Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 61,62,63,64,65,65*,66 (Adhikar 1),67 (Adhikar 1) Aatamanu Parvastuthi Bhinna Hovanu Kathan,68 (Adhikar 1),69 (Adhikar 1),70 (Adhikar 1),71 (Adhikar 1),72 (Adhikar 1).

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वीतरागचिदानन्दैकस्वभावोऽपि पश्चाद्वयवहारेण वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनाभावेनोपार्जितं शुभाशुभं
कर्म हेतुं लब्ध्वा पुण्यरूपः पापरूपश्च भवति
अत्र यद्यपि व्यवहारेण पुण्यपापरूपो भवति तथापि
परमात्मानुभूत्यविनाभूतवीतरागसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रबहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूपा या तु
निश्चयचतुर्विधाराधना तस्या भावनाकाले साक्षादुपादेयभूतवीतरागपरमानन्दैकरूपो
मोक्षसुखाभिन्नत्वात् शुद्धजीव उपादेय इति तात्पर्यार्थः
।।६०।।
अथ तानि पुनः कर्माण्यष्टौ भवन्तीति कथयति
६१) ते पुणु जीवहँ जोइया अट्ठ वि कम्म हवंति
जेहिँ जि झंपिय जीव णवि अप्प-सहाउ लहंति ।।६१।।
तानि पुनः जीवानां योगिन् अष्टौ अपि कर्माणि भवन्ति
यैः एव झंपिताः जीवाः नैव आत्मस्वभावं लभन्ते ।।६१।।
ते पुणु जीवहं जोइया अट्ठ वि कम्म हवंति तानि पुनर्जीवानां हे योगिन्नष्टावेव
कर्माणि भवन्ति जेहिं जि झंपिय जीव णवि अप्पसहाउ लहंति यैरेव कर्मभिर्झपिताः जीवा
हैं, उनकी भावनाके समय साक्षात् उपादेयरूप वीतराग परमानन्द जो मोक्षका सुख उससे
अभिन्न आनंदमयी ऐसा निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, अन्य सब हेय हैं
।।६०।।
आगे कहते हैं, वे कर्म आठ हैं, जिनसे संसारी जीव बँधे हैं, कहतेश्रीगुरु अपने
शिष्य मुनिसे कहते हैं, कि
गाथा६१
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [तानि पुनः कर्माणि ] वे फि र कर्म [जीवानां
अष्टौ अपि ] जीवोंके आठ ही [भवन्ति ] होते हैं, [यैः एव झंपिताः ] जिन कर्मोंसे ही
आच्छादित (ढँके हुए) [जीवाः ] ये जीवकर [आत्मस्वभावं ] अपने सम्यक्त्वादि आठ गुणरूप
स्वभावको [नैव लभन्ते ] नहीं पाते
निरोध जेनुं लक्षण छे, एवा तपश्चरणरूप जे चार प्रकारनी निश्चय-आराधना छे तेनी भावनाना
समये साक्षात् उपादेयभूत वीतराग परमानंद जेनुं एक रूप छे एवो शुद्ध जीव मोक्षसुखथी
अभिन्न होवाथी उपादेय छे, एवो तात्पर्यार्थ छे. ६०.
हवे ते कर्मो आठ छे एम कहे छेः
भावार्थःज्ञानावरणादि भेदथी कर्मो आठ ज छे के जेनाथी आच्छादित थयेला जीवो
अधिकार-१ः दोहा-६१ ]परमात्मप्रकाशः [ १०७

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नैवात्मस्वभावं लभन्ते इति तद्यथाज्ञानावरणादिभेदेन कर्माण्यष्टावेव भवन्ति यैर्झंपिताः
सन्तो जीवाः सम्यक्त्वाद्यष्टविधस्वकीयस्वभावं न लभन्ते तथा हि‘‘सम्मत्तणाण-
दंसणवीरियसुहुमं तहेव अवगहणं अगुरुगलहुगं अव्वाबाहं अट्ठगुणा हुंति सिद्धाणं ।।’’
शुद्धात्मादिपदार्थविषये विपरीताभिनिवेशरहितः परिणामः क्षायिकसम्यक्त्वमिति भण्यते
जगत्रयकालत्रयवर्तिपदार्थयुगपद्विशेषपरिच्छित्तिरूपं केवलज्ञानं भण्यते तत्रैव सामान्यपरिच्छित्तिरूपं
केवलदर्शनं भण्यते
तत्रैव केवलज्ञानविषये अनन्तपरिच्छित्तिशक्ति रूपमनन्तवीर्यं भण्यते
अतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वं भण्यते एकजीवावगाहप्रदेशे अनन्तजीवावगाहदानसामर्थ्य-
सम्यकत्वादि अष्टविध स्वकीय स्वभावने पामता नथी. हवे आठ गुणो कहे छे
‘‘सम्मत्तणाणदंसणवीरियसुहमं तहेव अवगहणं अगुरुगलहुगं अव्वाबाहं अट्ठगुणा हुंति सिद्धाणं’’
(कुंदकुंदाचार्यदेव विरचित प्राकृत सिद्धभक्ति. २०)
अर्थःसम्यकत्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्म तथा अवगाहन, अगुरुलघु, अव्याबाध
ए आठ गुणो सिद्धोने होय छे.
(१) शुद्ध आत्मादि पदार्थोमां विपरीत अभिनिवेश रहित परिणाम ते क्षायिक सम्यकत्व कहेवाय छे.
(२) त्रण लोक अने त्रण काळवर्ती पदार्थोनी युगपत् विशेषपरिच्छित्तिरूप केवळज्ञान कहेवाय
छे.
(३) त्रण लोक अने त्रण काळवर्ती पदार्थोनी युगपत् सामान्यपरिच्छित्तिरूप केवळदर्शन कहेवाय
छे.
(४) ते केवळज्ञाननी अनंत परिच्छित्तिनी शक्तिरूप अनंतवीर्य कहेवाय छे.
(५) अतीन्द्रियज्ञाननो विषय सूक्ष्मत्व कहेवाय छे.
(६) एक जीवना अवगाहप्रदेशोमां अनंत जीवोने अवगाह देवानुं जे सामर्थ्य ते अवगाहनत्व
कहेवाय छे.
भावार्थ :अब उन्हीं आठ गुणोंका व्याख्यान करते हैं ‘‘सम्मत्त’’ इत्यादिइसका
अर्थ ऐसा है, कि शुद्ध आत्मादि पदार्थोंमें विपरीत श्रद्धान रहित जो परिणाम उसको
क्षायिकसम्यक्त्व कहते हैं, तीन लोक तीन कालके पदार्थोंको एक ही समयमें विशेषरूप
सबको जानें, वह केवलज्ञान है, सब पदार्थोंको केवलदृष्टिसे एक ही समयमें देखे, वह
केवलदर्शन है
उसी केवलज्ञानमें अनंतज्ञायक (जाननेकी) शक्ति वह अनंतवीर्य है,
अतीन्द्रियज्ञानसे अमूर्तिक सूक्ष्म पदार्थोंको जानना, आप चार ज्ञानके धारियोंसे न जाना जावे
वह सूक्ष्मत्व हैं, एक जीवके अवगाह क्षेत्रमें (जगहमें) अनंते जीव समा जावें, ऐसी अवकाश
१०८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-६१

