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[भवतीरम् ] भवसागरका पार [प्राप्नोषि ] पायेगा
ही समयमें मोक्षको पाता है
भावार्थः
स्वभावान्निश्चयेन भिन्नं पृथग्भूतं हे जीव णियमिं बुज्झहि सव्वु नियमेन निश्चयेन बुध्यस्व जानीहि
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जानो, अर्थात् ये सब कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए हैं, आत्माका स्वभाव निर्मल ज्ञान दर्शनमयी
है
छोड़कर [आत्मस्वभावम् ] अपने शुद्धात्म स्वभावको [भावय ] चितंवन कर
देहादिपरभावः सो छंडेविणु जीव तुहुं भावहि अप्पसहाउ तं पूर्वोक्तं शुद्धात्मनो विलक्षणं परभावं
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छोड़कर केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयरूप कार्यसमयसारका साधक जो अभेदरत्नत्रयरूप
कारणसमयसार है, उस रूप परिणत हुए अपने शुद्धात्म स्वभावको चिंतवन कर और उसीको
उपादेय समझ
[दर्शनज्ञानचारित्रमयं ] शुद्धोपयोगके साथ रहनेवाले अपने सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप
[आत्मानं ] आत्माको [निश्चितम् ] निश्चयकर [भावय ] चिंतवन कर
व्यक्तिरूप कार्यसमयसारना साधक अभेदरत्नत्रयात्मक कारणसमयसाररूपे परिणत
शुद्धात्मस्वभावने भाव.
हवे, निश्चयनयथी आठ कर्म अने सर्व दोषोथी रहित, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने
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निकटभव्योंको उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ
स्वशुद्धात्मानां सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रथी रचायेल आत्माने निश्चयथी भाव अर्थात्
देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगाकांक्षारूप निदानबंधादि समस्त विभावपरिणामोने
छोडीने शुद्धात्मने भाव.
एवो भावार्थ छे. ७५.
ज्ञानचारित्रैर्निर्वृत्तं अप्पा भावि णिरुत्तु तमित्थंभूतमात्मानं भावय
एवाभेदरत्नत्रयपरिणतानां भव्यानामुपादेय इति भावार्थः
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हुआ संता [लघु ] जल्दी [कर्मणा ] कर्मोंसे [मुच्यते ] छूट जाता है
शीघ्र ही छूट जाता है
वीतराग सम्यक्त्व है, वही ध्यावने योग्य है, ऐसा अभिप्राय हुआ
छे. निश्चयसम्यक्त्वनी भावनानुं फळ कहेवामां आवे छे. सम्यग्द्रष्टि जीव शीघ्र ज्ञानावरणादि
कर्मथी मुकाय छे.
एवो अभिप्राय छे. श्रीकुंदकुंदाचार्ये मोक्षप्राभृत (गाथा-१४)मां निश्चयसम्यक्त्वनुं लक्षण कह्युं छे
के
हवेइ वीतरागसम्यग्
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वह सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट आठ कर्मोंको क्षय करता है
अनेक प्रकारके कर्मोंको [बध्नाति ] बाँधता है, [येन ] जिनसे कि [संसारं ] संसारमें [भ्रमति ]
भ्रमण करता है
हैं, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है
मिथ्या वितथा व्यलीका च सा
परिणमेलो ते श्रमण दुष्ट आठ कर्मनो क्षय करे छे.] ७६.
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जिनसे कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूपी पाँच प्रकारके संसारमें भटकता है
मरण किया हो, ऐसा कोई काल नहीं है, कि जिसमें इसने जन्म-मरण न किये हों, ऐसा कोई
भव नहीं, जो इसने पाया न हो, और ऐसे अशुद्ध भाव नहीं हैं, जो इसके न हुए हों
मिथ्यादृष्टि ही हैं, सम्यग्दृष्टि नहीं और मिथ्यात्वकर परिणमते दुःख देनेवाले आठ कर्मोंको बाँधते
हैं
प्रतिपक्षभूतानि बहुविधकर्माणि बध्नाति तैश्च कर्मभिर्द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं
संसारं परिभ्रमतीति
(खोटी) व्यलीक (बनावटी) द्रष्टि
कुंदकुंदाचार्यदेवकृत) मोक्षप्राभृत (गाथा १५)मां निश्चयमिथ्याद्रष्टिनुं लक्षण पण कह्युं छे केः
कर्मने बांधे छे. ) वळी तेओए पण कह्युं छे के (प्रवचनसार २--९४)
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है, ऐसा जानो
चिकने हैं, [गुरुकाणि ] भारी हैं, [वज्रसमानि ] और वज्रके समान अभेद्य हैं
जाणवा.)
