१ः दोहा-७७ ]परमात्मप्रकाशः [ १३३
उस मिथ्यात्व परिणामसे शुद्धात्माके अनुभवसे पराङ्मुख अनेक तरहके कर्मोंको बाँधता है,
जिनसे कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूपी पाँच प्रकारके संसारमें भटकता है
ऐसा कोई
शरीर नहीं, जो इसने न धारण किया हो, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, कि जहाँ उपजा न हो, और
मरण किया हो, ऐसा कोई काल नहीं है, कि जिसमें इसने जन्म-मरण न किये हों, ऐसा कोई
भव नहीं, जो इसने पाया न हो, और ऐसे अशुद्ध भाव नहीं हैं, जो इसके न हुए हों
इस
तरह अनंत परावर्तन इसने किये हैं ऐसा ही कथन मोक्षपाहुड़में निश्चय मिथ्यादृष्टिके लक्षणमें
श्रीकुंदकुंदाचार्यने कहा है‘‘जो पुण’’ इत्यादि इसका अर्थ यह है कि जो अज्ञानी जीव
द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मरूप परद्रव्यमें लीन हो रहे हैं, वे साधुके व्रत धारण करने पर भी
मिथ्यादृष्टि ही हैं, सम्यग्दृष्टि नहीं और मिथ्यात्वकर परिणमते दुःख देनेवाले आठ कर्मोंको बाँधते
हैं
फि र भी आचार्यने मोक्षपाहुडमें कहा है‘‘जे पज्जयेसु’’ इत्यादि उसका अर्थ यह है,
कि जो नर नारकादि पर्यायोंमें मग्न हो रहे हैं, वे जीव परपर्यायमें रत मिथ्यादृष्टि हैं, ऐसा
परिणामस्य फलं कथ्यते बंधइ बहुविहकम्मडा जें संसारु भमेइ बध्नाति
बहुविधकर्माणि यैः संसारं भ्रमति, येन मिथ्यात्वपरिणामेन शुद्धात्मोपलब्धेः
प्रतिपक्षभूतानि बहुविधकर्माणि बध्नाति तैश्च कर्मभिर्द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं
संसारं परिभ्रमतीति
तथा चोक्तं मोक्षप्राभृते निश्चयमिथ्याद्रष्टिलक्षणम्‘‘जो पुणु
परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं ।।’’
पुनश्चोक्तं तैरेव‘‘जे पज्जएसु णिरदा जीवा परसमइग त्ति णिद्दिट्ठा आदसहावम्मि
ठिदा ते सगसमया मुणेयव्वा ।।’’ अत्र स्वसंवित्तिरूपाद्वीतरागसम्यक्त्वात् प्रतिपक्षभूतं
आठ मद, आठ मल, छ अनायतन ए पच्चीस दोषो जेमां समाय छे एवी मिथ्या वितथ
(खोटी) व्यलीक (बनावटी) द्रष्टि
अभिप्राय, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धानजेने छे ते मिथ्याद्रष्टि होय
छे.
तेना मिथ्या परिणामनुं फळ कहे छेःते अनेक प्रकारनां कर्मो बांधे छे के जेथी
संसारमां परिभ्रमण करे छेजे मिथ्यात्वपरिणामथी शुद्धात्मोपलब्धिथी प्रतिपक्षभूत बहुविध कर्मो
बांधे छे, ते ज कर्मोथी द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावरूप पांच प्रकारना संसारमां भमे छे. (श्री
कुंदकुंदाचार्यदेवकृत) मोक्षप्राभृत (गाथा १५)मां निश्चयमिथ्याद्रष्टिनुं लक्षण पण कह्युं छे केः
‘‘जो पुणु परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं’’ (अर्थ
वळी जे परद्रव्यमां रत छे ते साधु मिथ्याद्रष्टि होय छे, मिथ्यात्वरूपे परिणमेलो ते दुष्ट आठ
कर्मने बांधे छे. ) वळी तेओए पण कह्युं छे के (प्रवचनसार २--९४)
‘‘जे पज्जयेसु णिरदा जीवा
परसमयिगत्ति णिदिट्ठा आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेयव्वा ।। (अर्थजे जीवो पर्यायोमां

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१३४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-७८
भगवान्ने कहा है, और जो उपयोग लक्षणरूप निजभावमें लिप्त रहे है वे स्वसमयरूप सम्यग्दृष्टि
है, ऐसा जानो
सारांश यह है, कि जो परपर्यायमें रत हैं, वे तो परसमय (मिथ्यादृष्टि) हैं और
जो आत्म-स्वभावमें लगे हुए हैं, वे स्वसमय (सम्यग्दृष्टि) हैं, मिथ्यादृष्टि नहीं है यहाँ पर
आत्मज्ञानरूपी वीतराग सम्यक्त्वसे पराङ्मुख जो मिथ्यात्व है, वह त्यागने योग्य है ।।७७।।
आगे मिथ्यात्वकर अनेक प्रकार उपार्जन किये कर्मोंसे यह जीव संसार-वनमें भ्रमता
है, उस कर्मशक्तिको कहते हैं
गाथा७८
अन्वयार्थ :[तानि कर्माणि ] वे ज्ञानावरणादि कर्म [ज्ञानविचक्षणं ] ज्ञानादि गुणसे
चतुर [जीवं ] इस जीवको [उत्पथे ] खोटे मार्गमें [पातयंति ] पटकते (डालते) हैं कैसे
हैं, वे कर्म [दृढघनचिक्कणानि ] बलवान हैं, बहुत हैं, विनाश करनेको अशक्य हैं, इसलिये
चिकने हैं, [गुरुकाणि ] भारी हैं, [वज्रसमानि ] और वज्रके समान अभेद्य हैं
भावार्थ :यह जीव एक समयमें लोकालोकके प्रकाशनेवाले केवलज्ञान आदिका
मिथ्यात्वं हेयमिति भावार्थः ।।७७।।
अथ मिथ्यात्वोपार्जितकर्मशक्तिं कथयति
७८) कम्मइँ दिढ-घण-चिक्कणइँ गरुवइँ वज्जसमाइँ
णाणवियक्खणु जीवडउ उप्पहि पाडहिँ ताइँ ।।७८।।
कर्माणि द्रढघनचिक्कणानि गुरुकाणि वज्रसमानि
ज्ञानविचक्षणं जीवं उत्पथे पातयन्ति तानि ।।७८।।
कम्मइं दिढघणचिक्कणइं गरुवइं वज्जसमाइं कर्माणि भवन्ति किंविशिष्टानि द्रढानि
बलिष्ठानि घनानि निबिडानि चिक्कणान्यपनेतुमशक्यानि विनाशयितुमशक्यानि गुरुकाणि महान्ति
लीन छे तेमने परसमय कहेवामां आवे छे, जे जीवो आत्मस्वभावमां स्थित छे ते स्वसमय
जाणवा.)