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मवगाहनत्वं भण्यते एकान्तेन गुरुलघुत्वस्याभावरूपेण अगुरुलघुत्वं भण्यते वेदनीयकर्मोदय-
जनितसमस्तबाधारहितत्वादव्याबाधगुणश्चेति इदं सम्यक्त्वादिगुणाष्टकं संसारावस्थायां किमपि
केनापि कर्मणा प्रच्छादितं तिष्ठति यथा तथा कथ्यते सम्यक्त्वं मिथ्यात्वकर्मणा प्रच्छादितं,
केवलज्ञानं केवलज्ञानावरणेन झंपितं, केवलदर्शनं केवलदर्शनावरणेन झंपितम्, अनन्तवीर्यं
वीर्यान्तरायेण प्रच्छादितं, सूक्ष्मत्वमायुष्ककर्मणा प्रच्छादितम्
कस्मादिति चेत् विवक्षितायुः
कर्मोदयेन भवान्तरे प्राप्ते सत्यतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वं त्यक्त्वा पश्चादिन्द्रियज्ञानविषयो
भवतीत्यर्थः
अवगाहनत्वं शरीरनामकर्मोदयेन प्रच्छादितं, सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुलघुत्वं
नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम् गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनितं महत्त्वं भण्यते, लघुत्वशब्देन
(७) सर्वथा गुरुलघुत्वना अभावरूपे अगुरुलघुत्व कहेवाय छे.
(८) वेदनीय कर्मना उदयजनित समस्त बाधाथी रहित होवाथी अव्याबाध गुण कहेवाय छे.
आ सम्यक्त्वादि आठ गुणो संसार-अवस्थामां कई रीते क्या कर्मथी आच्छादित रहे
छे ते कहे छेः
सम्यक्त्व मिथ्यात्वकर्मथी आच्छादित छे. केवळज्ञान केवळज्ञानावरणथी आच्छादित
छे. केवळदर्शन केवळदर्शनावरणथी आच्छादित छे, अनंतवीर्य वीर्यान्तरायथी आच्छादित छे,
सूक्ष्मत्व आयुकर्मथी आच्छादित छे शाथी? के विवक्षित आयुकर्मना उदयथी बीजो भव
प्राप्त थतां, अतीन्द्रियज्ञानना विषयरूप सूक्ष्मत्वने छोडीने पांच इन्द्रियज्ञानना विषयरूप थाय
छे एवो अर्थ छे. अवगाहनत्व शरीरनामकर्मना उदयथी आच्छादित छे. सिद्धअवस्थाने
योग्य विशिष्ट अगुरुलघुत्वनामकर्मना उदयथी आच्छादित छे, ‘गुरुत्व’ शब्दथी
उच्चगोत्रजनित महत्व (उच्चपणुं) कहेवामां आवे छे. ‘लघुत्व’ शब्दथी नीचगोत्रजनित
देनेकी सामर्थ्य वह अवगाहनागुण है, सर्वथा गुरुता और लघुताका अभाव अर्थात् न गुरु न
लघु
उसे अगुरु-लघु कहते हैं, और वेदनीयकर्मके उदयके अभावसे उत्पन्न हुआ समस्त
बाधा रहित जो निराबाधगुण उसे अव्याबाध कहते हैं ये सम्यक्त्वादि आठ गुण जो सिद्धोंके
हैं, वे संसारावस्थामें किस किस कर्मसे ढँके हुए हैं, इसे कहते हैंसम्यक्त्व गुण मिथ्यात्वनाम
दर्शनमोहनीयकर्मसे आच्छादित है, केवलज्ञानावरणसे केवलज्ञान ढका हुआ है,
केवलदर्शनावरणसे केवलदर्शन ढका है, वीर्यान्तरायकर्मसे अनंतवीर्य ढका है, आयुःकर्मसे
सूक्ष्मत्वगुण ढका है, क्योंकि आयुकर्म उदयसे जब जीव परभवको जाता है, वहाँ इन्द्रियज्ञानका
धारक होता है, अतीन्द्रियज्ञानका अभाव होता है, इस कारण कुछ एक स्थूल वस्तुओंको तो
जानता है, सूक्ष्मको नहीं जानता, शरीरनामकर्मके उदयसे अवगाहनगुण आच्छादित है,
सिद्धावस्थाके योग्य विशेषरूप अगुरुलघुगुण नामकर्मके उदयसे अथवा गोत्रकर्मके उदयसे ढक
अधिकार-१ः दोहा-६१ ]परमात्मप्रकाशः [ १०९

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नीचगोत्रजनितं तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्वं प्रच्छाद्यत
इति
अव्याबाधगुणत्वं वेदनीयकर्मोदयेनेति संक्षेपेणाष्टगुणानां कर्मभिराच्छादनं ज्ञातव्यमिति
तदेव गुणाष्टकं मुक्तावस्थायां स्वकीयस्वकीयकर्मप्रच्छादनाभावे व्यक्तं भवतीति संक्षेपेणाष्टगुणाः
कथिताः
विशेषेण पुनरमूर्तत्वनिर्नामगोत्रादयः साधारणासाधारणरूपानन्तगुणाः
यथासंभवभागमाविरोधेन ज्ञातव्या इति अत्र सम्यक्त्वादिशुद्धगुणस्वरूपः शुद्धात्मैवोपादेय इति
भावार्थः ।।६१।।
अथ विषयकषायासक्तानां जीवानां ये कर्मपरमाणवः संबद्धा भवन्ति तत्कर्मेति
कथयति
तुच्छपणुं कहेवामां आवे छे. ते बन्नेना कारणरूप गोत्रकर्मना उदयथी विशिष्ट अगुरुलघुत्व
आच्छादित छे. अव्याबाधगुणपणुं वेदनीयकर्मना उदयथी आच्छादित छे. ए प्रमाणे संक्षेपथी
कर्मोथी आठ गुणोनुं आच्छादन जाणवुं. ते आठ गुणो मुक्त-अवस्थामां पोतपोताना कर्मना
आच्छादनना अभावमां व्यक्त थाय छे.
ए प्रमाणे संक्षेपथी आठ गुणो कह्या.
वळी विशेषमां अमूर्तपणुं, नामरहितपणुं गोत्ररहितपणुं आदि साधारण-असाधारणरूप
अनंत गुणो यथासंभव आगमथी अविरोधपणे जाणवा.
अहीं सम्यक्त्वादि शुद्धगुणस्वरूप शुद्धात्मा ज उपादेय छे एवो भावार्थ छे. ६१.
हवे विषयकषायमां आसक्त जीवोने जे कर्मपरमाणुओ बंधाय छे ते कर्म छे एम कहे
छेः
गया है, क्योंकि गोत्रकर्मके उदयसे जब जीव नीच गोत्र पाया, तब उसमें तुच्छ या लघु
कहलाया, और उच्च गोत्रमें बड़ा अर्थात् गुरु कहलाया और वेदनीयकर्मके उदयसे अव्याबाध
गुण ढक गया, क्योंकि उसके उदय साता-असातारूप सांसारिक सुख-दुःखका भोक्ता हुआ
इस प्रकार आठ गुण आठ कर्मोंसे ढक गये, इसलिये यह जीव संसारमें भ्रमा जब कर्मका
आवरण मिट जाता है, तब सिद्धपदमें ये आठ गुण प्रकट होते हैं यह संक्षेपसे आठ गुणोंका
कथन किया विशेषतासे अमूर्तत्व निर्नामगोत्रादिक अनंतगुण यथासम्भव शास्त्र-प्रमाणसे
जानने तात्पर्य यह है, कि सम्यक्त्वादि निज शुद्ध गुणस्वरूप जो शुद्धात्मा है, वही उपादेय
है ।।६१।।
आगे विषय-कषायोंमें लीन जीवोंके जो कर्मपरमाणुओंके समूह बँधते हैं, वे कर्म कहे
जाते हैं, ऐसा कहते हैं
११० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-६१

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अधिकार-१ः दोहा-६२ ]परमात्मप्रकाशः [ १११
गाथा६२
अन्वयार्थ :[विषयकषायैः ] विषय-कषायोंसे [रञ्जितानां ] रागी [मोहितानां ]
मोही जीवोंके [जीवप्रदेशेषु ] जीवके प्रदेशोंमें [ये अणवः ] जो परमाणु [लगंति ] लगते हैं,
बँधते हैं, [तान् ] उन परमाणुओंके स्कंधों (समूहों) को [जिनाः ] जिनेन्द्रदेव [कर्म ] कर्म
[भणंति ] कहते हैं
भावार्थ :शुद्ध आत्माकी अनुभूतिसे भिन्न जो विषयकषाय उनसे रँगे हुए आत्म-
ज्ञानके अभावसे उपार्जन किये हुए मोहकर्मके उदयकर परिणत हुए, ऐसे रागी, द्वेषी, मोही,
संसारी जीवोंके कर्मवर्गणा योग्य जो पुद्गलस्कंध हैं, वे ज्ञानावरणादि आठ प्रकार कर्मरूप
होकर परिणमते हैं
जैसे तेलसे शरीर चिकना होता है, और धूलि लगकर मैलरूप होके
परिणमती है, वैसे ही रागी, द्वेषी, मोही, जीवोंके विषय-कषाय-दशामें पुद्गलवर्गणा कर्मरूप
होके परिणमती हैं
जो कर्मोंका उपार्जन करते हैं, वही जब वीतराग निर्विकल्पसमाधिके समय
भावार्थःशुद्ध आत्मानी अनुभूतिथी विलक्षण विषयकषायथी रक्त अने स्वसंवेदनना
अभावथी उपार्जित करेला एवा मोहकर्मना उदयरूपे परिणमेला जीवोने कर्मवर्गणा योग्य स्कंधो,
जेवी रीते तेलथी लेपायेल शरीरमां धूळ लागीने मेलपर्यायरूप परिणमे छे तेवी रीते, अष्टविध
ज्ञानावरणादि कर्मरूपे परिणमे छे एवो अर्थ छे.
अहीं जे विषयकषायना काळे कर्मनुं उपार्जन करे छे ते परमात्मा वीतराग निर्विकल्प
६२) विसय-कसायहिँ रंगियहँ ते अणुया लग्गंति
जीव-पएसेहँ मोहियहँ ते जिण कम्म भणंति ।।६२।।
विषयकषायैः रञ्जितानां ये अणवः लगन्ति
जीवप्रदेशेषु मोहितानां तान् जिनाः कर्म भणन्ति ।।६२।।
विसयकसायहिं रंगियहं जे अणुया लग्गंति विषयकषायै रंगितानां रक्तानां ये परमाणवो
लग्ना भवन्ति जीवपएसिहिं मोहियहं ते जिण कम्म भणंति केषु लग्ना भवन्ति
जीवप्रदेशेषु केषाम् मोहितानां जीवानाम् तान् कर्मस्कन्धान् जिनाः कर्मेति कथयन्ति
तथाहि शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणैर्विषयकषायै रक्तानां स्वसंवित्त्यभावोपार्जितमोहकर्मोदयपरिणतानां
च जीवानां कर्मवर्गणायोग्यस्कन्धास्तैलम्रक्षितानां मलपर्यायवदष्टविधज्ञानावरणादिकर्मरूपेण
परिणमन्तीत्यर्थः
।। अत्र य एव विषयकषायकाले कर्मोपार्जनं करोति स एव परमात्मा
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले साक्षादुपादेयो भवतीति तात्पर्यार्थः ।।६२।। इति कर्मस्वरूप-