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आच्छादन करके अभेदरत्नत्रयरूप निश्चयमोक्षमार्गसे विपरीत खोटे मार्गमें डालते हैं, अर्थात्
मोक्ष-मार्गसे भुलाकर भव-वनमें भटकाते हैं
निश्चयमोक्षमार्ग है, वह उपादेय है
श्रद्धान करता है, यथार्थ नहीं जानता
पातयन्तीति
च यथावद् वस्तुस्वरूपमपि विपरीतं मिथ्यात्वरागादिपरिणतं जानाति
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है, उसको मिथ्यात्व रागादिरूप जानता है
अर्थात् भेदविज्ञानके अभावसे गोरा, श्याम, स्थूल, कृश, इत्यादि कर्मजनित देहके स्वरूपको
अपना जानता है, इसीसे संसारमें भ्रमण करता है
शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है
विशिष्टभेदज्ञानाभावाद्गौरस्थूलकृशादिकर्मजनितदेहधर्मानं जानातीत्यर्थः
वस्तुस्वरूपने पण विपरीत अने रागादिरूपे परिणमेलुं जाणे छे, के जेथी ते कर्मथी बनेला भावोने
पोतारूप कहे छे
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मोटा हूँ, [एतं ] इसप्रकार मिथ्यात्व परिणामकर परिणत मिथ्यादृष्टि जीवको तू [मूढं ] मूढ
[मन्यस्व ] मान
भिन्न है, तो भी पुरुष विषय कषायोंके आधीन होकर शरीरके भावोंको अपने जानता है, वह
अपनी स्वात्मानुभूतिसे रहित हुआ मूढात्मा है
विषयकषायाधीनतया स्वशुद्धात्मानुभूतेश्च्युतः सन् मूढात्मा भवतीति
जीवमां, जे जोडे छे ते विषयकषायने आधीन थईने स्वशुद्धात्मानी अनुभूतिथी च्युत थयो थको
मूढात्मा छे, एवो अहीं भावार्थ छे. ८०.
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[अहं ] मैं [क्षत्रियः ] क्षत्री हूँ, [अहं ] मैं [शेषः ] इनके सिवाय शूद्र हूँ, [अहं ] मैं [पुरुषः
नपुंसकः स्त्री ] पुरुष हूँ, और स्त्री हूँ
आराधने योग्य वीतराग सदा आनंदस्वभाव निज शुद्धात्मामें इन भेदोंको लगाता हैं, अर्थात्
अपनेको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र मानता है; स्त्री, पुरुष, नपुंसक, मानता है, वह कर्मोंका
बंध करता है, वही अज्ञानसे परिणत हुआ निज शुद्धात्म तत्त्वकी भावनासे रहित हुआ मूढात्मा
हैं, ज्ञानवान् नहीं है
करोति
ब्राह्मणादि भेदोने, निश्चयनयथी उपादेयभूत वीतराग सदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा
स्वशुद्धात्मामां जोडे छे
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योजयति
वीतरागसहजानंद जेनो एक स्वभाव छे एवा परमात्माथी भिन्न छे. कर्मोदयथी उत्पन्न
तरुण, वृद्धादि विभावपर्यायो हेय होवा छतां पण तेमने, साक्षात् उपादेयभूत
निजशुद्धात्मतत्त्वमां योजे छे (
[वन्दकः ] बोद्धमतका आचार्य हूँ [श्वेतपटः ] और मैं श्वेताम्बर हूँ, इत्यादि [सर्वम् ] सब
शरीरके भेदोंको [मूढ़ः ] मूर्ख [मन्यते ] अपना मानता है
उससे भिन्न हैं
है, वह अज्ञानी जीव बड़ाई, प्रतिष्ठा, धनका लाभ इत्यादि विभाव परिणामोंके आधीन होकर
परमात्माकी भावनासे रहित हुआ मूढात्मा हैं, वह जीवके ही भाव मानता है
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मण्णइ सव्वु मायाजालमप्यसत्यमपि कृत्रिममपि आत्मीयं स्वकीयं मन्यते
नाना, मामा, भाई, बंधु और [द्रव्यं ] रत्न, माणिक, मोती, सुवर्ण, चांदी, धन, धान्य, द्विपदवांदी
धाय, नौकर, चौपाये-गाय, बैल, घोड़ी, ऊँट, हाथी, रथ, पालकी, बहली, ये [सर्व ] सर्व
[मायाजालमपि ] असत्य हैं, कर्मजनित हैं, तो भी [मूढ़ः ] अज्ञानी जीव [आत्मीयं ] अपने
[मन्यते ] मानता है
भी हैं, उनको जो जीव साक्षात् उपादेयरूप अनाकुलतास्वरूप परमार्थिक सुखसे अभिन्न वीतराग
परमानंदरूप एकस्वभाववाले शुद्धात्मद्रव्यमें लगाता है, अर्थात अपने मानता है, वह मन, वचन
दुःखनां कारण होवाथी हेय छे तोपण, तेमने साक्षात् उपादेयभूत अने अनाकुळता जेनुं लक्षण