अहीं, स्वसंवित्तिरूप वीतरागसम्यक्त्वथी प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व हेय छे, एवो भावार्थ
छे. ७७.
हवे, मिथ्यात्वथी उपार्जन करवामां आवेलां कर्मनी शक्तिनुं कथन करे छेः

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अधिकार-१ः दोहा-७९ ]परमात्मप्रकाशः [ १३५
अनंत गुणोंसे बुद्धिमान चतुर है, तो भी इस जीवको वे संसारके कारण कर्म ज्ञानादि गुणोंका
आच्छादन करके अभेदरत्नत्रयरूप निश्चयमोक्षमार्गसे विपरीत खोटे मार्गमें डालते हैं, अर्थात्
मोक्ष-मार्गसे भुलाकर भव-वनमें भटकाते हैं
यहाँ यह अभिप्राय है, कि संसारके कारण जो
कर्म और उनके कारण मिथ्यात्व रागादि परिणाम हैं, वे सब हेय हैं, तथा अभेदरत्नत्रयरूप
निश्चयमोक्षमार्ग है, वह उपादेय है
।।७८।।
आगे मिथ्यात्व परिणतिसे यह जीव तत्त्वको यथार्थ नहीं जानता, विपरीत जानता है, ऐसा
कहते हैं
गाथा७९
अन्वयार्थ :[जीवः ] यह जीव [मिथ्यात्वेन परिणतः ] अतत्त्वश्रद्धानरूप परिणत
हुआ, [तत्त्वं ] आत्माको आदि लेकर तत्त्वोंके स्वरूपको [विपरीतं ] अन्यका अन्य [मनुते ]
श्रद्धान करता है, यथार्थ नहीं जानता
वस्तुका स्वरूप तो जैसा है वैसा ही है, तो भी वह
भावार्थअहीं आ अभेदरत्नत्रयरूप निश्चयमोक्षमार्ग ज उपादेय छे, एवो
अभिप्राय छे. ७८.
हवे, मिथ्या परिणतिथी जीव विपरीत तत्त्वने जाणे छे, एम कहे छेः
वज्रसमान्यभेद्यानि च इत्थंभूतानि कर्माणि किं कुर्वन्ति णाणवियक्खणु जिवडउ उप्पहि
पाडहिं ताइं ज्ञानविचक्षणं जीवमुत्पथे पातयन्ति तानि कर्माणि युगपल्लोकालोकप्रकाशककेवल-
ज्ञानाद्यनन्तगुणविचक्षणं दक्षं जीवमभेदरत्नत्रयलक्षणान्निश्चयमोक्षमार्गात्प्रतिपक्षभूत उन्मार्गे
पातयन्तीति
अत्रायमेवाभेदरत्नत्रयरूपो निश्चयमोक्षमार्ग उपादेय इत्यभिप्रायः ।।७८।।
अथ मिथ्यापरिणत्या जीवो विपरीतं तत्त्वं जानातीति निरूपयति
७९) जिउ मिच्छत्तेँ परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेई
कम्म-विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ ।।७९।।
जीवः मिथ्यात्वेन परिणतः विपरीतं तत्त्वं मनुते
कर्मविनिर्मितान् भावान् तान् आत्मानं भणति ।।७९।।
जिउ मिच्छत्तें परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेइ जीवो मिथ्यात्वेन परिणतः सन् विपरीतं
तत्त्वं जानाति, शुद्धात्मानुभूतिरुचिविलक्षणेन मिथ्यात्वेन परिणतः सन् जीवः परमात्मादितत्त्वं
च यथावद् वस्तुस्वरूपमपि विपरीतं मिथ्यात्वरागादिपरिणतं जानाति
ततश्च किं करोति

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१३६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-८०
मिथ्यात्वी जीव वस्तुके स्वरूपको विपरीत जानता है, अपना जो शुद्ध ज्ञानादि सहित स्वरूप
है, उसको मिथ्यात्व रागादिरूप जानता है
उससे क्या करता है ? [कर्मविनिर्मितान् भावान् ]
कर्मोंकर रचे गये शरीरादि परभाव हैं [तान् ] उनको [आत्मानं ] अपने [भणति ] कहता है,
अर्थात् भेदविज्ञानके अभावसे गोरा, श्याम, स्थूल, कृश, इत्यादि कर्मजनित देहके स्वरूपको
अपना जानता है, इसीसे संसारमें भ्रमण करता है
यहाँ पर कर्मोंसे उपार्जन किये भावोंसे भिन्न
जो शुद्ध आत्मा है, उससे जिस समय रागादि दूर होते हैं, उस समय उपादेय है, क्योंकि तभी
शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है
।।७९।।
इसके बाद उन पूर्व कथित कर्मजनित भावोंको जिस मिथ्यात्व परिणामसे
बहिरात्मा अपने मानता है, और वे अपने हैं नहीं, ऐसे परिणामोंको पाँच दोहासूत्रोंमें
कहते हैं
कम्मविणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ कर्मविनिर्मितान् भावान् तानात्मानं भणति,
विशिष्टभेदज्ञानाभावाद्गौरस्थूलकृशादिकर्मजनितदेहधर्मानं जानातीत्यर्थः
अत्र तेभ्यः
कर्मजनितभावेभ्यो भिन्नो रागादिनिवृत्तिकाले स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।७९।।
अथानन्तरं तत्पूर्वोक्त कर्मजनितभावान् येन मिथ्यापरिणामेन कृत्वा बहिरात्मा आत्मनि
योजयति तं परिणामं सूत्रपञ्चकेन विवृणोति
८०) हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्णउ वण्णु
हउँ तणु-अंगउँ थूलु हउँ एहउँ मूढउ मण्णु ।।८०।।
भावार्थजीव मिथ्यात्वरूपे परिणमतो तत्त्वने विपरीत जाणे छे-शुद्धआत्मानी
अनुभूतिनी रुचिथी विलक्षण मिथ्यात्वरूपे परिणमतो थको जीव परमात्मादि तत्त्वने अने यथावत्
वस्तुस्वरूपने पण विपरीत अने रागादिरूपे परिणमेलुं जाणे छे, के जेथी ते कर्मथी बनेला भावोने
पोतारूप कहे छे
विशिष्ट भेदज्ञानना अभावथी गोरो, स्थूळ, कृशादि एवा कर्मजनित देहना
धर्मोने पोतारूप जाणे छे.