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११२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-६३
कर्मोंका क्षय करते हैं, तब आराधने योग्य हैं, यह तात्पर्य हुआ ।।६२।।
इसप्रकार कर्मस्वरूपके कथनकी मुख्यतासे चार दोहे कहे आगे पाँच इन्द्रिय, मन,
समस्त विभाव और चार गतिके दुःख ये सब शुद्ध निश्चयनयकर कर्मसे उपजे हैं, जीवके नहीं
हैं, यह अभिप्राय मनमें रखकर दोहा-सूत्र कहते हैं
गाथा६३
अन्वयार्थ :[पंचापि ] पाँचों ही [इन्द्रियाणि ] इन्द्रियाँ [अन्यत् ] भिन्न हैं,
[मनः ] मन [अपि ] और [सकलविभावः ] रागादि सब विभाव परिणाम [अन्यत् ] अन्य हैं,
[चतुर्गतितापाः अपि ] तथा चारों गतियोंके दुःख भी [अन्यत् ] अन्य हैं, [जीव ] हे जीव,
ये सब [जीवानां ] जीवोंके [कर्मणा ] कर्मकर [जनिताः ] उपजे हैं, जीवसे भिन्न हैं, ऐसा
जान
भावार्थ :इन्द्रिय रहित शुद्धात्मासे विपरीत जो स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियाँ, शुभ
समाधिकाळे साक्षात् उपादेय छे, एवो तात्पर्यार्थ छे. ६२.
ए प्रमाणे कर्मस्वरूपना कथननी मुख्यताथी चार सूत्रो समाप्त थयां.
हवे, पांच इन्द्रिय, मन, समस्त विभाव अने चार गतिना संतापो शुद्ध निश्चयनयथी
कर्मजनित छे एवो अभिप्राय मनमां राखीने सूत्र कहे छेः
भावार्थःअतीन्द्रिय शुद्ध आत्माथी विपरीत जे पांच इन्द्रियो, शुभाशुभ संकल्प
कथनमुख्यत्वेन सूत्रचतुष्टयं गतम् ।।
अथापीन्द्रियचित्तसमस्तविभावचतुर्गतिसंतापाः शुद्धनिश्चयनयेन कर्मजनिता इत्यभिप्रायं
मनसि धृत्वा सूत्रं कथयन्ति
६३) पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयलविभाव
जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइताव ।।६३।।
पञ्चापि इन्द्रियाणि अन्यत् मनः अन्यदपि सकलविभावः
जीवानां कर्मणा जनिताः जीव अन्यदपि चतुर्गतितापाः ।।६३।।
पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयलविभाव पञ्चेन्द्रियाणि अन्यन्मनः अन्यदपि
पुनरपि समस्तविभावः जीवहं कम्मइं जणिय जिय अण्णु वि चउगइताव एते जीवानां कर्मणा

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अधिकार-१ः दोहा-६३ ]परमात्मप्रकाशः [ ११३
-अशुभ संकल्प-विकल्पसे रहित आत्मासे विपरीत अनेक संकल्प-विकल्पसमूहरूप जो मन
और शुद्धात्मतत्त्वकी अनुभूतिसे भिन्न जो राग, द्वेष, मोहादिरूप सब विभाव ये सब आत्मासे
जुदे हैं, तथा वीतराग परमानन्दसुखरूप अमृतसे पराङ्मुख जो समस्त चतुर्गतिके महान
दुःखदायी दुःख वे सब जीवपदार्थसे भिन्न हैं
ये सभी अशुद्धनिश्चयनयकर आत्म-ज्ञानके
अभावसे उपार्जन किये हुए कर्मोंसे जीवके उत्पन्न हुए हैं इसलिये ये सब अपने नहीं हैं,
कर्मजनित हैं यहाँ पर परमात्म-द्रव्यसे विपरीत जो पाँचों इन्द्रियोंको आदि लेकर सब
विकल्प-जाल हैं, वे तो त्यागने योग्य हैं, उससे विपरीत पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंकी
अभिलाषाको आदि लेकर सब विकल्प-जालोंसे रहित अपना शुद्धात्मतत्त्व वही परमसमाधिके
समय साक्षात् उपादेय है
यह तात्पर्य जानना ।।६३।।
आगे संसारके सब सुख-दुःख शुद्ध निश्चयनयसे शुभ-अशुभ कर्मोंकर उत्पन्न होते हैं,
और कर्मोंको ही उपजाते हैं, जीवके नहीं है, ऐसा कहते हैं
विकल्पथी रहित आत्माथी विपरीत अनेक संकल्प विकल्पनी जाळरूप जे मन अने शुद्ध आत्मानी
अनुभूतिथी विलक्षण जे समस्त विभावपर्यायो अने जे वीतराग परमानंदरूप सुखामृतथी प्रतिकूळ
चारगतिना समस्त संतापो
दुःखना दाहो ए सर्व अशुद्ध निश्चयनयथी स्वसंवेदनना अभावथी
उपार्जेला कर्मथी जीवोने उत्पन्न थयां छे.
अहीं, परमात्मद्रव्यथी प्रतिकूळ जे पंचेन्द्रियादि समस्त विकल्पजाळ छे ते हेय छे, तेनाथी
विपरीत पंचेन्द्रिय विषयनी अभिलाषादि समस्त विकल्पथी रहित एवुं स्वशुद्धात्मतत्त्व परम
समाधिना समये साक्षात् उपादेय छे, एवो भावार्थ छे. ६३.
हवे, शुद्ध निश्चयनयथी जीवोना सांसारिक समस्त सुख-दुःखोने कर्म उत्पन्न करे छे. एम
कहे छेः
जनिता हे जीव, न केवलमेते अन्यदपि पुनरपि चतुर्गतिसंतापास्ते कर्मजनिता इति तद्यथा
अतीन्द्रियात् शुद्धात्मनो यानि विपरीतानि पञ्चेन्द्रियाणि, शुभाशुभसंकल्पविकल्परहितात्मनो यद्
विपरीतमनेकसंकल्पविकल्पजालरूपं मनः, ये च शुद्धात्मतत्त्वानुभूतेर्विलक्षणाः समस्तविभाव-
पर्यायाः, वीतरागपरमानन्दसुखामृतप्रतिकूलाः समस्तचतुर्गतिसंतापाः दुःखदाहाश्चेति सर्वेऽप्येते
अशुद्धनिश्चयनयेन स्वसंवेद्याभावोपार्जितेन कर्मणा निर्मिता जीवानामिति
अत्र परमात्म-
द्रव्यात्प्रतिकूलं यत्पञ्चेन्द्रियादिसमस्तविकल्पजालं तद्धेयं तद्विपरीतं स्वशुद्धात्मतत्त्वं पञ्चेन्द्रिय-
विषयाभिलाषादिसमस्तविकल्परहितं परमसमाधिकाले साक्षादुपादेयमिति भावार्थः
।।६३।।
अथ सांसारिकसमस्तसुखदुःखानि शुद्धनिश्चयनयेन जीवानां कर्म जनयतीति
निरूपयति