छे एवा पारमार्थिक सौख्यथी अभिन्न, वीतरागपरमानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा
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अर्थात् अतीन्द्रियसुखरूप आत्मामें परवस्तुका क्या प्रयोजन है
है, वह [मिथ्यादृष्टिः जीवः ] मिथ्यादृष्टि जीव [अत्र ] इस संसारमें [किं न करोति ] क्या
पाप नहीं करता ? सभी पाप करता है, अर्थात् जीवोंकी हिंसा करता है, झूठ बोलता है, दूसरेका
धन हरता है, दूसरेकी स्त्री सेवन करता है, अति तृष्णा करता है, बहुत आरंभ करता है, खेती
करता है, खोटे-खोटे व्यसन करता है, जो न करनेके काम हैं उनको भी करता है
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सुखहेतून् मत्वा अनुभवतीत्यर्थः
यह जीव [दर्शनं ] सम्यग्दर्शनको [लभते ] पाता है, फि र [नियमेन ] निश्चयसे [आत्मानं ]
अपने स्वरूपको [मनुते ] जानता है
अनुभवे छे, ए तात्पयार्थ छे. ८४.
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दुःप्राप्ता काललब्धिः, कथंचित्काकतालीयन्यायेन तां लब्ध्वा परमागमकथितमार्गेण मिथ्यात्वादि-
भेदभिन्नपरमात्मोपलंभप्रतिपत्तेर्यथा यथा मोहो विगलति तथा तथा शुद्धात्मैवोपादेय इति रूचिरूपं
सम्यक्त्वं लभते
‘काकतालीय न्यायसे’ काललब्धिको पाकर सब दुर्लभ सामग्री मिलने पर भी जैन-शास्त्रोक्त
मार्गसे मिथ्यात्वादिके दूर हो जानेसे आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होते हुए, जैसा जैसा मोह क्षीण होता
जाता है, वैसा शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप सम्यक्त्व होता है
प्रकारे ‘काकतालीय न्यायथी’ पामीने परमागममां कहेला मार्गथी मिथ्यात्वादि भेदोथी भिन्न
परमात्मानी उपलब्धि थवाथी, जेम जेम मोह गळतो जाय छे तेम तेम ‘शुद्ध आत्मा ज उपादेय
छे’ एवुं रुचिरूप सम्यक्त्व जीव पामे छे, शुद्ध आत्मा अने कर्मना भेदज्ञानथी शुद्ध आत्माने
जाणे छे.
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स्वशुद्धात्मतत्त्वे तान् न योजयति संबद्धान्न करोतीति भावार्थः
कहते हैं
नैव ] सूक्ष्म भी नहीं है, और स्थूल भी नहीं है, [ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, [ज्ञानेन ] ज्ञानदृष्टिसे
[पश्यति ] देखा जाता है, अथवा ज्ञानी पुरुष योगी ही ज्ञानकर आत्माको जानता है
समझता है
स्वशुद्धात्मतत्त्वमां योजतो नथी अने संबद्ध करतो नथी. ए भावार्थ छे. ८६.
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नैव
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिच्युतो बहिरात्मा स्वात्मनि योजयति तानेव तद्विपरीतभावनारतोऽन्तरात्मा
नपुंसकः स्त्री नापि ] पुरुष, नपुंसक, स्त्रीलिंगरूप भी नहीं है, [ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप हुआ
[अशेषम् ] समस्त वस्तुओंको ज्ञानसे [मनुते ] जानता है
हैं, और साक्षात् त्यागने योग्य हैं, उनको वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसे रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने
जानता है, और उन्हींको मिथ्यात्वसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपने नहीं समझता
छे अने साक्षात् हेय छे तेमने पोताना आत्मामां जोडे छे, तेनाथी विपरीत भावनामां रत एवो
अन्तरात्मा तेमने स्वशुद्धात्मस्वरूपमां योजतो नथी. ए तात्पयार्थ छे. ८७.
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[एकः अपि ] कोई भी [लिंगी ] वेशका धारी [न ] नहीं है, अर्थात् एकदंडी, त्रिदंडी, हंस,
परमहंस, सन्यासी, जटाधारी, मुंडित, रुद्राक्षकी माला, तिलक, कुलक, घोष वगैरेः भेषोंमें कोई
भी भेषधारी नहीं है, एक [ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, उस आत्माको [योगी ] ध्यानी [मुनि ]
ध्यानारूढ़ होकर [जानाति ] जानता है, ध्यान करता है