अहीं, ते कर्मजनित भावोथी भिन्न रागादिनी निवृत्तिना समये स्वशुद्धात्मा ज उपादेय
छे, एवो तात्पयार्थ छे. ७९.
त्यार पछी ते पूर्वोक्त कर्मजनित भावोने जे मिथ्यात्वना परिणामे करीने बहिरात्मा
पोतामां जोडे छे ते परिणामनुं, पांच गाथासूत्रोथी, कथन करे छेः
१. पाठान्तरःतत् = तान्

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अधिकार-१ः दोहा-८१ ]परमात्मप्रकाशः [ १३७
गाथा८०
अन्वयार्थ :[अहं ] मैं [श्यामः ] काला हूँ, [अहमेव ] मैं ही [विभिन्नः वर्णः ]
अनेक वर्णवाला हूँ, [अहं ] मैं [तन्वंगः ] कृश (पतले) शरीरवाला हूँ, [अहं ] मैं [स्थूलः ]
मोटा हूँ, [एतं ] इसप्रकार मिथ्यात्व परिणामकर परिणत मिथ्यादृष्टि जीवको तू [मूढं ] मूढ
[मन्यस्व ] मान
भावार्थ :निश्चयनयसे आत्मासे भिन्न जो कर्मजनित गौर स्थूलादि भाव हैं, वे सर्वथा
त्याज्य हैं, और सर्वप्रकार आराधने योग्य वीतराग नित्यानंद स्वभाव जो शुद्धजीव है, वह इनसे
भिन्न है, तो भी पुरुष विषय कषायोंके आधीन होकर शरीरके भावोंको अपने जानता है, वह
अपनी स्वात्मानुभूतिसे रहित हुआ मूढात्मा है
।।८०।।
आगे फि र मिथ्यादृष्टिके लक्षण कहते हैं
अहं गौरः अहं श्यामः अहमेव विभिन्नः वर्णः
अहं तन्वङ्गः स्थूलः अहं एतं मूढं मन्यस्व ।।८०।।
अहं गौरो गौरवर्णः, अहं श्यामः श्यामवर्णः, अहमेव भिन्नो नानावर्णः मिश्रवर्णः क्क
वर्णविषये रूपविषये पुनश्च कथंभूतोऽहम् तन्वङ्गः कृशाङ्गः पुनश्च कथंभूतोऽहम् स्थूलः
स्थूलशरीरः इत्थंभूतं मूढात्मानं मन्यस्व एवं पूर्वोक्त मिथ्यापरिणामपरिणतं जीवं मूढात्मानं
जानीहीति अयमत्र भावार्थः निश्चयनयेनात्मनो भिन्नान् कर्मजनितान् गौरस्थूलादिभावान् सर्वथा
हेयभूतानपि सर्वप्रकारोपादेयभूते वीतरागनित्यानन्दैकस्वभावे शुद्धजीवे यो योजयति स
विषयकषायाधीनतया स्वशुद्धात्मानुभूतेश्च्युतः सन् मूढात्मा भवतीति
।।८०।। अथ
८१) हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउँ खत्तिउ हउँ सेसु
पुरिसु णउँसर इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु ।।८१।।
भावार्थनिश्चयनयथी आत्माथी भिन्न, कर्मजनित गौरस्थूळादि भावो सर्वथा हेय
होवा छतां तेमने, सर्वप्रकारे उपादेयभूत वीतराग नित्यानंद जेनो एक स्वभाव छे एवा शुद्ध
जीवमां, जे जोडे छे ते विषयकषायने आधीन थईने स्वशुद्धात्मानी अनुभूतिथी च्युत थयो थको
मूढात्मा छे, एवो अहीं भावार्थ छे. ८०.