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११४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-६४
गाथा६४
अन्वयार्थ :[जीवानां ] जीवोंके [बहुविधं ] अनेक तरहके [दुःखमपि सुखं अपि ]
दुःख और सुख दोनों ही [कर्म ] कर्म ही [जनयति ] उपजाता है [आत्मा ] और आत्मा
[पश्यति ] उपयोगमयी होनेसे देखता है, [परं मनुते ] और केवल जानता है, [एवं ] इस प्रकार
[निश्चयः ] निश्चयनय [भणति ] कहता है, अर्थात् निश्चयनयसे भगवान्ने ऐसा कहा है
भावार्थ :आकु लता रहित पारमार्थिक वीतराग सुखसे पराङ्मुख (उलटा) जो
संसारके सुख-दुःख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनयकर जीव सम्बन्धी है, तो भी शुद्ध निश्चयनयकर
जीवने उपजाये नहीं हैं, इसलिये जीवके नहीं हैं, कर्म-संयोगकर उत्पन्न हुए हैं और आत्मा तो
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें स्थिर हुआ वस्तुको वस्तुके स्वरूप देखता है, जानता है,
रागादिकरूप नहीं होता, उपयोगरूप है, ज्ञाता द्रष्टा है, परम आनंदरूप है
यहाँ पारमार्थिक
सुखसे उलटा जो इन्द्रियजनित संसारका सुख-दुःख आदि विकल्प समूह है वह त्यागने योग्य
भावार्थःअनाकुळता जेनुं लक्षण छे एवा पारमार्थिक वीतराग सुखथी प्रतिकूळ
सांसारिक सुख-दुःख जो के अशुद्ध निश्चयनयथी जीवजनित छे तोपण शुद्ध निश्चयनयथी कर्मजनित
छे, अने आत्मा वीतराग निर्विकल्प समाधिस्थ थयेलो, वस्तुने वस्तुस्वरूपे देखे-जाणे छे पण
रागादि करतो नथी.
अहीं, पारमार्थिक सुखथी विपरीत सांसारिक सुख-दुःखरूप विकल्पजाळ हेय छे, एवो
६४) दुक्खु वि सुक्खु वि बहुविहउ जीवहँ कम्मु जणेइ
अप्पा देक्खइ मुणइ पर णिच्छउ एउँ भणेइ ।।६४।।
दुःखमपि सुखमपि बहुविधं जीवानां कर्म जनयति
आत्मा पश्यति मनुते परं निश्चयः एवं भणति ।।६४।।
दुक्खु वि सुक्खु वि बहुविहउ जीवहं कम्मु जणेइ दुःखमपि सुखमपि कथंभूतम्
बहुविधं जीवानां कर्म जनयति अप्पा देक्खइ मुणइ पर णिच्छउ एउं भणेइ आत्मा पुनः
पश्यति जानाति परं नियमेन निश्चयनयः एवं ब्रुवते इति तथाहिअनाकुल-
त्वलक्षणपारमार्थिकवीतरागसौख्यात् प्रतिकूलं सांसारिकसुखदुःखं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं
तथापि शुद्धनिश्चयेन कर्मजनितं भवति
आत्मा पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थः सन् वस्तु
वस्तुस्वरूपेण पश्यति जानाति च न च रागादिकं करोति अत्र पारमार्थिकसुखाद्विपरीतं

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अधिकार-१ः दोहा-६५ ]परमात्मप्रकाशः [ ११५
है, ऐसा भगवान्ने कहा है, यह तात्पर्य है ।।६४।।
आगे निश्चयनयकर बन्ध और मोक्ष कर्मजनित ही है, कर्मके योगसे बन्ध और कर्मके
वियोगसे मोक्ष है, ऐसा कहते हैं
गाथा६५
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव [बंधमपि ] बंधको [मोक्षमपि ] और मोक्षको
[सकलं ] सबको [जीवानां ] जीवोंके [कर्म ] कर्म ही [जनयति ] करता है, [आत्मा ] आत्मा
[किमपि ] कुछ भी [नैव करोति ] नहीं करता, [निश्चयः ] निश्चयनय [एवं ] ऐसा [भणति ]
कहता है, अर्थात् निश्चयनयसे भगवान्ने ऐसा कहा है
भावार्थ :अनादि कालकी संबंधवाली अयथार्थस्वरूप अनुपचरितासद्भूत-
व्यवहारनयसे ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मबंध और अशुद्धनिश्चयनयसे रागादि भावकर्मके बंधको तथा
दोनों नयोंसे द्रव्यकर्म भावकर्मकी मुक्तिको यद्यपि जीव करता है, तो भी शुद्धपारिणामिक
तात्पर्यार्थ छे. ६४.
हवे, निश्चयनयथी बंधमोक्ष कर्म करे छे, एम कहे छेः
भावार्थःअनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयथी द्रव्यबंध तेमज अशुद्ध
निश्चयनयथी भावबंध तथा बन्ने नयोथी द्रव्यभावरूप मोक्षने पण जो के जीव करे छे तोपण
शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक शुद्धनिश्चयनयथी करतो ज नथी, एम निश्चयनय कहे छे.
सांसारिकसुखदुःखविकल्पजालं हेयमिति तात्पर्यार्थः ।।६४।।
अथ निश्चयेन बंधमोक्षौ कर्म करोतीति प्रतिपादयति
६५) बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ
अप्पा किंपि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भणेइ ।।६५।।
बन्धमपि मोक्षमपि सकलं जीव जीवानां कर्म जनयति
आत्मा किमपि करोति नैव निश्चय एवं भणति ।।६५।।
बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहं कम्मु जणेइ बन्धमपि मोक्षमपि समस्तं हे जीव
जीवानां कर्म कर्तृ जनयति अप्पा किंपि [किंचि] वि कुणइ णवि णिच्छउ एउं भणेइ आत्मा
किमपि न करोति बन्धमोक्षस्वरूपं निश्चय एवं भणति
तद्यथा अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण
द्रव्यबन्धं तथैवाशुद्धनिश्चयेन भावबन्धं तथा नयद्वयेन द्रव्यभावमोक्षमपि यद्यपि जीवः करोति

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११६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-६०५
परमभावके ग्रहण करनेवाले शुद्धनिश्चयनयसे नहीं करता है, बंध और मोक्षसे रहित है, ऐसा
भगवानने कहा है
यहाँ जो शुद्धनिश्चयनयकर बंध और मोक्षका कर्ता नहीं, वही शुद्धात्मा
आराधने योग्य है ।।६५।।
आगे दोहा-सूत्रोंकी स्थल-संख्यासे बाहर उक्तं च स्वरूप प्रक्षेपकको कहते हैं
गाथा६५
अन्वयार्थ :[अत्र ? ] इस जगतमें [स (कः अपि) ] ऐसा कोई भी [प्रदेशः
नास्ति ] प्रदेश (स्थान) नहीं है, कि [यत्र ] जिस जगह [चतुरशीतियोनिलक्षमध्ये ] चौरासी
लाख योनियोंमें होकर [जिनवचनं न लभमानः ] जिन-वचनको नहीं प्राप्त करता हुआ
[जीवः ] यह जीव [न भ्रमितः ] नहीं भटका
भावार्थ :इस जगतमें कोई ऐसा स्थान नहीं रहा, जहाँपर यह जीव निश्चय व्यवहार
रत्नत्रयको कहनेवाले जिन वचनको नहीं पाता हुआ अनादि कालसे चौरासी लाख योनियोंमें
अहीं, जे शुद्धनिश्चयनयथी बंधमोक्षने करतो नथी ते ज शुद्ध आत्मा उपादेय छे, एवो
भावार्थ छे. ६५.
हवे दोहा-सूत्रोनी स्थलसंख्याथी बहार प्रक्षेपकने कहे छेः
भावार्थःआ जगतमां एवो कोई पण प्रदेश नथी के ज्यां चोराशीलाख योनिमां-
तथापि शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेन शुद्धनिश्चयनयेन न करोत्येवं भणति कोऽसौ निश्चय
इति अत्र य एव शुद्धनिश्चयेन बन्धमोक्षौ न करोति स एव शुद्धात्मोपादेय इति
भावार्थः ।।६५।।
अथ स्थलसंख्याबाह्यं प्रक्षेपकं कथयति
६५) सो णत्थि त्ति पएसो चउरासीजोणिलक्खमज्झम्मि
जिण वयणं ण लहंतो जत्थ ण डुलुडुल्लिओ जीवो ।।६५।।
स नास्ति इति प्रदेशः चतुरशीतियोनिलक्षमध्ये
जिनवचनं न लभमानः यत्र न भ्रमितः जीवः ।।६५।।
सो णत्थि त्ति पएसो स प्रदेशो नास्त्यत्र जगति स किम् चउरासी-
जोणिलक्खमज्झम्मि जिणवयणं ण लहंतो जत्थ ण डुलुडुल्लिओ जीवो चतुरशीतियोनिलक्षेषु
मध्ये भूत्वा जिनवचनमलभमानो यत्र न भ्रमितो जीव इति
तथाहि भेदाभेदरत्नत्रयप्रति-