वळी, मिथ्याद्रष्टिनुं लक्षण कहे छेः

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१३८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-८१
गाथा८१
अन्वयार्थ :[मूढः ] मिथ्यादृष्टि अपनेको [विशेषम् मनुते ] ऐसा विशेष मानता
है, कि [अहं ] मैं [वरः ब्राह्मणः ] सबमें श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, [अहं ] मैं [वैश्यः ] वणिक् हूँ,
[अहं ] मैं [क्षत्रियः ] क्षत्री हूँ, [अहं ] मैं [शेषः ] इनके सिवाय शूद्र हूँ, [अहं ] मैं [पुरुषः
नपुंसकः स्त्री ] पुरुष हूँ, और स्त्री हूँ
इसप्रकार शरीरके भावोंको मूर्ख अपने मानता है
सो ये सब शरीरके हैं, आत्माके नहीं हैं
भावार्थ :यहाँ पर ऐसा है कि निश्चयनयसे ये ब्राह्मणादि भेद कर्मजनित हैं,
परमात्माके नहीं हैं, इसलिये सब तरह आत्मज्ञानीके त्याज्यरूप हैं तो भी जो निश्चयनयकर
आराधने योग्य वीतराग सदा आनंदस्वभाव निज शुद्धात्मामें इन भेदोंको लगाता हैं, अर्थात्
अपनेको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र मानता है; स्त्री, पुरुष, नपुंसक, मानता है, वह कर्मोंका
बंध करता है, वही अज्ञानसे परिणत हुआ निज शुद्धात्म तत्त्वकी भावनासे रहित हुआ मूढात्मा
हैं, ज्ञानवान् नहीं है
।।८१।।
आगे फि र मूढ़के लक्षण कहते हैं
अहं वरः ब्राह्मणः वैश्यः अहं अहं क्षत्रियः अहं शेषः
पुरुषः नपुंसकः स्त्री अहं मन्यते मूढः विशेषम् ।।८१।।
हउं वरु बंभणु वइसु हउं हउं खत्तिउ हउं सेसु अहं वरो विशिष्टो ब्राह्मणः अहं
वैश्यो वणिग् अहं क्षत्रियोऽहं शेषः शूद्रादि पुनश्च कथंभूतः पुरिसु णउं सउ इत्थि हउं मण्णइ
मूढु विसेसु पुरुषो नपुंसकः स्त्रीलिङ्गोऽहं मन्यते मूढो विशेषं ब्राह्मणादिविशेषमिति इदमत्र
तात्पर्यम् यन्निश्चयनयेन परमात्मनो भिन्नानपि कर्मजनितान् ब्राह्मणादिभेदान् सर्वप्रकारेण
हेयभूतानपि निश्चयनयेनोपादेयभूते वीतरागसदानन्दैकस्वभावे स्वशुद्धात्मनि योजयति संबद्धान्
करोति
कोऽसौ कथंभूतः अज्ञानपरिणतः स्वशुद्धात्मतत्त्वभावनारहितो मूढात्मेति ।।८१।।
अथ
भावार्थअज्ञानरूपे परिणमेलो, स्वशुद्धात्मतत्त्वनी भावनाथी रहित मूढात्मा,
निश्चयनयथी परमात्माथी भिन्न होवा छतां पण, सर्वप्रकारे हेयभूत होवा छतां पण, कर्मजनित
ब्राह्मणादि भेदोने, निश्चयनयथी उपादेयभूत वीतराग सदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा
स्वशुद्धात्मामां जोडे छे
संबंध करे छे, ए तात्पयार्थ छे. ८१.
वळी, (फरी मूढात्मानुं लक्षण कहे छेः )ः

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अधिकार-१ः दोहा-८२ ]परमात्मप्रकाशः [ १३९
८२) तरुणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु
खवणउ वंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सव्वु ।।८२।।
तरुणः वृद्धः रूपवान् शूरः पण्डितः दिव्यः
क्षपणकः वन्दकः श्वेतपटः मूढः मन्यते सर्वम् ।।८२।।
तरुणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु तरुणो यौवनस्थोऽहं वृद्धोऽहं रूपस्व्यहं शूरः
सुभटोऽहं पण्डितोऽहं दिव्योऽहम् पुनश्च किंविशिष्टः खवणउ वंदउ सेवडउ क्षपणको
दिगम्बरोऽहं वन्दको बौद्धोऽहं श्वेतपटादिलिङ्गधारकोऽहमिति मूढात्मा सर्वं मन्यत इति अयमत्र
तात्पर्यार्थः यद्यपि व्यवहारेणाभिन्नान् तथापि निश्चयेन वीतरागसहजानन्दैकस्वभावात्परमात्मनः
भिन्नान् कर्मोदयोत्पन्नान् तरुणवृद्धादिविभावपर्यायान् हेयानपि साक्षादुपादेयभूते स्वशुद्धात्मतत्त्वे
योजयति
कोऽसौ ख्यातिपूजालाभादिविभावपरिणामाधीनतया परमात्मभावनाच्युतः सन्
मूढात्मेति ।।८२।। अथ
भावार्थख्याति, पूजा, लाभादि विभाव परिणामने आधीन थईने,
परमात्मभावनाथी च्युत थतो मूढात्मा जो के जेओ व्यवहारथी अभिन्न छे तोपण निश्चयथी
वीतरागसहजानंद जेनो एक स्वभाव छे एवा परमात्माथी भिन्न छे. कर्मोदयथी उत्पन्न
तरुण, वृद्धादि विभावपर्यायो हेय होवा छतां पण तेमने, साक्षात् उपादेयभूत
निजशुद्धात्मतत्त्वमां योजे छे (
जोडे छे, संबंध करे छे.) अहीं आ तात्पयार्थ छे. ८२.
गाथा८२
अन्वयार्थ :[तरुणः ] मैं जवान हूँ, [वृद्धः ] बुड्ढा हूँ, [रूपस्वी ] रूपवान हूँ,
[शूरः ] शूरवीर हूँ, [पण्डितः ] पंडित हूँ [दिव्यः ] सबमें श्रेष्ठ हूँ [क्षपणकः ] दिगंबर हूँ,
[वन्दकः ] बोद्धमतका आचार्य हूँ [श्वेतपटः ] और मैं श्वेताम्बर हूँ, इत्यादि [सर्वम् ] सब
शरीरके भेदोंको [मूढ़ः ] मूर्ख [मन्यते ] अपना मानता है
ये भेद जीवके नहीं हैं
भावार्थ :यहाँ पर यह है कि, यद्यपि व्यवहारनयकर ये सब तरुण वृद्धादि शरीरके
भेद आत्माके कहे जाते हैं, तो भी निश्चयनयकर वीतराग सहजानंद एक स्वभाव जो परमात्मा
उससे भिन्न हैं
ये तरुणादि विभावपर्याय कर्मके उदयकर उत्पन्न हुए हैं, इसलिये त्यागने योग्य
हैं, तो भी उनको साक्षात् उपादेयरूप निज शुद्धात्म तत्त्वमें जो जो लगाता है, अर्थात् मानता
है, वह अज्ञानी जीव बड़ाई, प्रतिष्ठा, धनका लाभ इत्यादि विभाव परिणामोंके आधीन होकर
परमात्माकी भावनासे रहित हुआ मूढात्मा हैं, वह जीवके ही भाव मानता है
।।८२।।

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१४० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-८३
८३) जणणी जणणु वि कंत घरु पत्तु वि मित्तु वि दव्वु
माया-जालु वि अप्पणउ मूढउ मण्णइ सव्वु ।।८३।।
जननी जननः अपि कान्ता गृहं पुत्रोऽपि मित्रमपि द्रव्यम्
मायाजालमपि आत्मीयं मूढः मन्यते सर्वम् ।।८३।।
जणणी जणणु वि कंत घरु पुत्तु वि मित्तु वि दव्वु जननी माता जननः पितापि
कान्ता भार्या गृहं पुत्रोऽपि मित्रमपि द्रव्यं सुवर्णादि यत्तत्सर्वं मायाजालु वि अप्पणउ मूढउ
मण्णइ सव्वु मायाजालमप्यसत्यमपि कृत्रिममपि आत्मीयं स्वकीयं मन्यते
कोऽसौ मूढो
मूढात्मा कतिसंख्योपेतमपि सर्वमपीति अयमत्र भावार्थः जनन्यादिकं परस्वरूपमपि
शुद्धात्मनो भिन्नमपि हेयस्याशेषनारकादिदुःखस्य कारणत्वाद्धेयमपि साक्षादुपादेयभूताना-
आगे फि र भी कहते हैं
गाथा८३
अन्वयार्थ :[जननी ] माता, [जननः ], पिता [अपि ] और [कान्ता ] स्त्री [गृहं ]
घर [पुत्रः अपि ] और बेटा, बेटी [मित्रमपि ] मित्र वगैरह सब कुटुम्बीजन बहिन, भानजी,
नाना, मामा, भाई, बंधु और [द्रव्यं ] रत्न, माणिक, मोती, सुवर्ण, चांदी, धन, धान्य, द्विपदवांदी
धाय, नौकर, चौपाये-गाय, बैल, घोड़ी, ऊँट, हाथी, रथ, पालकी, बहली, ये [सर्व ] सर्व
[मायाजालमपि ] असत्य हैं, कर्मजनित हैं, तो भी [मूढ़ः ] अज्ञानी जीव [आत्मीयं ] अपने
[मन्यते ] मानता है
भावार्थ :ये माता पिता आदि सब कुटुम्बीजन परस्वरूप भी हैं, सब स्वारथके हैं,
शुद्धात्मासे भिन्न भी हैं शरीर संबंधी हैं, हेयरूप संसारीक नारकादि दुःखोंके कारण होनेसे त्याज्य
भी हैं, उनको जो जीव साक्षात् उपादेयरूप अनाकुलतास्वरूप परमार्थिक सुखसे अभिन्न वीतराग
परमानंदरूप एकस्वभाववाले शुद्धात्मद्रव्यमें लगाता है, अर्थात अपने मानता है, वह मन, वचन
हवे (फरी पण मूढात्मानुं लक्षण कहे छे)ः
भावार्थमन-वचन-कायना व्यापारमां परिणमेलो, स्वशुद्धात्मद्रव्यनी भावनाथी शून्य
एवो मूढात्मा माता आदि परस्वरूप छे, शुद्ध आत्माथी भिन्न छे, हेय एवा समस्त नारकादि
दुःखनां कारण होवाथी हेय छे तोपण, तेमने साक्षात् उपादेयभूत अने अनाकुळता जेनुं लक्षण
छे एवा पारमार्थिक सौख्यथी अभिन्न, वीतरागपरमानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा

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अधिकार-१ः दोहा-८४ ]परमात्मप्रकाशः [ १४१
कुलत्वलक्षण-पारमार्थिकसौख्यादभिन्ने वीतरागपरमानन्दैकस्वभावे शुद्धात्मतत्त्वे योजयति स कः
मनोवचनकायव्यापारपरिणतः स्वशुद्धात्मद्रव्यभावनाशून्यो मूढात्मेति ।।८३।। अथ
८४) दुक्खहँ कारणि जे विसय ते सुह-हेउ रमेइ
मिच्छाइट्ठिउ जीवडउ इत्थु ण काइँ करेइ ।।८४।।
दुःखस्य कारणं ये विषयाः तान् सुखहेतून् रमते
मिथ्याद्रष्टिः जीवः अत्र न किं करोति ।।८४।।
दुक्खहं कारणि जे विषय ते सुहहेउ रमेइ दुःखस्य कारणं ये विषयास्तान् विषयान्
सुखहेतून् मत्वा रमते स कः मिच्छाइट्ठिउ जीवडउ मिथ्याद्रष्टिर्जीवः इत्थु ण काइं करेइ अत्र
जगति योऽसौ दुःखरूपविषयान् निश्चयनयेन सुखरूपान् मन्यते स मिथ्याद्रष्टिः किमकृत्यं पापं न
कायरूप परिणत हुआ शुद्ध अपने आत्मद्रव्यकी भावनासे शून्य (रहित) मूढात्मा है, ऐसा जानो,
अर्थात् अतीन्द्रियसुखरूप आत्मामें परवस्तुका क्या प्रयोजन है
जो परवस्तुको अपना मानता
है, वही मूर्ख हैं ।।८३।।
अब और भी मूढ़का लक्षण कहते हैं
गाथा८४
अन्वयार्थ :[दुःखस्य ] दुःखके [कारणं ] कारण [ये ] जो [विषयाः ] पाँच
इन्द्रियोंके विषय हैं, [तान् ] उनको [सुखहेतुन् ] सुखके कारण जानकर [रमते ] रमण करता
है, वह [मिथ्यादृष्टिः जीवः ] मिथ्यादृष्टि जीव [अत्र ] इस संसारमें [किं न करोति ] क्या
पाप नहीं करता ? सभी पाप करता है, अर्थात् जीवोंकी हिंसा करता है, झूठ बोलता है, दूसरेका
धन हरता है, दूसरेकी स्त्री सेवन करता है, अति तृष्णा करता है, बहुत आरंभ करता है, खेती
करता है, खोटे-खोटे व्यसन करता है, जो न करनेके काम हैं उनको भी करता है
भावार्थ :मिथ्यादृष्टि जीव वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिसे उत्पन्न परमानंद
परमसमरसीभावरूप सुखसे पराङ्मुख हुआ निश्चयकर महा दुःखरूप विषयोंको सुखके कारण
शुद्धात्मतत्त्वमां योजे छे (जोडे छे.) अहीं आ भावार्थ छे. ८३.