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अधिकार-१ः दोहा-६६ ]परमात्मप्रकाशः [ ११७
होकर न घूमा हो, अर्थात् जिन वचनकी प्रतीति न करनेसे सब जगह और सब योनियोंमें भ्रमण
किया, जन्म-मरण किये
यहाँ यह तात्पर्य है, कि जिन-वचनके न पानेसे यह जीव जगत्में
भ्रमा, इसलिये जिन-वचन ही आराधने योग्य है ।।६५।।
आगे आत्मा पङ्गु (लंगड़े) की तरह आप न तो कहीं जाता है, और न आता है, कर्म
ही इसको ले जाते है, और ले आते हैं, ऐसा कहते हैं
गाथा६६
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [आत्मा ] यह आत्मा [पङ्गोः अनुहरति ] पंगुके
समान है, [आत्मा ] आप [न याति ] न कहीं जाता है, [न आयाति ] न आता है [भुवनत्रयस्य
अपि मध्ये ] तीनों लोकमें इस जीवको [विधिः ] कर्म ही [नयति ] ले जाता है, [विधिः ]
कर्म ही [आनयति ] ले आता है
उपजीने-भेदाभेदरत्नत्रयना प्रतिपादक जिनवचनने नहि प्राप्त करतो आ जीव अनादिकाळथी न
भम्यो होय.
अहीं, भेदाभेदरत्नत्रयना प्रतिपादक जे जिनवचनने नहि प्राप्त करतो जीव भटक्यो. ते
जिनवचन उपादेयभूत आत्मसुखनुं प्रतिपादक होवाथी उपादेय छे, एवो तात्पर्यार्थ छे. ६५१.
हवे, आत्मा पांगळा माणसनी जेम स्वयं जतो नथी के आवतो नथी, कर्म ज तेने लावे
छे, लई जाय छे एम कहे छेः
पादकं जिनवचनमलभमानः सन्नयं जीवोऽनादिकाले यत्र चतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये भूत्वा न
भ्रमितः सोऽत्र कोऽपि प्रदेशो नास्ति इति
अत्र यदेव भेदाभेदरत्नत्रयप्रतिपादकं
जिनवचनमलभमानो भ्रमितो जीवस्तदेवोपादेयात्मसुखप्रतिपादकत्वादुपादेयमिति
तात्पर्यार्थः
।।६५।।
अथात्मा पङ्गुवत् स्वयं न याति न चैति कर्मैव नयत्यानयति चेति कथयति
६६) अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ
भुवणत्तयहँ वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ ।।६६।।
आत्मा पङ्गोः अनुहरति आत्मा न याति न आयाति
भुवनत्रयस्य अपि मध्ये जीव विधिः आनयति विधिः नयति ।।६६।।
अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ आत्मा पङ्गोरनुहरति सद्रशो भवति

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११८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-६६
भावार्थ :यह आत्मा शुद्ध निश्चयनयसे अनंतवीर्य (बल) का धारण करनेवाला होनेसे
शुभ-अशुभ कर्मरूप बंधनसे रहित है, तो भी व्यवहारनयसे इस अनादि संसारमें निज शुद्धात्माकी
भावनासे विमुख जो मन, वचन, काय इन तीनोंसे उपार्जे कर्मोंकर उत्पन्न हुए पुण्य-पापरूप
बँधनोंकर अच्छी तरह बँधा हुआ पंगुके समान आप ही न कहीं जाता है, न कहीं आता है
जैसे
बंदीवान आपसे न कहीं जाता है और न कहीं आता है, चौकीदारोंकर ले जाया जाता है, और
आता है, आप तो पंगुके समान है
वही आत्मा परमात्माकी प्राप्तिके रोकनेवाले चतुर्गतिरूप
संसारके कारणस्वरूप कर्मोंकर तीन जगत्में गमन-आगमन करता है, एक गतिसे दूसरी गतिमें
जाता है
यहाँ सारांश यह हैं, कि वीतराग परम आनंदरूप तथा सब तरह उपादेयरूप परमात्मासे
(अपने स्वरूपसे) भिन्न जो शुभ-अशुभ कर्म हैं, वे त्यागने योग्य हैं ।।६६।।
इसप्रकार कर्मकी शक्तिके स्वरूपके कहनेकी मुख्यतासे आठवें स्थलमें आठ दोहे
भावार्थःआ आत्मा शुद्धनिश्चयनयथी अनंतवीर्यवाळो होवाथी शुभाशुभकर्मरूप
बंधनद्वयथी रहित होवा छतां व्यवहारनयथी अनादि संसारमां स्वशुद्धात्मानी भावनाना
प्रतिबंधक मन, वचन, काय ए त्रणथी उपार्जित करेला कर्मथी रचायेल पुण्य
पापरूप बंधनद्वयथी
द्रढतर बंधायेलो थको पांगळा जेवो थईने स्वयं जतो नथी अने आवतो नथी, पण ते आत्माने
परमात्मानी प्राप्तिनी प्रतिपक्षभूत विधिथी, शब्दथी कहेवाता कर्मथी त्रण लोकमां लई जवाय छे
अने लाववामां आवे छे.
अहीं, वीतराग सदानंद जेनुं एक रूप छे एवो सर्व प्रकारे उपादेयभूत परमात्माथी
जे शुभाशुभ कर्मद्वय भिन्न छे ते हेय छे, एवो भावार्थ छे. ६६.
ए प्रमाणे कर्मशक्तिना स्वरूपना कथननी मुख्यताथी आठमा स्थळमां आठ दोहकसूत्रो
समाप्त थयां.
अयमात्मा न याति न चागच्छति क्व भुवणत्तयहं वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि
णेइ भुवनत्रयस्यापि मध्ये हे जीव विधिरानयति विधिर्नयतीति तद्यथा अयमात्मा
शुद्धनिश्चयेनानन्तवीर्यत्वात् शुभाशुभकर्मरूपनिगलद्वयरहितोऽपि व्यवहारेण अनादिसंसारे
स्वशुद्धात्मभावनाप्रतिबन्धकेन मनोवचनकायत्रयेणोपार्जितेन कर्मणा निर्मितेन पुण्यपाप-
निगलद्वयेन
द्रढतरं बद्धः सन् पङ्गुवद्भूत्वा स्वयं न याति न चागच्छति स एवात्मा
परमात्मोपलम्भप्रतिपक्षभूतेन विधिशब्दवाच्येन कर्मणा भुवनत्रये नीयते तथैवानीयते चेति अत्र
वीतरागसदानन्दैकरूपात्सर्वप्रकारोपादेयभूतात्परमात्मनो यद्भिन्नं शुभाशुभकर्मद्वयं तद्धेयमिति
भावार्थः
।।६६।। इति कर्मशक्ति स्वरूपकथनमुख्यत्वेनाष्टमस्थस्ले सूत्राष्टकं गतम्
१. पाठान्तरःअयमात्मा = स्वयमात्मा