हवे (फरी पण मूढात्माओनुं लक्षण कहे छे)ः
भावार्थमिथ्याद्रष्टि जीव वीतराग निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न परमानंदमय

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१४२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-८५
करोति, अपि तु सर्वं करोत्येवेति अत्र तात्पर्यम् मिथ्याद्रष्टिर्जीवो वीतरागनिर्विकल्प-
समाधिसमुत्पन्नपरमानन्दपरमसमरसीभावरूपसुखरसापेक्षया निश्चयेन दुःखरूपानपि विषयान्
सुखहेतून् मत्वा अनुभवतीत्यर्थः
।।८४।। एवं त्रिविधात्मप्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये ‘पज्जय
रत्तउ जीवडउ’ इत्यादिसूत्राष्टकेन मिथ्याद्रष्टिपरिणतिव्याख्यानस्थलं समाप्तम् ।।
तदनन्तरं सम्यग्द्रष्टिभावनाव्याख्यानमुख्यत्वेन ‘कालु लहेविणु’ इत्यादि सूत्राष्टकं
कथ्यते अथ
८५) कालु लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोहु गलेइ
तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमेँ अप्पु मुणेइ ।।८५।।
कालं लब्ध्वा योगिन् यथा यथा मोहः गलति
तथा तथा दर्शनं लभते जीवः नियमेन आत्मानं मनुते ।।८५।।
समझकर सेवन करता है, सो इनमें सुख नहीं हैं ।।८४।।
इसप्रकार तीन तरहकी आत्माको कहनेवाले पहले महाधिकारमें ‘‘जिउ मिच्छतें इत्यादि
आठ दोहोंमेंसे मिथ्यादृष्टिकी परिणतिका व्याख्यान समाप्त किया इसके आगे सम्यग्दृष्टिकी
भावनाके व्याख्यानकी मुख्यतासे ‘‘काल लहेविणु’’ इत्यादि आठ दोहा-सूत्र कहते हैं
गाथा८५
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [कालं लब्धवा ] काल पाकर [यथा यथा ] जैसा
जैसा [मोहः ] मोह [गलति ] गलता है-कम होता जाता है, [तथा तथा ] तैसा तैसा [जीवः ]
यह जीव [दर्शनं ] सम्यग्दर्शनको [लभते ] पाता है, फि र [नियमेन ] निश्चयसे [आत्मानं ]
अपने स्वरूपको [मनुते ] जानता है
परमसमरसी भावरूप सुखरसनी अपेक्षाए निश्चयथी दुःखरूप विषयोने पण सुखना हेतु मानीने
अनुभवे छे, ए तात्पयार्थ छे. ८४.
ए प्रमाणे त्रण प्रकारना आत्माना प्रतिपादक प्रथम महाधिकारमां ‘पज्जयरत्तउ जीवडउ’
इत्यादि आठ सूत्रोथी मिथ्याद्रष्टिनी परिणतिनुं व्याख्यानस्थळ समाप्त थयुं.
त्यार पछी सम्यग्द्रष्टिनी भावनाना व्याख्याननी मुख्यताथी ‘कालु लहेविणु’ इत्यादि आठ
गाथासूत्र कहे छे.
हवे (सम्यग्द्रष्टि जीवनुं कथन करे छे)ः

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अधिकार-१ः दोहा-८५ ]परमात्मप्रकाशः [ १४३
कालु लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोहु गलेइ कालं लब्ध्वा हे योगिन् यथा यथा मोहो
विगलति तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ तथा तथा दर्शनं सम्यक्त्वं लभते जीवः तदनन्तरं किं
करोति णियमें अप्पु मुणेइ नियमेनात्मानं मनुते जानातीत्यर्थः तथाहि
एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तमनुष्यदेशकुलशुद्धात्मोपदेशादीनामुत्तरोत्तरदुर्लभक्रमेण
दुःप्राप्ता काललब्धिः, कथंचित्काकतालीयन्यायेन तां लब्ध्वा परमागमकथितमार्गेण मिथ्यात्वादि-
भेदभिन्नपरमात्मोपलंभप्रतिपत्तेर्यथा यथा मोहो विगलति तथा तथा शुद्धात्मैवोपादेय इति रूचिरूपं
सम्यक्त्वं लभते
शुद्धात्मकर्मणोर्भेदज्ञानेन शुद्धात्मतत्त्वं मनुते जानातीति अत्र यस्यैवोपादेय-
भूतस्य शुद्धात्मनो रुचिपरिणामेन निश्चयसम्यग्द्रष्टिर्जातो जीवः, स एवोपादेय इति
भावार्थः ।।८५।।
अत ऊर्ध्वं पूर्वोक्त न्यायेन सम्यग्द्रष्टिर्भूत्वा मिथ्याद्रष्टिभावनाया प्रतिपक्षभूतां याद्रशीं
भावार्थ :एकेन्द्रीसे विकलत्रय (दोइन्द्री, तेइन्द्री, चोइन्द्री) होना दुर्लभ है,
विकलत्रयसे पंचेन्द्री, पंचेन्द्रीसे सैनी पर्याप्त, उससे मनुष्य होना कठिन है मनुष्यमें भी आर्यक्षेत्र,
उत्तमकुल, शुद्धात्माका उपदेश आदि मिलना उत्तरोत्तर बहुत कठिन हैं, और किसी तरह
‘काकतालीय न्यायसे’ काललब्धिको पाकर सब दुर्लभ सामग्री मिलने पर भी जैन-शास्त्रोक्त
मार्गसे मिथ्यात्वादिके दूर हो जानेसे आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होते हुए, जैसा जैसा मोह क्षीण होता
जाता है, वैसा शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप सम्यक्त्व होता है
शुद्ध आत्मा और
कर्मको जुदे जुदे जानता है जिस शुद्धात्माकी रुचिरूप परिणामसे यह जीव निश्चयसम्यग्दृष्टि
होता है, वही उपादेय है, यह तात्पर्य हुआ ।।८५।।
इसके बाद पूर्व कथित रीतिसे सम्यग्दृष्टि होकर मिथ्यात्वकी भावनासे विपरीत जैसी
भावार्थएकेन्द्रिय, विक्लेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, संज्ञीपर्याप्तमनुष्य, आर्यक्षेत्र, उत्तमकुळ,
शुद्ध आत्मानो उपदेशादि क्रमथी जे उत्तरोत्तर दुर्लभ होवाथी काळलब्धि दुःप्राप्त छे. तेने कोई
प्रकारे ‘काकतालीय न्यायथी’ पामीने परमागममां कहेला मार्गथी मिथ्यात्वादि भेदोथी भिन्न
परमात्मानी उपलब्धि थवाथी, जेम जेम मोह गळतो जाय छे तेम तेम ‘शुद्ध आत्मा ज उपादेय
छे’ एवुं रुचिरूप सम्यक्त्व जीव पामे छे, शुद्ध आत्मा अने कर्मना भेदज्ञानथी शुद्ध आत्माने
जाणे छे.