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अधिकार-१ः दोहा-६७ ]परमात्मप्रकाशः [ ११९
कहे इससे आगे भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनाकी मुख्यतासे जुदे जुदे स्वतन्त्र नौ सूत्र कहते हैं
गाथा६७
अन्वयार्थ :[आत्मा ] निजवस्तु [आत्मा एव ] आत्मा ही है, [परः ] देहादि पदार्थ
[परः एव ] पर ही हैं, [आत्मा ] आत्मा तो [परः न एव ] परद्रव्य नहीं [भवति ] होता, [पर
एव ] और परद्रव्य भी [कदाचिदपि ] कभी [आत्मा नैव ] आत्मा नहीं होता, ऐसा [नियमेन ]
निश्चयकर [योगिनः ] योगीश्वर [प्रभणन्ति ] कहते हैं
भावार्थ :शुद्धात्मा तो केवलज्ञानादि स्वभाव है, जड़रूप नहीं है, उपाधिरूप नहीं
है, शुद्धात्मस्वरूप ही है पर जो काम-क्रोधादि पर वस्तु भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म हैं, वे
पर ही हैं, अपने नहीं है, जो यह आत्मा संसार-अवस्थामें यद्यपि अशुद्धनिश्चयनयकर काम
क्रोधादिरूप हो गया है, तो भी परमभावके ग्राहक शुद्धनिश्चयनयकर अपने ज्ञानादि निजभावको
छोड़कर काम क्रोधादिरूप नहीं होता, अर्थात् निजभावरूप ही है
ये रागादि विभावपरिणाम
त्यार पछी भेदाभेद भावनानी मुख्यताथी पृथक् पृथक् स्वतंत्र नव गाथा सूत्रो कहे
छेः
भावार्थःकेवळज्ञानादि जेनो स्वभाव छे एवो शुद्धात्मा ते शुद्ध आत्मा ज छे,
कामक्रोधादि जेनो स्वभाव छे एवो पर ते पर ज छे. पूर्वोक्त परमात्मा नामनो शुद्धात्मा तेना
एक (केवळ) स्वभावने छोडीने कामक्रोधादिरूप थतो नथी, कामक्रोधादि पर कोई पण समये
अत ऊर्ध्वं भेदाभेदभावनामुख्यतया पृथक् पृथक् स्वतन्त्रसूत्रनवकं कथयति
६७) अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जि ण होइ
परु जि कयाइ वि अप्पु णवि णियमेँ पभणहिं जोई ।।६७।।
आत्मा आत्मा एव परः एव परः आत्मा परः एव न भवति
पर एव कदाचिदपि आत्मा नैव नियमेन प्रभणन्ति योगिनः ।।६७।।
अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जि ण होइ आत्मात्मैव पर एव
परः आत्मा पर एव न भवति परु जि कयाइ वि अप्पु णवि णियमें पभणहिं जोइ
पर एव कदाचिदप्यात्मा नैव भवति नियमेन निश्चयेन भणन्ति कथयन्ति के कथयन्ति
परमयोगिन इति तथाहि शुद्धात्मा केवलज्ञानादिस्वभावः शुद्धात्मात्मैव परः कामक्रोधादि-
स्वभावः पर एव पूर्वोक्त : परमात्माभिधानं तदैकस्वस्वभावं त्यक्त्वा कामक्रोधादिरूपो न

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१२० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-६८
उपाधिक हैं, परके संबंधसे हैं, निजभाव नहीं हैं, इसलिये आत्मा कभी इन रागादिरूप नहीं
होता, ऐसा योगीश्वर कहते हैं
यहाँ उपादेयरूप मोक्ष-सुख (अतीन्द्रिय सुख) से तन्मय और
काम-क्रोधादिकसे भिन्न जो शुद्धात्मा है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है ।।६७।।
आगे शुद्धनिश्चयनयकर आत्मा जन्म, मरण, बन्ध और मोक्षको नहीं करता है, जैसा
है वैसा ही है, ऐसा निरूपण करते हैं
गाथा६८
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगीश्वर, [परमार्थेन ] निश्चयनयकर विचारा जावे, तो
[जीवः ] यह जीव [नापि उत्पद्यते ] न तो उत्पन्न होता है, [नापि म्रियते ] न मरता है [च ]
और [न बन्धं मोक्षं ] न बंध मोक्षको [करोति ] करता है, अर्थात् शुद्धनिश्चयनयसे बन्ध-
मोक्षसे रहित है, [एवं ] ऐसा [जिनवरः ] जिनेन्द्रदेव [भणति ] कहते हैं
भावार्थ :यद्यपि यह आत्मा शुद्धात्मानुभूतिके अभावके होने पर शुभ-अशुभ
शुद्धआत्मारूप थतां नथी, एम परमयोगीओ कहे छे.
अहीं, उपादेयभूत मोक्षसुखथी अभिन्न अने कामक्रोधादिथी भिन्न जे शुद्धात्मा छे ते
ज उपादेय छे, एवो तात्पर्यार्थ छे. ६७.
हवे, शुद्धनिश्चयनयथी आत्मा जन्म, मरण, बंध अने मोक्षने करतो नथी, एम कहे
छेः
भावार्थःजो के आत्मा शुद्ध आत्मानी अनुभूतिनो अभाव होतां, शुभाशुभ
भवति कामक्रोधादिरूपः परः क्वापि काले शुद्धात्मा न भवतीति परमयोगिनः कथयन्ति
अत्र मोक्षसुखादुपादेयभूतादभिन्नः कामक्रोधादिभ्यो भिन्नो यः शुद्धात्मा स एवोपादेय इति
तात्पर्यार्थः
।।६७।।
अथ शुद्धनिश्चयेननोत्पत्तिं मरणं बन्धमोक्षौ च न करोत्यात्मेति प्रतिपादयति
६८) ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ
जिउ परमत्थेँ जोइया जिणवरु एउँ भणेइ ।।६८।।
नापि उत्पद्यते नापि म्रियते बन्धं न मोक्षं करोति
जीवः परमार्थेन योगिन् जिनवरः एवं भणति ।।६८।।
नाप्युत्पद्यते नापि म्रियते बन्धं मोक्षं च न करोति कोऽसौ कर्ता जीवः केन

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अधिकार-१ः दोहा-६८ ]परमात्मप्रकाशः [ १२१
उपयोगोंसे परिणमन करके जीवन, मरण, शुभ, अशुभ, कर्मबंधको करता है, और
शुद्धात्मानुभूतिके प्रगट होने पर शुद्धोपयोगसे परिणत होकर मोक्षको करता है, तो भी शुद्ध
पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनयकर न बंधका कर्ता है और न मोक्षका कर्ता
है
ऐसा कथन सुनकर शिष्यने प्रश्न किया, कि हे प्रभो, शुद्धद्रव्यार्थिकस्वरूप
शुद्धनिश्चयनयकर मोक्षका भी कर्ता नहीं है, तो ऐसा समझना चाहिये, कि शुद्धनयकर मोक्ष
ही नहीं है, जब मोक्ष नहीं, तब मोक्षके लिये यत्न करना वृथा है
उसका उत्तर कहते हैं
मोक्ष है, वह बंधपूर्वक है, और बंध है, वह शुद्धनिश्चयनयकर होता ही नहीं, इस कारण बंधके
अभावरूप मोक्ष है, वह भी शुद्धनिश्चयनयकर नहीं है
जो शुद्धनिश्चयनयसे बंध होता, तो हमेशा
बंधा ही रहता, कभी बंधका अभाव न होता इसके बारेमें दृष्टांत कहते हैंकोई एक पुरुष
साँकलसे बँध रहा है, और कोई एक पुरुष बंध रहित हैं, उनमेंसे जो पहले बंधा था, उसको
उपयोगरूपे परिणमीने जन्म, मरण अने शुभ-अशुभ बंधने करे छे, अने शुद्ध आत्मानी
अनुभूतिना सद्भावमां शुद्ध उपयोगरूपे परिणमीने मोक्ष पण करे छे तोपण शुद्ध पारिणामिक
परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी जन्ममरण अने बंधमोक्षने करतो नथी.
अहीं, शिष्य प्रश्न पूछे छेःजो शुद्धद्रव्यार्थिकनयरूप शुद्धनिश्चयनयथी मोक्षने करतो
नथी तो शुद्धनयथी मोक्ष नथी, तो पछी तेने माटे अनुष्ठान करवुं वृथा छे?
तेनो परिहार :मोक्ष खरेखर बंधपूर्वक छे अने शुद्धनिश्चयनयथी तो ते बंध पण
नथी, ते कारणे बंधना प्रतिपक्षभूत एवो मोक्ष ते पण शुद्धनिश्चयनयथी नथी. वळी जो
शुद्धनिश्चयनयथी बंध होय तो सर्वदा बंध ज रहे. आ विषयना समर्थनमां द्रष्टांत कहे छेः
कोई एक पुरुष सांकळथी बंधायो छे अने बीजो बंधन रहित छे. जे बंधायो छे तेने ‘छूट्यो’
एवो व्यवहार घटे छे. बीजा पुरुषने (जे पहेलेथी बंधायो ज नथी तेने) तमे ‘छूट्या’ एम जो
कहेवामां आवे तो ते क्रोध करे छे, कारण के बंध नथी तो पछी मोक्षनुं वचन कई रीते घटे? तेवी
परमार्थेन हे योगिन् जिनवर एवं ब्रूते कथयति तथाहि यद्यप्यात्मा शुद्धात्मानुभूत्यभावे सति
शुभाशुभोपयोगाभ्यां परिणम्य जीवितमरणशुभाशुभबन्धान् करोति शुद्धात्मानुभूतिसद्भावे तु
शुद्धोपयोगेन परिणम्य मोक्षं च करोति तथापि शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण
शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन न करोति
अत्राह शिष्यः यदि शुद्धद्रव्यार्थिकलक्षणेन शुद्धनिश्चयेन मोक्षं
च न करोति तर्हि शुद्धनयेन मोक्षो नास्तीति तदर्थमनुष्ठानं वृथा परिहारमाह मोक्षो हि
बन्धपूर्वकः, स च बन्धः शुद्धनिश्चयेन नास्ति, तेन कारणेन बन्धप्रतिपक्षभूतो मोक्षः सोऽपि
शुद्धनिश्चयेन नास्ति
यदि पुनः शुद्धनिश्चयेन बन्धो भवति तदा सर्वदैव बन्ध एव
अस्मिन्नर्थे द्रष्टान्तमाह एकः कोऽपि पुरुषः शृङ्खलाबद्धस्तिष्ठति द्वितीयस्तु