अहीं, उपादेयभूत जे शुद्ध आत्मानी रुचिरूप परिणामथी जीव निश्चयसम्यग्द्रष्टि थाय
छे ते शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे, एवो भावार्थ छे. ८५.
त्यार पछी पूर्वोक्त न्यायथी सम्यग्द्रष्टि थईने मिथ्याद्रष्टिनी भावनाथी प्रतिपक्षभूत जेवी

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१४४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-८६
भेदभावनां करोति ताद्रशीं क्रमेण सूत्रसप्तकेन विवृणोति
८६) अप्पा गोरउ किण्हु ण वि अप्पा रत्तु ण होइ
अप्पा सुहुमु वि थूलु ण वि णाणिउ जाणेँ जोइ ।।८६।।
आत्मा गौरः कृष्णः नापि आत्मा रक्त : न भवति
आत्मा सूक्ष्मोऽपि स्थूलः नापि ज्ञानी ज्ञानेन पश्यति ।।८६।।
आत्मा गौरो न भवति रक्तो न भवति आत्मा सूक्ष्मोऽपि न भवति स्थूलोऽपि नैव
तर्हि किंविशिष्टः ज्ञानी ज्ञानस्वरूपः ज्ञानेन करणभूतेन पश्यति अथवा ‘णाणिउ जाणइ
जोइं’ इति पाठान्तरं, ज्ञानी योऽसौ योगी स जानात्यात्मानम् अथवा ज्ञानी ज्ञानस्वरूपेण
आत्मा कोऽसौ जानाति योगीति तथाहिकृष्णगौरादिकधर्मान् व्यवहारेण जीवसंबद्धानपि
तथापि शुद्धनिश्चयेन शुद्धात्मनो भिन्नान् कर्मजनितान् हेयान् वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी
स्वशुद्धात्मतत्त्वे तान् न योजयति संबद्धान्न करोतीति भावार्थः
।।८६।। अथ
भेदविज्ञानकी भावनाको करता है, वैसी भेदविज्ञान-भावनाका स्वरूप क्रमसे सात दोहा-सूत्रोंमें
कहते हैं
गाथा८६
अन्वयार्थ :[आत्मा ] आत्मा [गौरः कृष्णः नापि ] सफे द नहीं है, काला नहीं है,
[आत्मा ] आत्मा [रक्तः ] लाल [न भवति ] नहीं है, [आत्मा ] आत्मा [सूक्ष्मः अपि स्थूलः
नैव ] सूक्ष्म भी नहीं है, और स्थूल भी नहीं है, [ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, [ज्ञानेन ] ज्ञानदृष्टिसे
[पश्यति ] देखा जाता है, अथवा ज्ञानी पुरुष योगी ही ज्ञानकर आत्माको जानता है
।।
भावार्थ :ये श्वेत काले आदि धर्म व्यवहारनयकर शरीरके सम्बन्धसे जीवके कहे
जाते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर शुद्धात्मासे जुदे हैं, कर्मजनित हैं, त्यागने योग्य हैं जो वीतराग
स्वसंवेदन ज्ञानी है, वह निज शुद्धात्मतत्त्वमें इन धर्मोंको नहीं लगाता, अर्थात् इनको अपने नहीं
समझता है
।।८६।।
भेदभावना करे छे, तेवी भेदभावना क्रमे करीने सात गाथासूत्रोथी कहे छेः
भावार्थकृष्ण, गौरादि धर्मो व्यवहारनयथी जीवनी साथे संबद्ध छे तोपण जे शुद्ध
निश्चयनयथी शुद्ध आत्माथी भिन्न छे, कर्मजनित छे, हेय छे, तेमने वीतराग स्वसंवेदनज्ञानी
स्वशुद्धात्मतत्त्वमां योजतो नथी अने संबद्ध करतो नथी. ए भावार्थ छे. ८६.