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१२२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-६९
तो ‘मुक्त’ (छूटा) ऐसा कहना, ठीक मालूम पड़ता है और दूसरा जो बंधा ही नहीं, उसको
जो ‘आप छूट गये’ ऐसा कहा जाय, तो वह क्रोध करे, कि मैं कब बँधा था, सो यह मुझे
‘छूटा’ कहता है, बँधा होवे, वह छूटे, इसलिये बँधेको तो मोक्ष कहना ठीक है, और बँधा
ही न हो, उसे छूटे कैसे कह सकते हैं ? उसीप्रकार यह जीव शुद्धनिश्चयनयकर बँधा हुआ
नहीं है, इस कारण मुक्त कहना ठीक नहीं है
बंध भी व्यवहारनयकर है, बंध भी
व्यवहारनयकर और मुक्ति भी व्यवहारनयकर है, शुद्धनिश्चयनयकर न बंध है, न मोक्ष है, और
अशुद्धनयकर बंध है, इसलिये बंधके नाशका यत्न भी अवश्य करना चाहिये
यहाँ यह
अभिप्राय है, कि सिद्ध समान यह अपना शुद्धात्मा वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें लीन पुरुषोंको
उपादेय है, अन्य सब हेय हैं
।।६८।।
आगे निश्चयनयकर जीवके जन्म, जरा, मरण, रोग, लिंग, वर्ण, और संज्ञा नहीं है, आत्मा
इन सब विकारोंसे रहित है, ऐसा कहते हैं
गाथा६९
अन्वयार्थ :[आत्मन् ] हे जीव आत्माराम, [जीवस्य ] जीवके [उद्भवः न ] जन्म
रीते शुद्धनिश्चयनयथी जीवने पण बंधना अभावमां ‘मुक्त’ एवुं वचन पण घटतुं नथी.
अहीं सिद्ध समान पोतानो शुद्ध आत्मा वीतराग निर्विकल्प समाधिरत पुरुषोने उपादेय
छे. एवो भावार्थ छे. ६८.
हवे निश्चयनयथी जीवने जन्म, जरा, मरण, रोग, लिंग, वर्ण, संज्ञा नथी एम कहे छेः
बन्धनरहितस्तिष्ठति यस्य बन्धभावो मुक्त इति व्यवहारो घटते, द्वितीयं प्रति मोक्षो जातो
भवत इति यदि भण्यते तदा कोपं करोति
कस्माद्वन्धाभावे मोक्षवचनं कथं घटते इति
तथा जीवस्यापि शुद्धनिश्चयेन बन्धाभावे मुक्त वचनं न घटते इति अत्र
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतो मुक्त जीवसद्रशः स्वशुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ।।६८।।
अथ निश्चयनयेन जीवस्योद्भवजरामरणरोगलिङ्गवर्णसंज्ञा नास्तीति कथयति
६९) अत्थि ण उब्भउ जर - मरणु रोय वि लिंग वि वण्ण
णियमिं अप्पु वियाणि तुहुँ जीवहँ एक्क वि सण्ण ।।६९।।
अस्ति न उद्भवः जरामरणं रोगाः अपि लिङ्गान्यपि वर्णाः
नियमेन आत्मन् विजानीहि त्वं जीवस्य एकापि संज्ञा ।।६९।।

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अधिकार-१ः दोहा-६९ ]परमात्मप्रकाशः [ १२३
नहीं [अस्ति ] है, [जरामरणंः ] जरा (बुढ़ापा) मरण [रोगाः अपि ] रोग [लिंगान्यपि ] चिन्ह
[वर्णाः ] वर्ण [एका संज्ञा अपि ] आहारादिक एक भी संज्ञा वा नाम नहीं है, ऐसा [त्वं ]
तू [नियमेन ] निश्चयकर [विजानीहि ] जान
भावार्थ :वीतराग निर्विकल्पसमाधिसे विपरीत जो क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि
विभावपरिणाम उनकर उपार्जन किये कर्मोंके उदयसे उत्पन्न हुए जन्म-मरण आदि अनेक
विकार है, वे शुद्धनिश्चयनयकर जीवके नहीं हैं, क्योंकि निश्चयनयकर आत्मा केवलज्ञानादि
अनंत गुणाकर पूर्ण है, और अनादि-संतानसे प्राप्त जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, स्त्री,
पुरुष, नपुंसकलिंग, सफे द काला वर्ण, वगैर आहार, भय, मैथुन, परिग्रहरूप संज्ञा इन सबोंसे
भिन्न है
यहाँ उपादेयरूप अनंतसुखका धाम जो शुद्ध जीव उससे भिन्न जन्मादिक हैं, वे सब
त्याज्य हैं, एक आत्मा ही उपादेय हैं, यह तात्पर्य जानना ।।६९।।
आगे जो शुद्धनिश्चयनयकर जन्म-मरणादि जीवके नहीं हैं, तो किसके हैं ? ऐसा
भावार्थःवीतराग निर्विकल्प समाधिथी विपरीत क्रोध, मान, माया, लोभ आदि
विभावपरिणामोथी उपार्जित कर्मो छे तेना उदयजनित जे जन्मादि ते शुद्ध निश्चयनयथी जीवने
नथी, कारण के केवळज्ञानादि अनंत गुणे करीने निश्चयनयथी अनादि संतानथी प्राप्त जन्मादिथी
जीव भिन्न छे.
अहीं, उपादेयरूप अनंत सुखनी साथे अविनाभूत शुद्ध जीवथी जे जन्मादि भिन्न छे
ते हेय छे, एवो तात्पर्यार्थ छे. ६९.
शुद्ध निश्चयनयथी जे जन्मादि स्वरूपो जीवनां नथी तो ते कोनां छे? एवा शिष्यना
अत्थि ण उब्भउ जरमरणु रोय वि लिंग वि वण्ण अस्ति न न विद्यते किं किं
नास्ति उब्भउ उत्पत्तिः जरामरणं रोगा अपि लिङ्गान्यपि वर्णाः णियमिं अप्पु वियाणि तुहुं
जीवहं एक्क वि सण्ण नियमेन निश्चयेन हे आत्मन् हे जीव विजानीहि त्वम् कस्य नास्ति
जीवस्य न केवलमेतन्नास्ति संज्ञापि नास्तीति अत्र संज्ञाशब्देनाहारादिसंज्ञा नामसंज्ञा वा ग्राह्या
तथाहि वीतरागनिर्विकल्पसमाधेर्विपरीतैः क्रोधमानमायालोभप्रभृतिविभावपरिणामैर्यान्युपार्जितानि
कर्माणि तदुदयजनितान्युद्भवादीनि शुद्धनिश्चयेन न सन्ति जीवस्य तानि कस्मान्न सन्ति केवल-
ज्ञानाद्यनन्तगुणैः कृत्वा निश्चयेनानादिसंतानागतोद्भवादिभ्यो भिन्नत्वादिति अत्र
उपादेयरूपानन्तसुखाविनाभूतशुद्धजीवात्तत्सकासाद्यानि भिन्नान्युद्भवादीनि तानि हेयानीति
तात्पर्यार्थः
।।६९।।
यद्युद्भवादीनि स्वरूपाणि शुद्धनिश्चयेन जीवस्य न सन्ति तर्हि कस्य सन्तीति प्रश्ने देहस्य