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अधिकार-१ः दोहा-८७ ]परमात्मप्रकाशः [ १४५
८७) अप्पा बंभणु वइसु ण वि ण वि खत्तिउ ण वि सेसु
पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि णाणिउ मुणइ असेसु ।।८७।।
आत्मा ब्राह्मणः वैश्यः नापि नापि क्षत्रियः नापि शेषः
पुरुषः नपुंसकः स्त्री नापि ज्ञानी मनुते अशेषम् ।।८७।।
अप्पा बंभणु वइसु ण वि ण वि खत्तिउ ण वि सेसु पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि आत्मा
ब्राह्मणो न भवति वैश्योऽपि नैव नापि क्षत्रियो नापि शेषः शूद्रादिः पुरुषनपुंसकस्त्रीलिङ्गरूपोऽपि
नैव
तर्हि किंविशिष्टः णाणिउ मुणइ असेसु ज्ञानी ज्ञानस्वरूप आत्मा ज्ञानी सन् किं करोति
मनुते जानाति कम् अशेषं वस्तुजातं वस्तुसमूहमिति तद्यथा यानेव ब्राह्मणादिवर्णभेदान्
पुंल्लिङ्गादिलिङ्गभेदान् व्यवहारेण परमात्मपदार्थादभिन्नान् शुद्धनिश्चयेन भिन्नान् साक्षाद्धेयभूतान्
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिच्युतो बहिरात्मा स्वात्मनि योजयति तानेव तद्विपरीतभावनारतोऽन्तरात्मा
आगे ब्राह्मणादि वर्ण आत्माके नहीं हैं, ऐसा वर्णन करते हैं
गाथा८७
अन्वयार्थ :[आत्मा ] आत्मा [ब्राह्मणः वैश्यः नापि ] ब्राह्मण नहीं है, वैश्य नहीं
है, [क्षत्रियः नापि ] क्षत्री भी नहीं है, [शेषः ] बाकी शुद्र भी [नापि ] नहीं है, [पुरुषः
नपुंसकः स्त्री नापि ] पुरुष, नपुंसक, स्त्रीलिंगरूप भी नहीं है, [ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप हुआ
[अशेषम् ] समस्त वस्तुओंको ज्ञानसे [मनुते ] जानता है
भावार्थ :जो ब्राह्मणादि वर्ण-भेद हैं, और पुरुष लिंगादि तीन लिंग हैं, वे यद्यपि
व्यवहारनयकर देहके सम्बन्धसे जीवके कहे जाते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर आत्मासे भिन्न
हैं, और साक्षात् त्यागने योग्य हैं, उनको वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसे रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने
जानता है, और उन्हींको मिथ्यात्वसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपने नहीं समझता
आपको तो
हवे (ब्राह्मणादि वर्ण आत्माने नथी एवुं वर्णन करे छे)ः
भावार्थवीतरागनिर्विकल्प समाधिथी च्युत थयेलो बहिरात्मा जे ब्राह्मणादि
वर्णभेदो, पुल्लिंगादि लिंगभेदो व्यवहारथी परमार्थपदार्थथी अभिन्न छे, शुद्धनिश्चयनयथी भिन्न
छे अने साक्षात् हेय छे तेमने पोताना आत्मामां जोडे छे, तेनाथी विपरीत भावनामां रत एवो
अन्तरात्मा तेमने स्वशुद्धात्मस्वरूपमां योजतो नथी. ए तात्पयार्थ छे. ८७.

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१४६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-८८
स्वशुद्धात्मस्वरूपेण योजयतीति तात्पर्यार्थः ।।८७।। अथ
८८) अप्पा वंदउ खवणु ण वि अप्पा गुरउ ण होइ
अप्पा लिंगिउ एक्कु ण वि णाणिउ जाणइ जोइ ।।८८।।
आत्मा वन्दकः क्षपणः नापि आत्मा गुरवः न भवति
आत्मा लिङ्गी एकः नापि ज्ञानी जानाति योगी ।।८८।।
आत्मा वन्दको बौद्धो न भवति, आत्मा क्षपणको दिगम्बरो न भवति, आत्मा
गुरवशब्दवाच्यः श्वेताम्बरो न भवति आत्मा एकदण्डित्रिदण्डिहंसपरमहंससंज्ञाः संन्यासी शिखी
मुण्डी योगदण्डाक्षमालातिलककुलकघोषप्रभृतिवेषधारी नैकोऽपि कश्चिदपि लिङ्गी न भवति तर्हि
वह ज्ञानस्वभावरूप जानता है ।।८७।।
आगे वंदक क्षपणकादि भेद भी जीवके नहीं हैं, ऐसा कहते हैं
गाथा८८
अन्वयार्थ :[आत्मा ] आत्मा [वन्दकः क्षपणः नापि ] बौद्धका आचार्य नहीं है,
दिगंबर भी नहीं है, [आत्मा ] आत्मा [गुरवः न भवति ] श्वेताम्बर भी नहीं है, [आत्मा ] आत्मा
[एकः अपि ] कोई भी [लिंगी ] वेशका धारी [न ] नहीं है, अर्थात् एकदंडी, त्रिदंडी, हंस,
परमहंस, सन्यासी, जटाधारी, मुंडित, रुद्राक्षकी माला, तिलक, कुलक, घोष वगैरेः भेषोंमें कोई
भी भेषधारी नहीं है, एक [ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, उस आत्माको [योगी ] ध्यानी [मुनि ]
ध्यानारूढ़ होकर [जानाति ] जानता है, ध्यान करता है
भावार्थ :यद्यपि व्यवहारनयकर यह आत्मा वंदकादि अनेक भेषोंको धरता है, तो
भी शुद्धनिश्चयनयकर कोई भी भेष जीवके नहीं है, देहके है यहाँ देहके आश्रयसे जो द्रव्यलिंग
हवे (वंदक, क्षपणादिक भेद पण जीवना नथी एम कहे छे)ः
भावार्थजो के आत्माने व्यवहारनयथी वंदकादि लिंगी कहेवामां आवे छे तोपण
शुद्धनिश्चयनयथी कोई पण लिंग (वेश) जीवने नथी.
अहीं, ए भावार्थ छे के देहाश्रित द्रव्यलिंगने उपचरित असद्भूत व्यवहारनयथी जीवनुं
स्वरूप कहेवामां आवे छे अने वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप भावलिंग जो के शुद्धात्मस्वरूपनुं
१. स्वशुद्धात्मस्वरूपेण ने बदले स्वशुद्धात्मस्वरूपेन एम होवुं जोईए.