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१२४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-७०
शिष्यके प्रश्न करने पर समाधान यह है, कि ये सब देहके हैं ऐसा कथन करते हैंश्रीगुरु
कहते हैं,
गाथा७०
अन्वयार्थ : हे शिष्य, [त्वं ] तू [देहस्य ] देहके [उद्भवः ] जन्म [जरामरणं ]
जरा मरण होते हैं, अर्थात् नया शरीर (धरना), विद्यमान शरीर छोड़ना, वृद्ध अवस्था होना,
ये सब देहके जानो, [देहस्य ] देहके [विचित्रः वर्णः ] अनेक तरहके सफे द, श्याम, हरे,पीले,
लालरूप पाँच वर्ण, अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, ये चार वर्ण, [देहस्य ] देहके
[रोगान् ] वात, पित्त, कफ , आदि अनेक रोग [देहस्य ] देहके [विचित्रम् लिंङ्गं ] अनेक
प्रकारके स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुसकलिंगरूप चिन्हको अथवा यतिके लिंगको और द्रव्यमनको
[विजानीहि ] जान
भावार्थ :शुद्धात्माका सच्चा श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप अभेदरत्नत्रयकी भावनासे
विमुख जो राग, द्वेष, मोह उनकर उपार्जे जो कर्म उनसे उपजे जन्म-मरणादि विकार है, वे
सब यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके हैं, तो भी निश्चयनयकर जीवके नहीं हैं, देहसम्बन्धी है ऐसा
जानना चाहिये
यहाँ पर देहादिकमें ममतारूप विकल्पजालको छोड़कर जिस समय यह जीव
प्रश्नना उत्तरमां ‘ते सर्व देहनां छे’ एम कहे छेः
भावार्थःशुद्ध आत्मानां सम्यक्श्रद्धा, सम्यग्ज्ञान, सम्यग् आचरणरूप अभेद
रत्नत्रयनी भावनाथी प्रतिकूळ राग, द्वेष, मोहथी उपार्जित जे कर्मो तेना उदयथी प्राप्त थता
भवन्तीति प्रतिपादयति
७०) देहहँ उब्भउ जर-मरणु देहहँ वण्णु विचित्तु
देहहँ रोय वियाणि तुहुँ देहहँ लिंगु विचित्तु ।।७०।।
देहस्य उद्भवः जरामरणं देहस्य वर्णः विचित्रः
देहस्य रोगान् विजानीहि त्वं देहस्य लिङ्गं विचित्रम् ।।७०।।
देहस्य भवति किं किम् उब्भउ उत्पत्तिः जरामरणं च वर्णो विचित्रः वर्णशब्देनात्र
पूर्वसूत्रे च श्वेतादि ब्राह्मणादि वा गृह्यते तस्यैव देहस्य रोगान् विजानीहीति, लिङ्गमपि
लिङ्गशब्देनात्र पूर्वसूत्रे च स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गं यतिलिङ्ंग वा ग्राह्यं चित्तं मनश्चेति तद्यथा
शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयभावनाप्रतिकूलै रागद्वेषमोहैर्यान्युपार्जितानि कर्माणि

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अधिकार-१ः दोहा-७१ ]परमात्मप्रकाशः [ १२५
वीतराग सदा आनंदरूप सब तरह उपादेयरूप निज भावोंकर परिणमता है, तब अपना यह
शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय जानो
।।७०।।
आगे ऐसा कहते हैं कि हे जीव, तू जरा-मरण देहके जानकर डर मत कर
गाथा७१
अन्वयार्थ :[जीव ] हे आत्माराम, तू [देहस्य ] देहके [जरामरणं ] बुढ़ापा मरनेको
[दृष्टवा ] देखकर [भयं ] डर [मा कार्षीः ] मतकर [यः ] जो [अजरामरः ] अजर अमर [परः
ब्रह्म ] परब्रह्म शुद्ध स्वभाव हैं, [तं ] उसको तूँ [आत्मानं ] आत्मा [मन्यस्व ] जान
भावार्थ :यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके जरा-मरण हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर
जीवके नहीं है, देहके हैं, ऐसा जानकर भय मत कर, तू अपने चित्तमें ऐसा समझ, कि जो
कोई जरा-मरण रहित अखंड परब्रह्म है, वैसा ही मेरा स्वरूप है, शुद्धात्मा सबसे उत्कृष्ट है,
जन्ममरणादि धर्मो-जो के व्यवहारनयथी जीवना छे तोपणनिश्चयनयथी देहना छे, एम जाणवुं.
अहीं, देहादिना ममतारूप विकल्पजाळने छोडीने आ जीव ज्यारे सर्वप्रकारे उपादेयभूत एक
(केवळ) वीतराग सदानंदरूपे परिणमे छे त्यारे स्वशुद्धआत्मा ज उपादेय छे, एवो भावार्थ छे. ७०.
हवे, देहनां जरा, मरण देखीने हे जीव? तुं भय न कर, एम कहे छेः
भावार्थःपांच इन्द्रियोना विषयोथी मांडीने समस्त विकल्पजाळने छोडीने
तदुदयसंपन्ना जन्ममरणादिधर्मा यद्यपि व्यवहारनयेन जीवस्य सन्ति तथापि निश्चयनयेन देहस्येति
ज्ञातव्यम्
अत्र देहादिममत्वरूप विकल्पजालं त्यक्त्वा यदा वीतरागसदानन्दैकरूपेण
सर्वप्रकारोपादेयभूतेन परिणमति तदा स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति भावार्थः ।।७०।।
अथ देहस्य जरामरणं द्रष्टवा मा भयं जीव कार्षीरिति निरूपयति
७१) देहहँ पेक्खिवि जर-मरणु मा भउ जीव करेहि
जो अजरामरु बंभु परु सो अप्पाणु मुणेहि ।।७१।।
देहस्य द्रष्टवा जरामरणं मा भयं जीव कार्षीः
यः अजरामरः ब्रह्म परः तं आत्मानं मन्यस्व ।।७१।।
देहहं पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि देहसंबन्धि द्रष्टवा किम् जरा
मरणम् मा भयं कार्षीः हे जीव अयमर्थो यद्यपि व्यवहारेण जीवस्य जरामरणं तथापि

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१२६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-७२
ऐसा तू अपना स्वभाव जान पाँच इन्द्रियोंके विषयको और समस्त विकल्पजालोंको छोड़कर
परमसमाधिमें स्थिर होकर निज आत्माका ही ध्यान कर, यह तात्पयार्थ हुआ ।।७१।।
आगे जो देह छिद जावे, भिद जावे, क्षय हो जावे, तो भी तू भय मत कर, केवल
शुद्ध आत्माका ध्यान कर, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर सूत्र कहते हैं
गाथा७२
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [इदं शरीरम् ] यह शरीर [छिद्यतां ] छिद जावे,
दो टुकड़े हो जावे, [भिद्यतां ] अथवा भिद जावे; छेद सहित हो जावे, [क्षयं यातु ] नाशको
प्राप्त होवे, तो भी तू भय मत कर, मनमें खेद मत ला, [निर्मलं आत्मानं ] अपने निर्मल
आत्माका ही [भावय ] ध्यान कर, अर्थात् वीतराग चिदानंद शुद्धस्वभाव तथा भावकर्म,
परमसमाधिमां स्थित थईने तेने ज (परम ब्रह्मस्वरूप आत्माने ज) भाव, एवो भावार्थ छे. ७१.
हवे देह छेदाई जाओ, भेदाई जाओ तोपण शुद्ध आत्माने भाव एवो अभिप्राय मनमां
राखीने गाथासूत्र कहे छेः
भावार्थःअहीं जे देहना छेदनादि व्यापारमां पण रागद्वेषादि क्षोभने नहि करतो
शुद्धनिश्चयेन देहस्य न च जीवस्येति मत्वा भयं मा कार्षीः तर्हि किं कुरु जो
अजरामरु बंभु परु सो अप्पाणु मुणेहि यः कश्चिदजरामरो जरामरणरहितब्रह्मशब्दवाच्यः
शुद्धात्मा
कथंभूतः परः सर्वोत्कृष्टस्तमित्थंभूतं परं ब्रह्मस्वभावमात्मानं जानीहि पञ्चेन्द्रिय-
विषयप्रभृतिसमस्तविकल्पजालं मुक्त्वा परमसमाधौ स्थित्वा तमेव भावयेति भावार्थः ।।७१।।
अथ देहे छिद्यमानेऽपि भिद्यमानेऽपि शुद्धात्मानं भावयेत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रं
प्रतिपादयति
७२) छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरु
अप्पा भावहि णिम्मलउ जिं पावहि भव - तीरु ।।७२।।
छिद्यतां भिद्यतां यातु क्षयं योगिन् इदं शरीरम्
आत्मानं भावय निर्मलं येन प्राप्नोषि भवतीरम् ।।७२।।
छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरु छिद्यतां वा द्विधा भवतु भिद्यतां वा
छिद्रीभवतु क्षयं वा यातु हे योगिन् इदं शरीरं तथापि त्वं किं कुरु अप्पा भावहि णिम्मलउ
आत्मानं वीतरागचिदानन्दैकस्वभावं भावय किंविशिष्टम् निर्मलं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्म-